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व्यक्तित्व दर्शन
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करना बहुत ही कठिन है । इसमें विद्वत्ता की नहीं, किन्तु हृदय की सरलता, स्नेहसिक्तता एवं मधुरता की आवश्यकता होती है । बालक द्वारा अंगुली पकड़ने पर भी गौतम स्वामी ने उसे झिड़का नहीं, उससे छुड़ाने का प्रयत्न भी नहीं किया। चूंकि ऐसा करने पर संभव था बालक के कोमल हृदय को ठेस पहुँचे, साधुवेष के प्रति उसके मन में जो आकर्षण जगा, वह नफरत व भय में बदल जाये । गौतम की इस प्रकार की सरलता, मधुरता एवं स्नेहशीलता के कारण ही न जाने कितने खिलते हुए सुकुमार शैशव और उभरते हुए अल्हड़ यौवन त्याग, साधना एवं अध्यात्म विद्या के मार्ग पर आकर समर्पित हो गये। लगता है गौतम वास्तव में ही सरलता एवं मधुरता का अक्षय स्रोत था।
मधुर अातिथ्य
गौतम के हृदय की मधुरता का एक ओर उदाहरण भगवती में आता है । कृतंगला नगरी से कुछ दूर श्रावस्ती में परिव्राजक ५ साधुओं का एक विशाल
६४. भगवतीसूत्र २।१ ६५. (क) परिव्राजक-भिक्षा से आजीविका करने वाला साधु-निरुक्त १।१४
-(वैदिक कोश) (ख) जैन सूत्र एवं उत्तरवर्ती साहित्य में तापस, परिव्राजक, सन्यासी आदि
अनेक प्रकार के साधकों का विस्तृत वर्णन आता है। इसके लिए औपपातिक सूत्र सूत्रकृतांग नियुक्ति, पिडनियुक्ति गा. ३१४ वृहत्कल्प भाष्य भा.४ पृ० ११७० निशोथ सूत्र सभाष्य चूणि भाग-२ एवं भगवती सूत्र ११६. आवश्यक चूर्णी पृ० २७८ । धम्मपद अट्ठकथा २ पृ० २०९ दीघ निकाय अट्ठकथा-१ पृ० २७० । ललित विस्तर पृ० २४८ । तथा जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० ४१२ से ४१६ तक में देखा जा सकता है ।
परिव्राजक श्रमणों का संक्षिप्त परिचय "गेरुआ वस्त्र धारण करने के कारण इन्हें गेरुअ अथवा गैरिक भी कहा गया है। परिव्राजक-श्रमण ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित पण्डित होते थे । वशिष्ट धर्म
१. निशीथचूर्णी १३.४४२० ।
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