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इन्द्रभूति गौतम
अनेक ब्राह्मण कुमारों के विद्याध्ययन का उल्लेख भी छांदोग्य उपनिषद में मिलता है । १९ श्वेतकेतु आरुणेय. जैसे लब्धप्रतिष्ठित विद्वान ऋषि ने भी प्रवाहणजैवलि, जो कि क्षत्रिय कुमार थे, उनके पास वेदों व आत्मविद्या का ज्ञानप्राप्त किया । १० ये उल्लेख सूचित करते हैं कि- - उत्तर भारत में जहाँ धार्मिक क्रियाकाण्डों, विधि-विधानों, एवं तत्वज्ञान आदि का केन्द्र एवं नियोजक ब्राह्मण वर्ग रहा, वहाँ पूर्व भारत में धीरे-धीरे राजसत्ता के साथ धार्मिकसत्ता भी क्षत्रियों के हाथ में आती गई । क्षत्रियों ने आत्मविद्या पर बल दिया और यज्ञों के विरोध में स्पष्ट कहा जाने लगा "प्लवाः ह्य ेते अदृष्टाः यज्ञ रूपा: " ये यज्ञ आदि कर्म कमजोर नाव के समान हैइन से संसार सागर नहीं तिरा जा सकता । श्र ेय और प्रेय का भेद बता कर "अन्यच्छ यो अन्यदुतैव प्र ेयस् " श्र ेय आत्महित, आत्मविद्या की साधना करने वाले को धीर, बुद्धिमान एवं प्रेय - भौतिक सुख समृद्धि, यज्ञ यागादि क्रिया काण्ड में पड़े रहने वाले को मंद (मूर्ख) कहा जाने लगा ।" उपनिषद् में मुखरित होने वाले ये स्वर निश्चित ही दो विचार धाराओं के संघर्षों की सूचना देते हैं । और ये विचार धारायें वैदिक एवं वेद विरोधी श्रमण धारायें ही रही होंगी। ऐसा पूर्व उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है ।
पच्चीस सौ वर्ष पूर्व पूर्वी भारत का धार्मिक इतिहास पढ़ने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इन दोनों विचार धाराओं में उस समय काफी उथल-पुथल मची हुई थी । ब्राह्मण सत्ता को चुनौती दी जाने पर स्थान-स्थान पर उस वर्ग की ओर से इस प्रकार के विद्वाद् सम्मेलन एवं महायज्ञों की रचना होना भी आवश्यक हो गया था जिसमें उत्पन्न परिस्थितियों पर विचार किया जाय एवं बिखरते हुए
२८. बृहदारण्यक उपनिषद ४ । २ । १ ।
२९. छांदोग्य उपनिषद् ५ । ११
३०. छांदोग्य उपनिषद् ५।३
३१. कठोपनिषद् २।१
पावा में यज्ञ का आयोजन
३२. श्रयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतद् तो संपरीत्य विविनक्ति धीरः । श्र ेयोहि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते, प्रेयान्मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।
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- कठोपनिषद् २२
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