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________________ आत्म-विचारणा विरोध में वेद एवं उपनिषद् के अनेक वचन आत्मा को अमुर्त, अकर्ता, निगुण, भोक्ता आदि विभिन्न रूपों में सिद्ध भी करते हैं-अतः आगम परस्पर विरोधी होने के कारण प्रामाण्य नहीं हो सकते । आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव महावीर-"आयुष्मन् इन्द्रभूति ! लगता है विचारों की विविधता एवं शास्त्र वचनों की गहराई के हार्द को न पकड़ पाने के कारण ही तुम अभी तक इस संशय से ग्रस्त रहे हो। तुम अपनी दृष्टि को स्वच्छ एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त करो, आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव तुम्हें हो सकता है ।" इन्द्रभूति-(आश्चर्य के साथ) “आर्य ! क्या यह सम्भव है ! अप्रत्यक्ष अमूर्त आत्मा का मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता हूँ ?" महावीर-"अवश्य ! तुम ही क्या ? प्रत्येक प्राणी आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, कर रहा है !" इन्द्रभूति की जिज्ञासा प्रबल हो उठी वे महावीर के और निकट आये एवं अत्यन्त आतुरता से बोले-वह कैसे ? महावीर-'जीव है या नहीं ? यह जो संशय है, वह तुम्हारी विज्ञान चेतना का ही एक रूप है । विज्ञान आत्मा का स्वरूप है ।१९ संशय रूप विज्ञान का तुम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो, और यही आत्मा का अनुभव है- अतः कहा जा सकता है कि तुम आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो । जिस प्रकार शरीर का सुख-दुःख स्व-संविदित है, उसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं, उसीप्रकार विज्ञान रूप आत्मा का संशय के रूप में तुम प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हो, तो फिर किसी प्रमाण की तुम्हें कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।" ९. (क) छांदोग्य उपनिषद् ८।१२।१ (ख) मैत्रायणी उपनिषद् ३।६।३६ १०. गोतम ! पच्चक्खो च्चियजीवो जं संसयातिविण्णाणं । पच्चक्खं च ण सज्झ जध सुह-दुक्खं सदेहमि। -गणधरवाद गाथा १५५४ ११. जीवो उवओग लक्खणो-उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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