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व्यक्तित्व दर्शन
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रूप को जिसने देखा उसकी आँखें उसी में बँध गई ।3 उसे देखकर राजगृह की लक्ष्मी भी संक्षुब्ध हो गई।" जैन कर्म सिद्धान्त में शुभनाम कर्म की बयालीस प्रकृतियाँ बताई गई हैं । वहाँ बताया है-"शारीरिक तेज, सुन्दरता, उपयुक्त गठन, परिपूर्ण अंगोपांग ये सब पुण्य के उदय से ही प्राप्त होती हैं ।१५ जैन दर्शन, दर्शन की दृष्टि से भले ही बाहरी रूपरंग को महत्व न देता हो, किन्तु उसकी प्रभाविकता एवं भव्यता से तो इन्कार नहीं करता, वह सुन्दरता को एक पुण्योपलब्धि मानता है और यहभी मानता है कि हर महापुरुष शारीरिक सुन्दरता से परिपूर्ण होते हैं । उनके बाहरी रूप दर्शन में भी किसी प्रकार की कमी नहीं होती। यही सिद्धान्त हमें गणधर गौतम के बाहरी व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ता है।
शरीर की ऊँचाई और संहनन
शरीर की लम्बाई जितनी भगवान महावीर की थी उतनी ही गणधर गौतम की थी। उनके लिए भगवती में-'सत्त स्सेहे" शब्द आया है जिस पर टीकाकार ने लिखा है---"सप्त हस्तोच्छ यः" सात हाथ ऊँचा उनका कद था और वह 'समचउरंससंठाण संठिए' समचतुरस्र संस्थान से संस्थित था। यह बताया जा चुका है कि जितने भी तीर्थंकर, चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव आदि शलाका पुरुष होते हैं उनका संस्थान यही होता है । समचतुरस्र का शाब्दिक अर्थ है पुरुष जब सुखासन (पालथी लगाकर) से बैठता है तो उसके दोनों घुटनों का और दोनों बाहुमूल-स्कन्धों का अन्तर (दायां घुटना, बायां स्कन्ध, बायां घुटना दायां स्कन्ध) इन चारों का बराबर अन्तर रहे वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है । आचार्य अभयदेव ने बताया है- 'जो आकार सामुद्रिक आदि लक्षण शास्त्रों के अनुसार सर्वथा योग्य हो वह समचतुरस्र कहलाता है ।१६ इन्द्रभूति का देहमान, ऊपर नीचे का भाग समान था और वह दीखने में सुन्दर
१३. यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षु:- बुद्ध चरित १०।८ १४. ज्वलच्छरीरं शुभ जालहस्तम् संचुक्षुभे राजगृहस्य लक्ष्मी:
बुद्ध० १०९ १५. (क) 'ज्ञापना २३.
(ख) कर्मग्रन्थ १६. शरीर लक्षणोक्तप्रमाणाऽविसंवादिन्यश्चतस्रो यस्य तत् समचतुरस्रम् ।
-भगवती (टीका) ११
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