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इन्द्रभूति गौतम
अहंप्रत्यय
इन्द्रभूति-"आर्य ! संशय विज्ञान रूप में आत्मा का प्रत्यक्षीभाव-वास्तव में युक्ति
संगत है । मैं आपके वचन को मानता हूँ, किन्तु क्या संशय के अतिरिक्त
किसी अन्य रूप में भी आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है ?" महावीर-"आयष्मन् ! मैंने किया है, मैं कर रहा हूँ, मैं करूंगा--इस प्रकार जो अपने
कार्यों में आत्म-बोध की ध्वनि आती है, 'अहं' रूप ज्ञान अनुभव होता है क्या वह प्रत्यक्ष आत्मानुभव नहीं है ?१२ यदि जीव नहीं हैं, तो 'अहं'-प्रत्यय- (मैं का बोध) कौन कर सकता है और कैसे कर सकता है ? 'मैं हूँ या नहीं' इस प्रकार की शंका करने वाला कौन है ? तुम ने सोचा इस विषय पर ? युक्ति पूर्वक विचार करने पर
'अहंप्रत्यय' से तुम अपने आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो ।१3 इन्द्रभूति-"आर्य ! 'अहं' का बोध जिस प्रकार 'आत्मा' का परिचायक माना जाता
है, उसी प्रकार 'देह' का परिचायक भी माना जा सकता है।' महावीर—“इन्द्रभूति ! 'अहं' शब्द से यदि देह-बोध माना जाय तो फिर मृत शरीर में
'अहंप्रत्यय' होना चाहिए, पर वैसा तो नहीं होता ! अतः 'अहंप्रत्यय' का विषय देह नहीं, किन्तु आत्मा-चैतन्य ही हो सकता है । अतः जब 'अहंप्रत्यय' से तुम्हें आत्मबोध हो जाता है, फिर मैं हूँ या नहीं, इस संशय को कोई अवकाश नहीं रहता, बल्कि 'मैं हूँ यह आत्म-विश्वास की ध्वनि उठनी चाहिए।"
१२ तुलना कीजिए
सभी लोकों को आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति है, 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति किसी को भी नहीं है, यदि अपना अस्तित्त्व अज्ञात हो तो 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति भी होनी चाहिए।
–ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य १.१.१ न्यायमंजरी (पृ० ४२६) में अहंप्रत्यय को ही आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है । न्यायवार्तिक (पृ० ३४१) में भी इसे प्रत्यक्ष ज्ञान की श्रेणी में लिया गया है।
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