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इन्द्रभूति गौतम
स्कन्दक जैसे परिव्राजक परम्परा के सूत्रधार को भगवान महावीर की ओर प्रेरित करने में पिंगल निग्रन्थ भले ही निमित्त रहा हो, पर भगवान के प्रति उसकी श्रद्धा भक्ति को जगाने एवं संयम साधना के प्रति आकृष्ट करने में गौतम का मधुर व्यवहार एवं हार्दिक स्नेह प्रमुख कारण रहा-यह निःसन्देह कहा जा सकता है। भगवान के द्वार पर गौतम द्वारा स्कन्दक का स्वागत और सम्मान जैन शिष्टाचार की एक महत्वपूर्ण घटना है । अन्य परम्परा के भिक्षुओं के साथ इस प्रकार के मधुर एवं शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार के उदाहरण आज नई सभ्यता के युग में भी हमें उच्च व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करते हैं।
निर्भीक शिक्षक
गौतम जितने व्यवहार कुशल थे, उतने ही स्पष्ट वक्ता और निर्भीक शिक्षक भी थे। प्रायः व्यवहार कुशलता को चाटुकारिता का रूप दे दिया जाता है, उसे एक प्रकार की खुशामद या 'गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास' की नीति मानी जाती है, किन्तु यह हमारे मन की भ्रान्ति तथा आत्मविश्वास की दुर्बलता है । व्यवहार कुशलता के साथ स्पष्टवादिता एवं निर्भीक शिक्षक होने से कोई विरोध नहीं है, अपितु ये गुण तो व्यवहार कुशलता को और चमका देने वाले हैं—यह बात गौतम और उदकपेढाल (पार्श्वनाथ के शिष्य) के बीच हुए वार्तालाप के अनन्तर उनके व्यवहार पर की गई गौतम की टीका से स्पष्ट हो जाता है।७१
उदक पेढाल ने अनेक प्रश्न किये थे और गौतम ने उनका उचित समाधान भी दिया। पर उसके व्यवहार से गौतम को प्रतीत हुआ कि उसमें कुछ अपने ज्ञान का अहंकार आ गया है, और वह इतर श्रमण ब्राह्मणों पर कुछ-कुछ कटु आक्षेप एवं
६. क्या जीव और शरीर भिन्न हैं ? ७. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ८. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं, और नहीं भी होते ? ९. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ?
-मझिम निकाय, चूलमालुक्य सुत्त६३
-दीघनिकाय, पोट्ठ पाद सुत्त, ११९, ७०. भगवती सूत्र २।१ ७१. संवाद का पूरा विवरण देखिए परिसंवाद खण्ड में
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