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पार्श्वनाथ के अनुयायी चतुर्दशपूर्वधारी कुमारश्रमणकेशी ने महावीर के अनुयायी गौतम गणधर से प्रश्न किया कि क्या कारण है कि पार्श्वनाथ ने सचेल और महावीर ने अचेल धर्म का उपदेश दिया है, जबकि दोनों ही निग्रन्थ परम्परा के अनुयायी हैं। उत्तर में गौतम इन्द्रभूति ने प्रतिपादित किया, कि “यह उपदेश भिन्न-भिन्न रुचि वाले शिष्यों को ध्यान में रखकर किया गया है, वस्तुतः दोनों महातपस्वियों का उद्देश्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा मोक्ष की प्राप्ति ही है । पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर और महावीर के पंचमहाव्रतों के अन्तर का यही रहस्य है।"
इस संवाद का महत्त्व इसलिये और भी बढ़ जाता है, कि इससे जैन धर्म के सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रोफेसर हर्मन याकोवी की इस मान्यता को समर्थन प्राप्त होता है, कि बौद्ध धर्म के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था।
कहने की आवश्यकता नहीं कि जब आरम्भ में योरोप के विद्वानों ने जैन धर्म और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया, तो श्रमण परम्परा को स्वीकार करने वाले दोनों धर्मों में समानताओं को देखकर योरोप के अनेक विद्वान् जैन और बौद्ध धर्म को एक समझ बैठे, और कुछ तो जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा मानने लगे ! जसे बुद्ध, गौतम बुद्ध कहे जाते थे, वैसे ही इन्द्रभूति भी गौतम इन्द्रभूति के नाम से प्रख्यात थे। इससे भी भ्रांन्ति पंदा हो गई थी।
इस भ्रान्त धारणा के निरसन का श्रेय प्रोफेसर याकोबी को प्राप्त है, जिन्होंने जैन सूत्रों की अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में जैन धर्म का पृथक् अस्तित्व सिद्ध कर जैन पुरातत्व सम्बन्धी खोज को आगे बढ़ाया।
. इस दृष्टि से 'इन्द्रभूति गौतम : एक अनुशीलन' महत्वपूर्ण लघु कृति है । यहाँ श्री गणेश मुनि शास्त्री ने इन्द्रभूति के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए, भारतीय चिन्तन की पृष्ठ भूमि के साथ उनके असाधारण व्यक्तित्व पर विद्वत्ता पूर्ण प्रकाश डाला है । जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के आलोडन पूर्वक सरल भाषा में रची हुई उनकी यह पुस्तक स्वागत के योग्य है ।
यह अति प्रसन्नता का विषय है, कि इधर जैन साधु समाज में, विशेषकर स्थानकवासी साधु समाज में, चिन्तन-मनन तथा सामाजिक आन्दोलनों के प्रति विशेष अभिरुचि देखने में आ रही है। जिसका ज्वलंत प्रमाण गणेश मुनि शास्त्री जी का अन्यतम साहित्य के साथ 'इन्द्रभूति गौतमः एक अनुशीलन है ।
हम आशा करते हैं कि लेखक की इस लघु कृति का विद्वत्समाज में सून्दर समादर होगा। १२ अक्तूबर, १९७०
जगदीश चन्द्र जैन
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