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________________ व्यक्तित्व दर्शन महावीर की यह वाणी भगवती सूत्र में इस प्रकार अक्षर निबद्ध हुई है.. "गौतम तुम नहुत अतीत काल से मेरे साथ स्नेह बन्धन में बंधे हो, तुम जन्म-जन्म से मेरे प्रशंसक रहे हो, मेरे परिचित रहे हो, अनेक जन्मों में मेरी सेवा करते रहे हो, मेरा अनुसरण करते रहे हो, और प्रेम के कारण मेरे पीछे-पीछे दौड़ते रहे हो । पिछले देव भव, एवं मनुष्य भव में भी तुम मेरे साथी रहे हो । इस प्रकार अपना स्नेह बन्धन सुदीर्घ कालीन है, मैंने उसे तोड़ डाला है, तुम नहीं तोड़ पाए । विश्वास करो, तुम भी (अति शीघ्र बंधन से मुक्त होकर) अब यहाँ से देह मुक्त होकर हम दोनों एक समान, एक लक्ष्य पर पहुँचकर भेद रहित तुल्य रूप प्राप्त कर लेंगे।" भगवान का भक्त के प्रति यह आश्वासन वास्तव में एक बहुत बड़ा आश्वासन है, जिसे सुनकर गौतम की समस्त खिन्नता, मनोव्यथा हवा में उड़ गयी होगी और अपूर्व प्रसन्नता से रोम-रोम पुलक उठा होगा। वैदिक भक्ति परम्परा में जब भगवान भक्त पर प्रसन्न होता है, तो उसे पुनः भक्त बनने का वरदान देता है, और भक्त इस भगवद् कृपा को सर्वश्रेष्ठ कृपा समझकर कृत-कृत्य हो जाता है। किन्तु जैन परम्परा भक्त को भक्त ही नहीं, भगवान बनने का वरदान देती है, और उसके भगवान स्वयं अपने श्री मुख से कह रहें हैं—'तुम भी ८९. पिछली घटना चंपानगरी में हुई है, और भगवान महावीर का यह कथन राजगृह में हुआ है, संभवतः इस बीच जैसा कि अष्टापद की घटना से परिलक्षित होता है वह घटना घटित हुई हों, और बार-बार ऐसी घटना होने से गौतम की खिन्नता बढ़ी हो, और तब भगवान ने निम्न आश्वासन दिया हो–“चिर संसिट्ठोऽसिमे गोयमा ! चिर संथुओऽसि मे गोयमा ! चिर परिचिओऽसि मे गोयमा । चिर जुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणु गओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा । इओ चुआ दोवितुल्ला एगट्ठा अविसेस मणाणत्ता भविस्सामो। -भगवती सूत्र १४७ गौतम से स्नेह बंधन तोड़ने के लिये भगवान महावीर ने अनेक बार उपदेश किया होगा, वीतरागता की ओर मोड़ने का प्रयत्न किया होगा यह आगमों में आये अनेक उपदेशों से ध्वनित होता है । उत्तराध्ययन १०।२८ में भी गौतम को सम्बोधित करके कहा गया है-'वोच्छिद सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं पाणिना।" -उत्त० १०।२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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