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इन्द्रभूति गौतम
प्रायश्चित्त तुम्हें करना होगा। तुमने सत्य वक्ता आनन्द की अवहेलना की है, अत: तुम लौटकर उसके घर जाओ, और अपनी भूल के लिए क्षमा माँगो ।"५८
गौतम को अपनी भूल का पता चलते ही वे तत्क्षण आनन्दगाथापति के पास पहुंचे, अपने कथन पर पश्चात्ताप करते हुए क्षमा मांगी और आनन्द की बात को भगवान के द्वारा सत्य प्रमाणित करने की स्वीकृति दी ।५९
इस घटना में गौतम के व्यक्तित्व का एक महान रूप उजागर हुआ है-विनम्रता ! बौद्धिक अनाग्रह एवं निरहंकार वृत्ति ! मनुष्य का स्वभाव है, वह सामान्यतः अपनी भूल को भूल रूप में नहीं जान पाता, जान लेने पर भी उसे स्वीकार नहीं करता, यदि मन-ही-मन स्वीकार भी कर ले तो भी किसी के समक्ष जाकर क्षमा माँगना तो उसे मृत्यु से भी अधिक भयानक एवं यंत्रणादायी लगता है । जिसमें यदि वह किसी ऊंचे पद पर है, और अपने से छोटों के समक्ष भूल स्वीकार करने का प्रसंग आता है तो वह उसके लिए असह्य वेदना का रूप ले लेती है । गणधर गौतम को जब आनन्द श्रावक के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करने का प्रसंग आया तो उन्होंने बिना किसी प्रकार का ननुनच किए तत्क्षण प्रसन्नतापूर्वक उस ओर चल पड़े। यह उनके मन की कितनी महानता है । इस असीम विनम्रता में ही वस्तुतः उनकी महानता का सूत्र छिपा है । और यह विनम्रता गौतम के आन्तरिक जीवन की सच्ची निग्रन्थता की सूचना देती है । तथागत बुद्ध ने कहा है६० "निन्थ वह है जिसके मन में गाँठ नहीं होती है और गाँठ उसे नहीं होती जिसका मान-अहंकार क्षीण हो गया है ।" इसी घटना से गौतम की सत्य-संधित्सु वृत्ति की एक विराट झलक मिल जाती है, जब उन्हें आनन्द के कथन में सत्य प्रतीत हुआ तो वे उसकी स्पष्ट स्वीकृति देने को चल पड़े, अपने दो दिन के उपवास के पारणे की परवाह किये बिना । सत्य की स्वीकृति
और सत्य का सम्मान करना गौतम का सहज स्वभाव था ऐसा प्रतीत होता है । भगवान महावीर का यह संदेश-सच्चमेव समभिजाणाहि६१— उनके अन्तरमन का स्पन्दन बन गया था जो प्रतिश्वास में धड़क रहा था।
५८. आणंदं च समणोवासयं एयम8 खामेहि-उवासगदशा १८६ ५९. उवासगदशा १ सूत्र ७० से ८५ ६०. पहीनमानस्स न सन्तिगन्था-संयुत्तनिकाय १।१।२५ ६१. आचारांग १।३-३-१११
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