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________________ आत्म-विचारणा ५१ होता है । ५ नायाधम्मकहा, किन्तु जैन परम्परा में स्त्री की प्रव्रज्या के द्वार प्रारम्भ से ही उन्मुक्त कर दिये थे । भगवान ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी इस अवसर्पिणी कालचक्र की आदि श्रमणी थी । ४ भगवान अरिष्टनेमि के युग में तो वासुदेव श्री कृष्ण की पद्मावती आदि अनेक महारानियों के प्रव्रज्या ग्रहण का उल्लेख प्राप्त निरयावलियाओ, ३७ आदि में इस प्रकार की अनेक घटनाओं के उल्लेख हैं । परम्परा ने प्रारंभ से ही धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर पुरुष तथा नारी को स्तर पर रखा । भगवान महावीर ने भी सर्व प्रथम उस क्रांतिकारी कदम से वैचारिक जगत् के साथ सामाजिक जगत में नारी जागृति का एक नया साहसिक उदाहरण प्रस्तुत किया और आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिए नारी जातिको आह्वान किया । जैन समान ३६ आर्या चन्दना की प्रव्रज्या के बाद अनेक स्त्री पुरुषों ने जो कि भगवान महावीर के उपदेश से प्रबुद्ध हुए थे, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ समझ रहे थे, उन्होंने श्रावक के व्रत ग्रहण किए ।" ३८ स्थानांग ९ तथा भगवती आदि में बताया गया है कि श्रमण, श्रमणी, श्रावक ( श्रमणोपासक ) एवं श्राविका ( श्रमणोपासका ) यह तीर्थ के चार अंग हैं । इन्ही से चतुविध संघ का रूप बनता है । उस चतुविध संघ की स्थापना भी भगवान महावीर ने इसी महसेन वन में की । ४० ३४. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ३ । ३५. अंतगढ सूत्र, वर्ग ६, ७, ८, Jain Education International ३६. नायाधम्मका : २-१-२२२, ३७. (क) निरयावलिया ४ वर्ग, (ख) आवश्यक चूर्णि २८६, २९१, ३८. त्रिषष्टिशलाका० १० । ५, ३९. स्थानांग ४ । ३ ४०. तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समण संघो - समणा, समणीओ सावया, सावियाओ । - भगवती सूत्र शतक २०, उ० ८ सूत्र ६८२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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