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________________ व्यक्तित्व दर्शन १०१ दर्शन को आध्यात्मिक दृष्टि ने 'राग' को स्पष्टतः ही बन्धन स्वीकार किया है ।१०९ फिर भले ही वह प्रशस्त (शुभ) हो या अप्रशस्त । हां, प्रशस्त राग, राग की ऊर्ध्वदशा है, वह भले ही जीवन में काम्य न हो, पर अप्रशस्त की भांति त्याज्य भी नहीं है, अतः उसे पुण्य रूप अवश्य माना गया है । 0 २ किन्तु आत्म साधक के लिए वह पुण्य भो बन्धन है, चाहे सोने की बेड़ी के रूप में ही हो, अतः वह त्याज ही है। १०3 गौतम के अन्तःकरण में प्रभु महावीर के प्रति जन्म-जन्मान्तर-संश्लिष्टअनुराग था । वही उन्हें वीतराग बनने से रोक रहा था। भगवती सूत्र७४ में स्वयं भगवान ने उस अनुराग का वर्णन किया है और गौतम को सम्बोधित करके कहा है-'च्छिदसिणेहमप्पणो-९८५ अपने स्नेह बन्धन को यों तोड़ डाल, जैसे शरद ऋतु के कमल दल को हाथ के झटके से तोड़ दिया जाता है। प्रभु का उपदेश, उद्बोधन प्राप्त करके भी गौतम इस सूक्ष्म राग को नहीं तोड़ सके और इसी कारण वीतराग-दशा प्राप्त नहीं कर सके । पावा में अंतिम वर्षावास भगवान महावीर ने अपना अंतिम वर्षावास पावा०६ (अपापापुरी) में किया। वहाँ हस्तिपाल राजा था। उसकी रज्जुकशाला (लेख शाला) में भगवान स्थिरवास रहे। कार्तिक अमावस्या का दिन निकट आया, अंतिम देशना के लिए समवसरण की विशेष रचना की गई । शक्र ने खड़े होकर भगवान की स्तुति की, फिर हस्तिपाल १०१. (क) दुविहे बन्धे-पेज्जबन्धे चेव दोसबन्धे चेव-स्थानांग-२।४ (ख) रागो य दोसो बि य कम्मबीयं-उत्त० ३२७ (ग) समयसार २६५ १०२. पंचास्तिकाय १३५ १०३. वहीं, गा० १४२, १०४. शतक १४७ १०५. उत्तराध्ययन १०।२८ १०६. 'पावा' के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए देखें-आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन (मुनि नगराज जी डी० लिट् ०) पृ० ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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