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इन्द्रभूति गौतम
हाँ तो भगवान की वाणी सुनकर गौतम को बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही अपनी छद्मस्थता पर उन्हें खेद भी हुआ कि ये मेरे शिष्य तो सर्वज्ञ हो गए और मैं अभी तक छद्मस्थ ही रहा । गुरु जी गुड़ हो रहे और चेले शक्कर हो गये-कहावत जैसी बात हो गई ?
मुक्ति का वरदान
प्रस्तुत घटना ने गौतम के मन को बहुत झक-झोरा, शिष्यों की प्रगति एवं अभिवृद्धि से उनके उदार मन को कोई ईर्ष्या नहीं थी, किन्तु स्वयं इतनी तपस्या, साधना, ध्यान, स्वाध्याय आदि करने पर, तथा प्रभु के प्रति अनन्य श्रद्धा रखने पर भी अब तक छद्मस्थ हो रहे इस बात से उनके मन को बड़ी चोट पहुँची। वे अपने मन की गहराई में उतरे होंगे। आत्म-निरीक्षण करने लगे होंगे कि 'आखिर मेरी साधना में क्या कमी है ? मेरे अध्यात्म योग में कौन सी रुकावट आ रही है जिसे तोड़ सकने में मैं अब तक असमर्थ रहा हूँ।' हो सकता है जब इस प्रकार का कोई कारण उनके सामने नहीं आया हो तो वे बहुत खिन्न हुए हों, चितित हुए हों और तब भगवान महावीर ने अपने प्रिय शिष्य की खिन्नता एवं मनोव्यथा दूर करने के लिए सान्त्वना देने के रूप में कहा-'गौतम ! तुम्हारे मन में मेरे प्रति अत्यंत अनुराग है, स्नेह है, उस स्नेहबंधन के कारण ही तुम अपने मोह का क्षय नहीं कर पा रहे हो, और वही मोह तुम्हारी सर्वज्ञता में मुख्य अवरोध बना हुआ है ।” प्रभु
तापसों को आश्चर्य हुआ "यह हृष्ट-पुष्ट मांसल शरीर वाला साधु इतनी त्वरित गति से कसे अष्टापद का आरोहण कर सका, जबकि हम बहुत समय से प्रयत्न करते हुए भी समर्थ नहीं हो रहे हैं ।"गौतम स्वामी के वापस आने पर उनसे वार्तालाप किया और पन्द्रह सौ तीन तापसों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । गौतम स्वामी ने उनको अपनी (अक्खीणमहानस) लब्धि के बल खीर से पारणा करवाया और भगवान महावीर के समवसरण में उनको लेकर आये। गौतम स्वामी एवं भगवान के गुण चिन्तन से उत्कृष्ट परिणाम आने पर उन्हें भी कैवल्य प्राप्त हो गया, वे भी उसी प्रकार केवली परिषद् में जाने लगे और गौतम स्वामी ने टोका तब भगवान ने स्थिति का स्पष्टीकरण किया।
देखिए-कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, गणधरवाद की भूमिका (दलसुख मालवणिया पृ० ६६) ।
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