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इन्द्रभूति गौतम
संघ स्थापना के पश्चात् भगवान महावीर ने इन्द्रभूति आदि प्रमुख शिष्यों को सम्बोधित करके त्रिपदी " का उपदेश किया । जिसे सूत्र रूप में प्राप्त कर गणधरों ने उसकी विशाल व्याख्या के रूप में द्वादशांगी ( १४ पूर्वो से युक्त ) की रचना की । *
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उपन्ने, विगए, परिणए - भगवती ५ । ९
(ख) उप्पन्न विगय धुवपय तियम्मि कहिए जिणेण तो तेहिं । सवेहिं विय बुद्धीहिं बारस अंगाई रइयाइ ॥ - महावीर चरियं ( नेमिचन्द्र ) पत्र ६९-२
( ग ) जाते संघे चतुर्वैवं ध्रौव्योत्पाद व्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूति प्रभृतानां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥
(क) त्रिषष्टि ० १० । ५ । १६५ (ख) महावीर चरियं ( गुणचंद्र ) प्रस्ताव ८ पत्र २५७-२ (ग) दर्शन - रत्न - रत्नाकर पत्र ४०३-१
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- त्रिषष्टि० १० । ५
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