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________________ १२२ इन्द्रभूति गौतम ज्ञानादि ग्रहण के लिए अथवा 'यह साधु है' इस पहचान के लिए जगत में लिंग (चिन्ह) का प्रयोजन है । वस्तुतः दोनों ही तीर्थंकरों का सिद्धान्त यही है कि निश्चय में मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।" केशीकुमार---"महाभाग ! आप अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच खड़े हैं । वे शत्रु आपको जीतने के लिए आपकी ओर आ रहे हैं । आपने उन शत्रुओं को किस प्रकार जीता?" गौतम—“जब मैंने एक शत्रु को जीत लिया, तो पाँच शत्रु जीत लिये गये । पाँच शत्रुओं के जीते जाने पर दस ! इसी प्रकार मैंने सहस्रों शत्र ओं को जीत लिया।" केशीकुमार-"वे शत्रु कौन हैं ?" गौतम–“महामुने ! बहिर् भाव में लीन आत्मा, चार कषाय व पाँच इन्द्रियाँ शत्र हैं । उन्हें जीत कर में कुशल पूर्वक विचरता हूँ।' श्रमण केशीकुमार बोले- "मुने ! संसार में अनेक जीव पाश-बद्ध देखे जाते हैं, किन्तु आप पाश-मुक्त और लघुभूत होकर कसे विचरते हैं ?" गौतम--"मुने ! मैंने उन पाशों का सब तरह से छेदन कर डाला है, अब उन्हें विनष्ट __ कर मुक्त-पाश और लघुभूत होकर विचरता हूँ।" केशीकुमार- "भन्ते ! वे पाश कौन से हैं ?' गौतम-भगवन् ! राग-द्वेष और स्नेहरूप तीव्र पाश हैं, जो बड़े भयंकर हैं । मैं इनका छेदन कर कुशलपूर्वक विचरता हूँ।" केशीकुमार- "गौतम ! अन्तःकरण की गहराई से समुद् भूत लता, जिसका फल परिणाम अत्यन्त विषमय है, उस लता को आपने किस प्रकार उखाड़ डाला? गौतम-"मैंने उस लता को जड़मूल से उखाड़ कर छिन्न भिन्न कर फेंक दिया है, अतः मैं उन विषमय फलों के भक्षण से सर्वथा मुक्त हो गया हूँ।" . केशीकुमार-"महाभाग ! वह लता कौन-सी है ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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