SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रभूति गौतम प्रतीत होता था। इन्द्रभूति के शरीर का आन्तरिक गठन बहुत ही सुदृढ़ एवं परस्पर सम्बद्ध था । शरीर के भीतरी 'अस्थि संघटन के लिए जैन कर्म सिद्धान्त में 'संहनन' शब्द का प्रयोग हुआ है। छह प्रकार के 'संहनन' बताये गये हैं जिनमें सर्वश्रेष्ठ संहनन है-वज्रऋषभनाराच संहनन । ८ इन्द्रभूति का संहनन भी 'वज्रऋषभ नाराच' था। इसका सामान्य अर्थ यह समझना चाहिए कि इन्द्रभूति का शारीरिक बल, भार उठाने की क्षमता, हड्डियों की संघटना सौष्ठव आदि भी उत्तम थी। शारीरिक गठन की सुन्दरता के साथ ही उनके मुख, नयन, ललाट आदि पर अद्भुत ओज एवं चमक थी। जिस प्रकार कसोटी पत्थर पर सोने की रेखा खींच देने से वह उस पर चमकती रहती है, उसी प्रकार की सुनहली आभा गौतम के मुख पर सतत दमकती रहती थी। उनका वर्ण गौर था, कमल की केसर की भाँति उसमें गुलाबी मोहकता भी थी। पचास वर्ष की अवस्था होने पर भी उनके मुख व आँखों पर किसी प्रकार की विवर्णता नहीं आई थी बल्कि तपःसाधना करने से उनके तेज में और अधिक निखार आने लगा । जब उनके ललाट पर सूर्य की किरणें गिरती तो ऐसा लगता होगा कि कोई सीसा या पारदर्शी पत्थर चमक रहा है । जब गौतम चलते तो उनकी दृष्टि इधर उधर से हटकर सामने के मार्ग पर टिक जाती और स्थिर दृष्टि से भूमि को देखते हुए चलते । उनकी गति बड़ी शान्त, चंचलता रहित, एवं अंसभ्रान्त थीं९ जिसे देखकर सहज ही में दर्शक उनकी स्थितप्रज्ञता का अनुमान लगा सकता था। उनका व्यवहार बड़ा मधुर एवं विनयपूर्ण था। वे जब किसी कार्य वश बाहर जाते तो भगवान महावीर की आज्ञा लेते, आते तो पुनः उनके पास जाकर अपनी कार्य सम्पन्नता की सूचना देकर फिर किसी कार्य में लगते ।२° बड़े-बड़े तपस्वी साधकों के लिए भी साधना, विनय एवं व्यवहार में गौतम स्वामी का उदाहरण १७. संघयणमट्ठिनिचओ-कर्मग्रन्थ भा० १ गा० ३७ १८. (क) प्रज्ञापना सूत्र पद २३. सू० २६३। (ख) स्थानांग ६।३ (ग) कर्मग्रन्थ भा० १ गा० ३८ १९. अतुरियमचवलमसं तं जुगंतरपरिलोयणाए दिट्ठिए पुरओ इरियं सोहेमाणे । --उपासक दशा १। सूत्र ७८ .. २०. उपासकदशा १ । सूत्र ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy