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इन्द्रभूति गौतम
गौतम-"हाँ, क्यों नहीं।"
अतिमुक्तक--"तो फिर चलिए, आप मुझे बड़े ही प्रिय लग रहे हैं, मैं अपने घर ले जाकर आपको भिक्षा दूंगा।” यों कहकर अतिमुक्तक ने गौतम की अंगुली पकड़ ली। ६३ जैसे कोई मित्र अपने मित्र की अंगुली पकड़ कर उसे अपने घर ले चलने का आग्रह करता हो, और गौतम भो बालक अतिमुक्तक के साथ-साथ राजमहलों की ओर चल दिये । जब श्रीदेवी ने गौतम स्वामी की अंगुली पकड़े राजकुमार को महलों की ओर आते देखा तो वह हर्ष से गद्गद् हो उठो । इतने बड़े महान तपस्वी महाश्रमण ! छोटे से बच्चे के साथ अंगुली पकड़े कितने प्रेम एवं सरल भाव के साथ भिक्षा के लिये आ रहे हैं ? रानी का अंग-अंग प्रसन्नता से नाच उठा। उसने सामने आकर गौतम को वंदना की और अत्यन्त भाव प्रवणता से भिक्षा प्रदान की।
भिक्षा लेकर जब गौतम स्वामी चलने लगे तो कुमार अतिमुक्तक ने पूछा"भन्ते ! अब आप कहाँ जायेंगे ? आपका निवास कहाँ हैं ?"
श्रीदेवी बालक के भोले-भाले प्रश्नों पर सकुचा रही थी कि यह अबोध बालक गौतम स्वामी से क्या ऊलजलूल पूछ बैठेगा ? पर गौतम बड़े ही स्नेह एवं सरलता के साथ बालक को उत्तर देते हुए बोले--- "कुमार ! हमारे धर्मगुरु भगवान महावीर स्वामी तुम्हारे नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में पधारे हैं, हम लोग वहीं ठहरे हैं।"
गौतम के स्नेहमय व्यवहार से कुमार का मन आकृष्ट हो गया। वह बोला"भन्ते ! मैं भी आपके साथ आपके धर्माचार्य के दर्शन करने को चलू ?"
गौतम ने स्वीकृति दी, कुमार गौतम के साथ-साथ भगवान महावीर के निकट पहुँचा। भगवान ने राजकुमार को धर्म कथा सुनाई और कुमार को वैराग्य जागृत हुआ। उसने माता पिता की आज्ञा लेकर भगवान का शिष्यत्व स्वीकार किया।
बालक के साथ बालक का-सा व्यवहार करके उसके हृदय को जीतना सरल नहीं है । विद्वान विद्वान के साथ चर्चा करके उसे प्रभावित कर सकता है, पर अबोध बच्चों के हृदय को समझकर उसे धर्म एवं अध्यात्म जैसे नीरस विषय की ओर आकृष्ट
६३. अहं तुभं भिक्खं दवावेमिति भगवं गोयमं अंगलीए गेण्इ ।
-अंतकृत् दशा ६
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