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परिसंवाद
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उपदेश करते हैं । जब दोनों का लक्ष्य समान है तो, एक लक्ष्यवालों में यह भेद कैसा ? एक ने सचेलक धर्म का उपदेश दिया है और एक अचेलक भाव का उपदेश करते हैं ।" अपने शिष्यों की आशंकाओं से प्रेरित होकर दोनों गौतम व केशीकुमार ने परस्पर मिलने का विचार किया। गौतम अपने शिष्य वर्ग के साथ तिन्दुक उद्यान में आए, जहाँ कि श्रमण केशीकुमार ठहरे हुए थे । गणधर गौतम को अपने यहाँ आते हुए देखकर श्रमण केशीकुमार ने भक्ति-बहुमानपूर्वक उनका स्वागत किया । अपने द्वारा याचित पलाल, कुश, तृण आदि के आसन गौतम के सम्मुख प्रस्तुत किये। दोनों का मिलन देखने को अनेक कौतुहल प्रिय व्यक्ति भी उद्यान में उपस्थित हो गए थे।
__ गौतम से अनुमति पाकर केशी कुमार ने चर्चा को आरम्भ किया-"महाभाग ! वर्धमान स्वामी ने पाँच शिक्षा रूप धर्म का उपदेश किया है, जब कि महामुनि पार्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया है । मेधाविन् ! एक कार्य में प्रवृत्त होने वाले साधकों के धर्म में विशेष भेद होने का क्या कारण है ? धर्म में अन्तर हो जाने पर क्या आपको संशय नहीं होता ?'
गौतम ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया-"जिस धर्म में जीवादि तत्वों का निश्चय किया जाता है, उसके तत्व को प्रज्ञा ही देख सकती है। काल-स्वभाव से प्रथम तीर्थकर के मुनि ऋजु जड़ और चरमतीर्थकर के मुनि वक्रजड़ होते हैं, किन्तु मध्य-वर्ती तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ हैं । यही कारण है कि धर्म के दो भेद कहे गए हैं। प्रथम तीर्थंकर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थंकर के मुनियों का कल्प दुरनुपाल्य होता है, पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपाल्य होता है।"
गौतम के उत्तर से श्रमण केशीकुमार को संतोष हुआ। वे बोले-"आयुष्मन् ! आपने मेरे एक प्रश्न का समाधान तो कर दिया, अब दूसरी जिज्ञासा को भी समाहित करें। वर्धमान स्वामी ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक धर्म का, एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वालों में यह अन्तर क्यों ? इसमें विशेष हेतु क्या है ? लिंग–वेष में इस प्रकार अन्तर हो जाने पर क्या आपके मन में विप्रत्यय उत्पन्न नहीं होता ?"
गौतम ने धैर्य पूर्वक सुना और बोले- "भगवन् ! लोक में प्रत्यय के लिये, वर्षादि ऋतुओं में संयम की रक्षा के लिए, संयम यात्रा के निर्वाह के लिए,
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