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परिसंवाद
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इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने केवल त्रस प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया हो, उसे इस जन्म में जो प्राणी स्थावर हैं, उनकी हिंसा करने पर भी प्रतिज्ञा भंग का दोष नहीं लगता।”
___एक अन्य प्रश्न करते हुए उदकपेढालपुत्र ने कहा--"आयुष्मन् ! क्या ऐसा भी कोई समय हो सकता है जिसमें संसार के सब जंगम प्राणी स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जावें और फिर जो जंगम प्राणियों की हिंसा न करना चाहते हों, उन्हें इस व्रत की आवश्यकता ही न रहे, अथवा उनके द्वारा जंगम प्राणियों की हिंसा न होने की संभावना ही न रहे ?
___ गौतम ने प्रश्न का समाधान करते हुए कहा-"आयुष्मन् ! ऐसा होना सम्भव नहीं, क्योंकि सभी प्राणियों की विचारधारा व क्रियापद्धति एक साथ ही इतनी हीन नहीं हो सकती है, जिसके कारण सभी स्थावर के रूप में जन्म लें। प्रत्येक समय में पृथक्-पृथक् शक्ति व पुरुषार्थ करने वाले प्राणी अपने लिए भिन्न भिन्न गतिस्थिति तैयार करते रहते हैं। जैसे कि कुछ लोग, अपने आप को दीक्षित होने में असमर्थ पाकर पोषध व अणुव्रतों के द्वारा देवता व मनुष्य आदि की शुभगति योग्य कर्म उपार्जन करते हैं। दूसरे कुछ अधिक लालसा वाले परिग्रही लोग नरक व तिर्यंच आदि की दुर्गति के योग्य कर्म उपार्जन करते हैं । कुछ दीक्षित साधु संत लोग उच्चकोटि के देवत्व के योग्य कर्मोपार्जन करते हैं । कुछ तथाकथित नामधारी कामास्कत साधु असुरयोनि व घोर पाप कर्म करने वाले अन्य स्थानों की तैयारी करते हैं । वहाँ से छूटकर भी वे अन्ध, मूक, वधिर अंगहीनरूप दुर्गति के कर्म उपार्जन करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न गतियाँ प्राप्त करता रहता है । तब यह कैसे हो सकता है कि सभी प्राणियों को एक समान ही स्थान, व गति मिले। दूसरे जहाँ विविध प्रकार के प्राणी हैं, वहाँ उनके आयुष्य में भी विविधता है। आयुष्य की विविधता का तात्पर्य है कि उनकी मृत्यु भो भिन्न समय में होती है । भिन्न-भिन्न समय में मृत्यु होने का अर्थ है कि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सभी प्राणी एक ही साथ मृत्यु प्राप्त होकर एक समान गति प्राप्त करें, जिसके फलस्वरूप किसी को व्रत लेने व हिंसा करने का प्रसंग ही न आये।
गौतम के द्वारा तर्क युक्त समाधान पाकर उदकपेढाल पुत्र का संशय दूर हुआ। वह कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा, फिर बिना विनय सत्कार किए ही चलने लगा तो गौतम ने उसे शिक्षात्मक वाक्य कहकर विनय धर्म का
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