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आत्म-विचारणा
कि उनके मन पर क्या हो रहा है ? क्या महावीर की माया उनके मन को भी व्यामोहित कर रही है ? इन असंख्य देवताओं एवं अगणित मनुष्यों को महावीर ने जडवत् स्तंभित कर रखा है ? यह क्या चमत्कार है ? क्या माया है ? और कैसे इन सब के मनोभाव जानकर उनका समाधान कर रहे हैं ? क्या वस्तुतः ही ये सर्वज्ञ है ? सब के मन की बातें जान सकते हैं ? क्या मेरे मन की हलचल भी ये जान पायेंगे ? और अब तक जो मेरे मन में एक संशय उठता रहा है उसका समाधान भी ये कर सकते हैं ? इन्द्रभूति इन विचारों में खोये-खोये महावीर के निकट पहुँचे । तो एक धीर गंभीर स्वर उनके कानों से टकराया “इन्द्रभूति ! आखिर तुम मेरे निकट आ ही गये।"
संशय का उद्घाटन
इन्द्रभूति चौंके । महावीर मेरे नाम से भी परिचित हैं ? मुझे पहचानते भी है ? हाँ, आखिर कौन है इस मगध मंडल में जो इन्द्रभूति को न पहचाने ? इन्द्रभूति ने गोर से तीर्थंकर महावीर की अतिशय पूर्ण मुखमुद्रा की ओर देखा, मन हुआ कि विनय नहीं तो, सांस्कृतिक शिष्टाचार वश ही अभिवादन करूं, तभी भगवान महावीर ने कहा- "आयुष्मन् इन्द्रभूति ! इतने बड़े विद्वान होकर भी तुम अपने मन का समाधान नहीं पा सके ? सब शास्त्रों का आलोडन करके भी उनका नवनीत टटोलते ही रह गये ? अब तक तुम्हें अपने आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में भी संदेह है ?" तुम सोच रहे हो कि यदि जीव (आत्मा) नामक कोई तत्व हैं तो वह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध क्यों नहीं हो सकता। जो प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं, उसको अस्तित्व आकाशकुसुम की भाँति कभी भी संभव नहीं हो सकता ? क्या यह ठीक है ?"
प्रात्मा : प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रसिद्ध
इन्द्रभूति महावीर के द्वारा गुप्त मनोभावों का उद्घाटन सुनते ही अचकचा गए । सच, महावीर सर्वज्ञ हैं ? नहीं तो कैसे ये मेरे गुप्ततम मनोभावों को यों
५. जीवे तुह संदेहो ?-विशेष० १५४९
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