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________________ इन्द्रभूति गौतम सर्वोत्कृष्ट तप:साधना करने वाले धन्य अणगार२५ से गौतम की साधना किसी प्रकार कम नहीं थी। वे बहुत बड़े साधक एवं तपस्वी थे जिन पर भगवान महावीर के विशाल श्रमणसंघ को गौरव था और उन्हें आदर्श माना जाता था। गौतम ने जीवन के प्रारम्भ में ज्ञान एवं श्रु त की आराधना की और उसके चरम शिखर तक पहुंचे। छद्मस्थ साधक के ज्ञान की अन्तिम रेखा का स्पर्श करने वाले गौतम जो पहले चतुर्दश विद्याओं के पारगामी थे, भगवान महावीर के शिष्य बनकर चतुर्दश पूर्व के पारंगत बने और पश्चात् अपने जीवन को तपः साधना में संलग्न कर निरंतर तपः ज्योति प्रज्वलित करते रहे। वे दो दिन उपवास करते, एक दिन भोजन, भोजन में भी सिर्फ एक समय दिन के तीसरे पहर में स्वयं भिक्षा पात्र लेकर सामान्य कुलों में एक साधारण भिक्षुक की तरह घूमते, और सूखा-रूखा जो भी प्रासुक आहार प्राप्त हो जाता उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करते, फिर भगवान महावीर के निकट आकर अपनी भिक्षा उन्हें बतलाते, पारणे की आज्ञा लेकर अपने अन्य सामि जो कि सभी गौतम से लघु थे उन्हें भोजन के लिए प्रेम पूर्वक निमंत्रित करते-साहु हुज्जामि तारिओ !२६ अच्छा हो, आप लोग मेरे भोजन को स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें" अपने छोटे साधुओं और शिष्यों के साथ इस प्रकार का विनय एवं प्रेम भरा व्यवहार गौतम का ही नहीं, धीरे धीरे सम्पूर्ण श्रमण संघ का आदर्श बन गया था। गौतम उस यथाप्राप्त भोजन से देह का उसी प्रकार पोषण करते थे जिस प्रकार कोई किराये के घर में रहने वाला अपनत्व से रहित भाव के साथ उसका किराया देता हो। गौतम की इस अनासक्ति के लिए आगमों में बिलमिव पन्नगभूए की उपमा आती है, सांप जैसे बिल में चुपचाप प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार गौतम अनासक्ति पूर्वक भोजन को गले उतार लेते और पुनः अपने स्वाध्याय में लीन हो जाते । २५. राजगृह में श्रोणिक द्वारा सर्वश्रेष्ठ तपस्वी साधक के विषय में पूछने पर भगवान महावीर कहते हैं इमेसि चोदसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महानिज्जर तराए चेव । -अनुत्तरो० ३।३९ इन्हीं धन्य अणगार की तपश्चर्या, एवं साधना विधि का वर्णन करते समय कहा गया है--...... पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयम सामी अनुत्तरो० ३।९ २६. दशवैकालिक ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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