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________________ ७८ इन्द्रभूति गौतम परिवार रहता था। उनमें गर्दभालि नामक परिव्राजक का शिष्य स्कन्दक परिव्राजक मुख्य था-स्कन्दक कात्यायन गोत्र का था, चार वेद एवं अन्य अनेक धर्मशास्त्रों का वह पारंगत था। ब्राह्मण एवं परिव्राजकों के दर्शन का उसने गहन अध्ययन एवं अनुशीलन किया था। सूत्र में उल्लेख है कि परिव्राजक को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिए । एक वस्त्र अथवा चर्मखण्ड धारण करना चाहिए, गायों द्वारा उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को आच्छादित करना चाहिये। तथा जमीन पर सोना चाहिए। ये लोग आवसथ (अवसह) में निवास करते तथा आचारशास्त्र और दर्शन आदि विषयों पर वादविवाद करने के लिए दूर-दूर तक पर्यटन करते । परिव्राजक श्रमण चार वेद इतिहास (पुराण), निघंटु पष्ठितन्त्र, गणित, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण शास्त्रों के विद्वान होते थे। दान धर्म, शौच धर्म और तीर्थ स्नान का वे उपदेश करते थे। उनके मतानुसार जो कुछ भी अपवित्र होता वह जल और मिट्टी के धोने से पवित्र हो जाता है । और इस प्रकार शुद्ध देह (चोक्ष) और निरवध्य व्यवहार से युक्त होकर स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इन परिव्राजकों को तालाब, नदी, पुष्करिणी, वापी, आदि में स्नान करने; गाड़ी, पालकी अश्व, हाथी आदि पर सवार होने, नट मागध आदि का तमाशा देखने, हरित वस्तु आदि को रोंदने, स्त्री, भक्त, देश, राज और चोर कथा में संलग्न होने, तुम्बी, काष्ठ और मिट्टी के पात्रों के सिवाय बहुमूल्य पात्र धारण करने, गेरुए वस्त्र को छोड़कर विविध प्रकार के रंगीन वस्त्र पहनने, तांबे की अंगूठी (पवित्तिय) को छोड़कर हार, अर्धहार, कुण्डल आदि आभूषणों को धारण करने, कर्णपुर को छोड़कर अन्य मालाएँ पहनने और गंगा की मिट्टी को छोड़कर अगुरु, चन्दन आदि का शरीर पर लेप करने की मनायी है । उन्हें केवल पीने के लिए एक मागध प्रस्थप्रमाण जल ग्रहण करने का विधान है । वह भी बहता हुआ और छन्ने से छना हुआ (परिपूय) । इस जल को वे हाथ, पैर, थाली या चम्मच आदि धोने के उपयोग में नहीं ला सकते ।१३ -जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० ११२-११६ २. १०-६-११; मलालसेकर, डिक्सनरी आँव पाली प्रोपर नेम्स, जिल्द २, पृ० १५९ आदि; महाभारत १२.१९०.३ । ३. औपपातिकसूत्र ३८, पृ० १७२-७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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