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इन्द्रभूति गौतम
सभा की ओर दौड़े जा रहे हैं । विद्ववर्य ! जिस स्थिति पर विचार करने के लिए हमने इस महायज्ञ का आयोजन किया था उस स्थिति की उग्रता आज हमारे समक्ष स्पष्ट हो रही है । और हमारे इस आयोजन को प्रभावहीन करने के लिए ही श्रमण वर्धमान पावापुरी में आकर विराट् धर्म सभा कर रहे हैं।
इन्द्रभूति :-आर्य सोमिल ! हम इस बढ़ती हुई धर्म विरोधी भावना का प्रतिरोध करेंगे । जब तक इन्द्रभूति जैसा विद्वान् आपके समक्ष विद्यमान है इस आयोजन को कोई प्रभावहीन नहीं कर सकता। मैं स्वयं वर्धमान से शास्त्रार्थ करूंगा, उन्हें पराजित करके अपना शिष्य बनाऊँगा और देखते ही देखते वैदिक धर्म की वैजयन्ती आकाश मण्डप को चूमने लगेगी।
इन्द्रभूति के कथन पर आर्य सोमिल के साथ हजारों विद्वानों, छात्रों एवं जनता ने—“अखण्ड भूमण्डल वादि-चक्रवर्ती आर्य इन्द्रभूति की जय" नाद से यज्ञमण्डप को गुजा दिया।
इन्द्रभूति का मन अहंकार व धर्मोन्माद से मचल उठा था। वे श्रमण वर्धमान को पराजित करने के लिए जनता के समक्ष कृतसंकल्प हुए।
समवशरण की ओर
इन्द्रभूति का पांडित्य अद्वितीय था, वेद एवं उपनिषद् का ज्ञान उनकी चेतना के कणकण में छाया हुआ था। समस्त दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि की सूक्ष्मतम गुत्थियाँ सुलझाना उनके बाएं हाथ का खेल था। ज्ञान के साथ जिज्ञासा वृत्ति उनकी अपूर्व विशिष्टता थी । आर्यसोमिल की प्ररणा, विद्वानों की प्रशंसा एवं धर्मोन्माद के कारण वे श्रमण वर्धमान से वादविवाद करने चल पड़े । किन्तु इन सब बातों के साथ ही साथ एक गूढ़ प्रश्न, अनबूझ जिज्ञासा उनके मन को उद्वेलित कर रही थी और वही उनको खींच रही थी। श्रमण वर्धमान का प्रभाव और उनकी सर्वज्ञता की बात उन्होंने अपने कानों से सुनी, असंख्य-असंख्य देव विमानों को उनकी धर्मसभा में जाते आँखों से देखा, तो उनकी विद्वत्ता का अहंकार भीतर ही भीतर सिहर उठा । उनका मन श्रमण वर्धमान के प्रति खिचने लगा। एक-विचित्र आकर्षण उनके मन में जगा । अनुभव हुआ—जैसे उनका अंतरंग श्रमण वर्धमान की ओर खिंचा जा रहा है । जो समाधान आज तक नहीं मिला, वह वहाँ मिल सकता है।
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