________________
इन्द्रभूति गौतम
भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करके पूछा--"गौतम ! क्या तुम अपने चिर परिचित पूर्व जन्म के मित्र को देखना चाहते हो' ? ।
गौतम ने आश्चर्य पूर्वक भगवान की ओर देखा, उनकी भावना में आश्चर्य था, जिज्ञासा थी ! भगवान ने कहा--- "गौतम तुम आज अपने पूर्व परिचित मित्र को देखोगे ?'६७
गौतम अभी भी भगवान की रहस्य भरी वाणी को नहीं समझ सके ! उन्होंने पूछा-'भगवन् ! वह मित्र कौन है, जिसे मैं आज देखूगा ?"
भगवान ने स्कंदक का परिचय देते हुए बताया- ''वह स्कन्दक परिव्राजक तुम्हारे पूर्व जन्म का मित्र है, उसके मन में शंका हो जाने से वह समाधान पाने के लिए अभी आ रहा है । कुछ समय बाद वह तुम्हारे निकट आयेगा और तुम उसे देखोगे।"
गौतम के हृदय में मित्र दर्शन की उत्कण्ठा जगी और साथ ही उसके कल्याण की कामना भी। वस्तुतः सच्चा मित्र वही होता है जो कल्याण-सखा होता है । गौतम ने भगवान से पूछा- "भन्ते ! मेरे पूर्व जन्म का मित्र स्कंदक क्या आपके पास धर्म श्रवण कर दीक्षित हो सकेगा ?"
भगवान ने इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' में दिया। तभी स्कन्दक आते हुए दिखलाई पड़े । गौतम श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि थे, और स्कन्दक एक परिव्राजक परम्परा का विद्वान ! फिर भी गौतम के मन में स्कन्दक के प्रति आदर जगा, सामान्य शिष्टाचार और स्वागत सत्कार की विधि के अनुसार वे भगवान के पास से उठे दस-बीस कदम आगे बढ़े और स्नेह एवं माधुर्य से छलछलाई आँखों से हर्ष व्यक्त करते हुए सभ्य, शिष्ट एवं मधुर वाणी से बोले- “स्कन्दक ! आप आगए ? स्वागत है आपका, स्वागत है । बहुत बहुत स्वागत है । आपका विचार, आपकी धर्म जिज्ञासा प्रशंसनीय है । ६८ पिंगल निग्रन्थ के प्रश्नों द्वारा आपके मन में जो जिज्ञासा जगी है अब उसका समाधान प्रभु से प्राप्त कीजिए !"
६७. दच्छसिणं गोयमा ! पुव्व संगयं ।
कं णं भंते ?
खंदयं नाम ! ६८. हे खंदया ! सागयं, खंदया ! सुसागयं,
अण रागयंखंदया ! सागय मणुरागयं खंदया !
----भगवती २११.
--भगवती २११.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org