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इन्द्रभूति गौतम
'तान्येवानुविनश्यति'-इस पद से यह ध्वनित होता है कि जो ज्ञान जिस ज्ञय रूप पदार्थ के आलम्बन से उत्पन्न हुआ, उसके नष्ट होने पर वह ज्ञान भी नष्ट हो जाता है । घटरूप ज्ञेय के नष्ट हो जाने पर घट रूप विज्ञान भी नष्ट हो गया, और घट विज्ञान आत्म रूप पर्याय भी नष्ट हो गई। वह पर्याय विज्ञानघन रूप जीव से अभिन्न थी, अतः यह कहा जाता है कि अमुक भूत के नाश होने पर विज्ञानघन का भी नाश हो गया। इसके साथ एक बात यह भी समझ लेना है कि जब घट रूप ज्ञान पर्याय का नाश हुआ तो विज्ञानघन में अन्य पट आदि ज्ञान पर्याय का जन्म भी हो गया। एक ज्ञान पर्याय के विलय होने पर अन्य ज्ञान पर्याय उत्पन्न होती है, और उन दोनों ज्ञान पर्याय का आधार भूत विज्ञानघन-आत्मा विद्यमान होने से आत्मा को नित्यानित्यता सिद्ध होती है । यह विज्ञान घन आत्मा-उत्पाद् व्यय ध्रौव्य स्वभाव से युक्त है। पूर्व पर्याय के विलय से उसका व्ययस्वभाव परिलक्षित होता है, अपर पर्याय के उद्गम से उत्पाद स्वभाव का परिचय मिलता है, तथा दोनों स्थितियों में विज्ञानघन आत्मा का अविनाशी ध्र व स्वभाव स्थिर रहने से यह ध्रौव्य
स्वभावी है। इन्द्रभूति -आर्य ! जब आत्मा त्रिस्वभावी (उत्पाद-व्यय-ध्रोव्य युक्त) है तो फिर 'न
प्रेत्य संज्ञास्ति' यह क्यों कहा गया ? महावीर---इन्द्रभूति ! इस वचन का तात्पर्य है, जब आत्मा पूर्व पर्याय का त्याग
करके अपर पर्याय को ग्रहण कर लेता है तब पूर्व पर्याय का अंश उस में नहीं रहता । जब आत्मा घट ज्ञान का त्याग करके पट ज्ञान में प्रवृत्त हुआ तो क्या तब भी उसको 'घटज्ञान' या 'घटोपयोग' संज्ञा दी जा सकती है, नहीं न ! चूंकि घटोपयोग निवृत्त होने पर ही पटोपयोग प्रवृत्त होता है-अतः यह माना जा सकता है उस समय प्रेत्य-अर्थात् पूर्व पर्याय को संज्ञा नहीं रहतो । यहाँ प्रेत्य से अर्थ पूर्व पर्याय समझना चाहिए,
न कि परभव ! इन्द्रभूति-आर्य ! यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त वाक्य में परलोक का निषेध
नहीं है ?
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