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________________ व्यक्तित्व दर्शन हो तो वह मुक्ति के सुख से भी अधिक आनन्दप्रद है । आओ, मेरी इच्छा को तृप्त करो ।" रेवती ने दो-तीन बार इस प्रकार महाशतक से निर्लज्जता पूर्ण आग्रह किया, अनेक प्रकार के कामोद्दीपक हावभाव दिखलाये । पर महाशतक उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहकर अपने संकल्प को और अधिक सुदृढ़ बनाने लगा । महाशतक के समक्ष अब इस प्रकार के प्रसंग आये दिन आने लगे । वह तपस्या एवं ध्यान से अपने शरीर को क्षीण एवं संकल्पों को वज्रसम अडिग बनाता रहा । जीवन के संध्या काल में महाशतक ने अपने समस्त पापों एवं अतिचारों की आलोचना करके आजीवन अनशन ग्रहण किया । जीवन एवं मरण की आकांक्षा से मुक्त होकर समाधिपूर्वक धर्म जागरण करते हुए आनन्द श्रावक की भाँति उसे अवधि ज्ञान प्राप्त हुआ । एकदिन जबकि महाशतक अनशन में धर्मजागरणा कर रहा था, रेवती पुनः मद्य के नशे में छकी हुई उसके निकट आई और विह्वलता पूर्वक काम प्रार्थना करने लगी । महाशतक मौन रहा । रेवती ने दूसरी बार भी उससे आग्रह किया, महाशतक फिर भी मौन था । अब तीसरी बार रेवती कामान्ध होकर उसे धिक्कारने लगी । उसके व्रतों एवं आचार पर तिरस्कार पूर्वक आक्षेप करने लगी और अन्त में जब अत्यन्त काम विह्वल हो गर्हित आचरण करने पर उतारू हुई तो महाशतक को क्रोध आ गया । उसने रेवती को अभद्र व्यवहार के लिए फटकारा और अवधि ज्ञान से उसका अन्धकार पूर्ण भविष्य बताते हुए कहा- 'तू सात दिन के भीतर रोग से पीडित होकर मरेगी एवं रत्नप्रभा नरक के लौलुच्य नामक नरकवास में चौरासी करके अत्यन्त उग्र कष्ट पायेगी ।" हजार वर्ष की आयु प्राप्त ८९ महाशतक की आक्रोश पूर्ण वाणी सुनकर रेवती अत्यन्त घबरा उठी । उसे लगा पति ने मुझे शाप दे दिया है । वह रोती पीटती घर आई। भयानक रोग से पीड़ित होकर अन्त में सातवें दिन असमाधि पूर्वक जीवन की अन्तिम सांस छोड़ दी । ६ ८६. भीया, तत्था, नसिया, उव्विग्गासण्णाय भया "अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्ट दुहट्ट सट्टा काल मासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए नेरइयत्ताए उववन्ना । Jain Education International For Private & Personal Use Only उवासगदशा ८ । www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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