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परिसंवाद
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दर्शन का मूल जिज्ञासा
गणधर गौतम की उदग्र जिज्ञासा वृत्ति का एक परिचय पिछले पृष्ठों पर दिया जा चुका है और उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रु त साहित्य के निर्माण में अधिकांश एवौं महत्वपूर्ण योग गौतम के इन्हीं प्रश्नों का है । हो सकता है उत्तरकाल में यह ग्रन्थ-प्रणयन की एक शैली बन गई हो, जिसके प्रारम्भ में गौतम की जिज्ञासा उपस्थित करके उस पर भगवान द्वारा उत्तर दिलाया जाय । पर किसी भी शैली का निर्माण तभी होता है जब उसकी परम्परा में कोई स्थायीप्रभाव एवं असामान्य आकर्षण रहा हो, नई शैली का जन्म अपने आप में किसी परम्परा एवं धारणा के आकर्षक प्रभाव का इतिहास होता है । गौतम के प्रश्न एवं उत्तर की शैली वस्तुतः एक रोचक एवं हृदयग्राही शैली रही है । आगमों के ऐतिहासिक अवलोकन से यह भी तो स्वत: सिद्ध है कि बहुत से संवाद गौतम और महावीर की जीवन घटनाओं के साथ जुड़े हैं, अत: उनकी ऐतिहासिकता में भी संशय नहीं किया जा सकता। फिर आगमों में गौतम की मनःस्थिति को जताने वाली एक शब्दावली बार-बार आती है""जाय सड्ढे, जायसंसए, जायकोउहल्ले ।" गौतम के मन में अमुक तथ्य को
१. (क) भगवती ११
(ख) औपपातिक (ग) उवासग दशा १ (घ) विपाक १ आदि
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