________________
परिसंवाद
१३५
भगवान ने कहा- “गौतम ! देव पाँच प्रकार के कहे गये हैं।" (१) भव्य द्रव्य देव-भविष्य में देव योनि प्राप्त करने वाला (२) नरदेव-मनुष्यों में देव के समान पूज्य ।। (३) धर्मदेव-शास्त्र आदि का उपदेश करने वाला धर्मगुरु । (४) देवाधिदेव-मनुष्य एवं देवों के पूज्य अरिहंत । (४) भावदेव-देवगति को प्राप्त देवता । ७
क्या देवता अलोक में हाथ फैला सकता है ?
गौतम ने भगवान से पूछा-'"भन्ते ! क्या महान ऋद्धि वाला देव लोकान्त पर खड़ा होकर अपना हाथ अलोक में फैलाने या खींचने में समर्थ हो सकता है ?
भगवान ने कहा-“गौतम ऐसा नहीं हो सकता है ।" गौतम-."भन्ते ! किस कारण से ऐसा नहीं हो सकता ?"
भगवान- “गौतम ! अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव है, अतः वहाँ जीव एवं पुद्गल की गति नहीं हो सकती। पुद्गल आहार रूप में, शरीर रूप में, कलेवर रूप में तथा श्वासोच्छ्वास आदि के रूप में सदा जीव के साथ उपचित (संलग्न) रहते हैं, अर्थात् पुद्गल स्वभावतः जीवानुगामी होते हैं, जहाँ जिस क्षेत्र में जीव होता है, वहीं पुद्गल गति कर सकता है, और इसी प्रकार पुद्गल का आश्रय ग्रहण कर जीव गति कर सकता है । अलोक में दोनों का अभाव होने से वहाँ हाथ आदि का संकोच विकास तथा स्पर्श नहीं किया जा सकता।"४८
नोट-सूर्य की गति आदि के सम्बन्ध में सूर्यप्रज्ञप्ति (पाहुड १ सूत्र १०) में गौतम के प्रश्न एवं भगवान के उत्तर द्रष्टव्य हैं। इसी प्रकार नरक आदि के वर्णन के लिए भगवती सूत्र के अनेक स्थल एवं प्रज्ञापना आदि में देखने चाहिए। गौतम स्वामी के विविध प्रश्नों का वर्गीकृत रूप 'भगवतीसार' (गोपालदास पटेल) में भी देखा जा सकता है।
४७. भगवती १२।९ ४८. भगवती १६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org