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आत्म-विचारणा
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जीव का नित्यानित्यत्व
महावीर-'आयुष्मन् ! वेद वाक्यों की पूर्वापर संगति देखने से यह विश्वास होता है
कि उन्होंने जीव का निषेध नहीं किया है, बल्कि देह से जीव को भिन्न माना है । और 'अग्निहोत्र जुहूयात् स्वर्गकामः ।।१ "ज्योतिर्यज्ञन कल्पतां स्वर्यज्ञन कल्पताम्" २२ आदि वचनों में यज्ञ आदि का फल स्वर्ग प्राप्ति बताया है । यदि भवान्तर में जाने वाला कोई नित्य आत्मा नहीं है, तो फिर यज्ञ आदि कर्म का फल प्राप्त करने के लिए स्वर्ग आदि परलोक में कौन जायेगा ? इसलिए तुम अपनी समस्त शंकाओं का निराकरण करके यह दृढ़ विश्वास करो कि 'जीव है' वह नित्यानित्य है, जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार फल भी प्राप्त करता है।
प्रव्रज्या
तीर्थंकर महावीर के युक्तिसंगत वचनों से इन्द्रभूति गौतम के मन की गाँठ खुल गई, उनका संशय निर्मूल हो गया और ज्ञान पर गिरा हुआ पर्दा हट गया। उन्हें भगवान महावीर की सर्वज्ञता एवं वीतरागता पर अटूट विश्वास हो गया । इन्द्रभूति के मन में गप्तसंशय, जो उन्होंने आज तक किसी से नहीं बताये, भगवान महावीर ने उन्हें खोलकर रख दिए और गौतम के मनोभावों का स्पष्ट उद्घाटन कर दिया। इसलिए गौतम महावीर की सर्वज्ञता पर श्रद्धा करने लगे। दूसरी बात भगवान महावीर को तत्व प्रतिपादन शैली बड़ी अद्भुत, युक्तिसंगत एवं वीतरागता का स्पष्ट दर्शन करानेवाली थी । आत्मा जैसे गंभीर विषय पर इतनी लम्बी चर्चा करने पर भी उन्होंने कहीं भी यह नहीं कहा कि मैं कहता हूँ इसलिए तुम मानो । उनकी शैली श्रद्धा प्रधान नहीं, बल्कि तर्क प्रधान शैली थी, जो जिज्ञासु के मन में छिपी हुई शंका को बाहर निकाल कर ले आती। इस वाद विवाद शैली में जिस सौम्यता,
२०. बृहदारण्यक ४।३।६ में कहा है कि 'ज्योतिरेवायं पुरुषः ? आत्म ज्योतिरेवायं
सम्राड्,—यह पुरुष आत्म ज्योति है । २१. मैत्रायणीउपनिषद् ३।६।३६ २२. यजुर्वेद १८।२९
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