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इन्द्रभूति गौतम
विनम्रता की मूर्ति
अपार ज्ञानगरिमा एवं दुर्धष तपः शक्ति के स्वामी होते हुए भी गौतम का हृदय बहुत ही सरल एवं विनम्र था। उन्हें कभी अपने ज्ञान का अहंकार नहीं हुआ,
और न कभी अपने पद एवं साधना की प्रगल्भता में बहे । ज्ञान प्राप्ति की उत्कट जिज्ञासा का वर्णन तो अगले पृष्ठों पर पाठक देख सकेंगे। यहाँ हम गौतम के जीवन की आदर्श विनम्रता एवं सत्य शोधकवृत्ति की झांकी प्रस्तुत कर रहे हैं ।
__ भगवान महावीर का प्रथम एवं प्रमुख श्रावक था आनन्द । जीवन के अन्तिम समय में उसने अपनी समस्त सांसारिक क्रियाओं का परित्याग करके जीवन मरण की आकांक्षा से रहित होकर उच्च आध्यात्मिक जागरण करते हुए आजीवन अनशन ग्रहण किया था। भगवान महावीर उस समय अपने श्रमण संघ के साथ वाणिज्य ग्राम के दूतिपलाश चैत्य में ठहरे हुए थे। गणधर गौतम दो दिन का उपवास पूर्ण करके पारणे के लिए नगर में गये । वहाँ भिक्षाचारो करते हुए जब वे कोल्लाग सन्निवेश के पास से गुजरे तो लोगों में एक चर्चा सुनी । स्थान स्थान पर एकत्र हुए लोग बात कर रहे थे—“भगवान महावीर का अंतेवासी (श्रावक) आनंद पौषधशाला में जीवन की अंतिम आराधना के रूप में अनशन व्रत लेकर जन्म-मरण की आकांक्षा से मुक्त होकर आध्यात्म जागरण कर रहा है।"
लोगों की चर्चा सुनकर गौतम के मन में आनंद से मिलने की इच्छा हुई। वे कोल्लाग सन्निवेश में स्थित पौषधशाला में आये । गौतम गणधर को आता देखकर आनंद हर्ष एवं उल्लास से गद्गद् हो उठा। उसने हाथ जोड़कर गौतम को नमस्कार किया और प्रार्थना की--"भन्ते ! मैं इस दीर्घ तप के कारण अशक्त हो चुका हूँ, अतः उठकर आपका स्वागत सत्कार नहीं कर सकता, विधिवत् वन्दन नहीं कर सकता, अतः आप कृपा करके आगे आइए ताकि में सविधि बन्दन नमस्कार कर सकू।"
आनन्द के विनयपूर्ण वचन सुनकर गौतम निकट आये । अशक्त होते हुए भी आनन्द ने सिर झुकाकर गौतम के चरणों में विधि युक्त वंदन किया। कुछ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् आनंद ने पूछा- "भगवन् ! गृहस्थाश्रम में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है ?"
गौतम ने उत्तर दिया- ''हाँ, हो सकता है ।"
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