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________________ व्यक्तित्व दर्शन शाब्दिक प्रहार करने में भी नहीं चूकता है तो गौतम ने उसे प्रेम पूर्वक शिक्षा के रूप में कहा—'आयुष्मन् ! जो साधक पाप कर्मों से मुक्त होने के लिये सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को आराधना कर रहा हो, वह यदि दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों की अवहेलना एवं निन्दा करता है, (भले ही वह अपने मन में उन्हें अपना मित्र समझता हो) तो उसे परलोक में कल्याण प्राप्त नहीं होता।"७५ . संभवतः गौतम की शिक्षा उदक पेढाल पुत्र के मन में चुभ गई हो, उसे अपनी वृत्ति पर कुछ झिझक आई हो और इसलिए वह इतनी तत्त्वचर्चा कर चुकने के बाद भी बिना किसी प्रकार के अभिवादन एवं कृतज्ञता ज्ञापन के चल पड़ा तो गौतम को उसका अविनयपूर्ण व्यवहार अखरा । एक श्रमण, जिसके कि धर्म का मूल ही विनय है. विनय, सभ्यता, शिष्टाचार की शिक्षाओं से जिसके धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। वह यों शंका समाधान कर्ता के प्रति अविनय पूर्ण व्यवहार करे यह नितान्त अनुचित था और गौतम जैसे महान साधक, उपदेशक एवं विनयमूर्ति इस बात को यों ही गवारा नही कर सकते थे। गौतम ने उदक पेढालपुत्र को उठते-उठते पुकारा-"आयुष्मन् ! किसी श्रमण निग्रन्थ के पास यदि धर्म का एक भी श्रेष्ठ पद, एक भी सुवचन-- ''एगमपि स वयणं' सुनने को मिला हो, तथा किसी ने अनुग्रह करके योगक्षेम का उत्तम मार्ग दिखाया हो, तो क्या उसके प्रति कुछ भी सत्कार, सम्मान व आभार प्रदशित किये बिना चले जाना चाहिए ?"७५ ' गौतम के कहने का ढंग इतना स्नेहपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी था कि उदक पेढाल पुत्र के पैर वहीं रुक गये, वह आश्चर्यपूर्वक गौतम स्वामी की ओर देखने लगा, उसकी आँखों में कृतज्ञता के भाव आने लगे, और वह संभ्रमित-सा हो गया कि मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? ७२. आउसंतो उदगा ! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मितिमन्नति....... से खलु परलोग पलिमंथत्ताए चिट्ठइ। -सूत्र कृतांग २।७।३६ ७३. "एवं धम्मस्स विणओ मूलं-दशव० ९।२।२ ७४. (क) जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे-दशवै० ९।१।१२ (ख) देखिए उत्तराध्ययन विनय अध्ययन गाथा १८-२३ ७५. उदगा ! जे खलु तहा भूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमपि आरियं सुवयणं सोच्चा निसम्म""आढाई परिजाणंति वंदंति नमसंति.."। सूत्र कृतांग २।७।३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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