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________________ इन्द्रभूति गौतम ठहरे हुए थे । भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य उदकपेढाल पुत्र नामक निग्रन्थ भी वहीं निकट ठहरे हुए थे। एकबार वे गणधर गौतम के निकट आये और बोले"आयुष्मन् ! कुमार पुत्र नामक श्रमण निन्थ तुम्हारी मान्यताओं का प्ररूपण करते हैं, वे हठ पूर्वक गृहपति श्रमणोपासकों को इस प्रकार का नियम दिलवाते हैं कि "मैं समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु चलने फिरने वाले प्राणियों की हिंसा का त्याग करूंगा।" परन्तु विश्व के समस्त प्राणी त्रस व स्थावर योनियों में चक्र लगाते हैं । त्रस योनि से स्थावर में और स्थावर योनि से त्रस में अबाध गति से घूमते रहते हैं । इस कारण संसार का कोई भी प्राणी न तो मात्र त्रस है, और न मात्र स्थावर ही है , ऐसी स्थिति में उपयुक्त प्रतिज्ञा करने वाला स्थावर प्राणियों की हिंसा की छूट समझ लेता है और वह उनकी हिंसा करता है । और वह इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा से च्युत होता है । जो प्राणो वर्तमान में स्थावर है, वह पूर्व जन्म में त्रस भी रह चुका है। आयुष्मन् ! इस प्रकार की प्रतिज्ञा दिलाने वाले को क्या दोष नहीं लगता ?" गौतम ने समाधान करते हुए कहा--"महाभाग ! आपका यह कहना ठीक नहीं है, क्यों कि यह बिल्कुल अयथार्थ है एवं दूसरों को भुलावे में गिराने जैसा है । संसार के समस्त प्राणो एक योनि से दूसरी योनि में घूमते रहते हैं, यह ठीक है, जो प्राणी इस वक्त त्रस के रूप में उत्पन्न दिखाई देता है, उसी के सम्बन्ध में यह नियम लागू पड़ता है। आप जिसे इस समय त्रस रूप उत्पन्न मानते हैं, उसे ही हम त्रस कहते है। जिसके त्रस बनने योग्य कर्म उदय प्राप्त हो, उसे ही त्रस प्राणी कहा जाता है ।" इसी प्रकार स्थावर प्राणियों के विषय में भी समझना चाहिए। अतएव प्रतिज्ञा भंग होने तथा प्रतिज्ञा दिलाने वाले को दोष लगने की बात न्यायसंगत नहीं लगती।" ___ गौतम ने इस स्थिति को अधिक स्पष्ट करते हुए उदाहरण पूर्वक बतलाते हुए कहा-"जिस प्रकार किसी व्यक्ति ने यह नियम लिया कि मैं दीक्षित होकर जो साधु बन चुका होगा ऐसे व्यक्ति की हिंसा नहीं करूंगा, परन्तु गृहस्थ जीवन में रहते हुए व्यक्ति की हिंसा न करने का नियम मुझे नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर कोई साधु बना और कुछ ही समय के पश्चात अपने आपको साधुता के अनुपयुक्त पाकर गृहस्थ बन गया, अब अगर उपयुक्त नियम लेने वाला व्यक्ति इस गृहस्थ बने हुए व्यक्ति की हिंसा करता है, तो उसकी प्रतिज्ञा का भंग नही होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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