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इन्द्रभूति गौतम
सत्योन्मुखी जिज्ञासा, नया ग्रहण करने की उत्कट अभिलाषा है तो क्रिया के साथ उदग्रता, सरलता निरहंकारिता, भक्ति एवं हृदय की उदारता का भी अद्भुत सम्मिश्रण उनके जीवन दर्शन में प्राप्त होता है।
गौतम की सराग-उपासना
गौतम ने पचास वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की।६ जिस दिन भगवान महावीर को कैवल्य हुआ उसके दूसरे दिन ही उनकी प्रव्रज्या हुई और भगवान महावीर की विद्यमानता में उन्हें केवल ज्ञान नहीं हुआ। यद्यपि उनकी साधना परम उज्ज्वल एवं उत्कट थी, उनकी क्रिया श्रमणसंघ के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श बताई गई हैं। धन्य अणगार जैसे तपस्वियों के वर्णन में भी गौतम स्वामी का उदाहरण दिया गया है।९७ उनके द्वारा दीक्षित सैकड़ों हजारों शिष्य केवली हो गए। ८ फिर भी गौतम स्वामी को तीस वर्ष तक केवल ज्ञान नहीं हुआ, यह एक आश्चर्य की बात है । इसके कारणों की खोज में सम्पूर्ण आगम वाङमय सिर्फ एक ही उत्तर देता है और वह है गौतम का भगवान महावीर के प्रति स्नेह बन्धन ।९९ इतने बड़े साधक, जो शरीर रहते हुए भी शरीरमुक्त स्थिति का अनुभव करते रहे, जिनके लिए स्थान-स्थान पर 'उच्छूढ शरीरे १०० विशेषणों का प्रयोग हुआ, वे अध्यात्म की उच्चतम भूमिका पर पहुंचे हुए अध्यात्म योगी भगवान महावीर के प्रति स्नेह बन्धन के कारण वीतराग स्थिति नहों प्राप्त कर सके यह आश्चर्यकारी बात होते हुए भी जैन दृष्टि के 'समत्वयोग' की निष्पक्ष उद्घोषणा भी है। जो साधक अपने देह की ममता से मुक्त है, किन्तु अपने भगवान के प्रति यदि अनुराग रखता है, तो भले ही यह उसका भगवद् अनुराग हो, किन्तु आखिर वह भी बन्धन है, भगवदनुराग भी उसकी वी तरागताका बाधक है, क्यों न हो, जिस धर्म का आराध्य भगवान स्वयं बीतराग है, वह अपने भक्तों को भी स राग-उपासना से भक्ति का वरदान कैसे दे सकता है ? जैन
१६. आवश्यक नियुक्ति ९७. औपपातिक सूत्र (धन्य अणगार वर्णन) ९८. (क) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ० १६९-१७१
(ख) कल्पसूत्र बालावबोध पृ० २६० १६. भगवतीसूत्र १४७ १०० भगवती सूत्र १११. उवासग दशा ११, औपपातिकसूत्र
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