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व्यक्तित्व दर्शन
श्रावस्ती में निग्रन्थ प्रवचन के रहस्यों का जानकार एक पिंगल नामक निग्रन्थ रहता था । भगवान महावीर की वाणी उसने सुनी थी और वह उस पर अत्यन्त श्रद्धा रखता था । एक बार पिंगल निर्ग्रन्थ स्कन्दक परिव्राजक के पास आया और उसे आक्षेपात्मक भाषा में पूछा - " मागध ! क्या तुम बता सकते हो, यह लोक सान्त है या अनन्त ? जीव सान्त है या अनन्त ? सिद्धि एवं सिद्ध सान्त है या अनन्त ? किस प्रकार की मृत्यु प्राप्त होने से पुनर्जन्म का अवरोध हो सकता है ? क्या तुम मेरे इन प्रश्नों का समाधान कर सकोगे ? ६६
पिंगल के द्वारा इस प्रकार के गम्भीर प्रश्न सुनकर स्कन्दक विचार मग्न हो गया । उसे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं सूझा । पिंगल के द्वारा दो-तीन बार पूछने पर भी वह मौन रहा, और मन-ही-मन अपने शास्त्रों पर शंका होने लगी, जहाँ इस प्रकार के प्रश्नों पर कहीं कोई चिन्तन नहीं किया गया । उसको स्व-आगम श्रद्धा विचलित हो गई, और वह इनका समाधान पाने को आतुर हो उठा। उसी समय स्कंदक ने लोगों में एक चर्चा सुनी कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु महावीर आज कृतंगला नगरी के छत्र पलाश उद्यान में पधारे हैं । उन महाभाग के दर्शन अभिवादन से तो परम लाभ प्राप्त होता ही है, किन्तु उनके दर्शन तो दूर रहे, तो उनका नाम गोत्र सुनने से भी मनुष्य का कल्याण हो जाता है। उनके उपदेश से सब प्रकार के संशय विनष्ट हो जाते हैं और आत्मा परम समाधि को प्राप्त होता है ।"
जनता के मुख से इस प्रकार का संवाद सुनते ही स्कन्दक के विचारों में एक हलचल हुई, उसे एक मार्ग दीखपड़ा, अपनो शंकाओं का समाधान प्राप्त करने की बलवती जिज्ञासा उसमें जगी । वह अपने स्थान पर आया, त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्ष माला, आसन आदि लेकर वह भी भगवान महावीर के समवसरण की ओर चल
पड़ा ।
६६. मागहा ! किस अंते लोए, अणंते लोए ? सअंते जीवे, अणते जीवे ? अंतासिद्धि अता सिद्धि ? अंते सिद्ध, अणते सिद्ध े ?
केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा हायति वा ?
- भगवती
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सूत्र २।१
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