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________________ इन्द्रभूति गौतम नाम पर तो उनके पास केवल स्नान, पूजन यज्ञ-याग आदि नीरस क्रियाकाण्ड ही था। भगवान महावीर के चिन्तन पूर्ण वचनों से उनका ऐकान्तिक आग्रह टूटा, स्याद्वाद की अनेकान्त दृष्टि प्राप्त हुई और सामायिक आदि चारित्र का स्वात्मलक्षी मार्ग भी मिला । आचार्य भद्रबाहु के उल्लेखनुसार भगवान महावीर ने अपना पहला उपदेश सामायिक चारित्र का दिया, और उसी उपदेश से गौतम ने सम्पूर्ण चारित्र सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उल्लेख का महत्व इस दृष्टि से भी है, कि ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति में सामायिक-अर्थात् 'समता' एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा थी । ब्राह्मण संस्कृति में जहाँ ज्ञानोन्माद, जातीयगर्व, वाणिक श्रेष्ठता आदि के अहंकार से परिप्लुत वर्ग रात-दिन हिंसा प्रधान क्रिया काण्ड में संलग्न रहता था, वहां श्रमण संस्कृति का मूल स्वर था 'समयाए समणो होई'२ समता के आचरण से ही श्रमण कहलाता है । श्रमण शब्द की व्याख्या भी इसी समत्व भावना को लेकर की गई है—''सम मणई तेण सो समणो"3 जिसका मन सम होता है वह श्रमण है । सामायिक का भी यही अर्थ है कि-"जिसकी आत्मा संयम, नियम एवं तप में समाहित होगई है शान्ति को प्राप्त कर रही है, उसी को वस्तुतः सामायिक होती है। कहना नहीं होगा, भगवान महावीर के इस समता धर्म का आश्चर्यजनक प्रभाव इन्द्रभूति के मन पर हुआ। उन्हें जीवन की एक अपूर्व स्थिति प्राप्त हो गई, एक ऐसा आत्मानन्द का शान्त मार्ग मिला, जिसमें कहीं कोई कटुता, द्वेष एवं वैमनस्य की उष्मा तक नहीं थी । यही कारण है कि गौतम जैसा महान् पण्डित, विश्व विश्रु त तार्किक जब आत्म शान्ति के मार्ग का दर्शन कर पाया तो अपने समस्त पूर्व परिकल्पित आग्रहों, एवं क्रिया काण्डों को यों त्याग आया जैसे साँप कैचुली का त्याग कर देता है—महानागोव्व कंचयं-" और साधना के कठोरतम मार्ग पर सर्वात्मना समर्पित हो गया । १. आवश्यक नियुक्ति गाथा ७३३-३५, ७४२-४५-४८ २. उत्तराध्ययन २५/३२ ३. दशवैकालिक नियुक्ति गा. १५४ यही गाथा अनुयोग द्वार १२९ में आई है। ४. जस्स सामाणिओ अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं । ५. उत्तरा० १९८७ -अनुयोग द्वार १२७ नियमसार १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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