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________________ १५० Jain Education International इन्द्रभूति गौतम (परिशिष्ट) मोह कर्म. ने लीजो. थे जीत जी, : केवल आड़ी आई छै भींत जी । थे तो शिष्य बड़ा सुविनीत जी, थे तो राख जो रूड़ी रीत जी । थे तो पालजो पूरी प्रीत जी, राखी मोक्ष जावण रो चित्त जी । श्री गौतम स्वामी में गुण घणा अब के अणी भव आंतरे, आपां दोनू बराबर होय । अजर अमर सुख सासता, जठे जन्म मरण नहीं होय जी । भूख तृषो न लागे कोय जी, गुरु मोटा मिलिया मोय जी । म्हारे कमी रही नहीं कोय जी, वीर ने सामा रह्या छँ जोय जी । दीठा हर्षित हिवड़ो होय जी, मोहनी कर्म ने दीधो खोय जो । श्री गौतम स्वामी में गुणघणा:" जंग वीर वचन प्रभु सांभली जी, कीधो कर्मा सु करणी कोधी "निर्मली, शिष्य वीर तणां सुविनीत जी । हुआ ब्राह्मण केरा पूत जी; छोड़ी नातीला सु प्रीत जी । जारे वीर वचन आया चित्त जी, तज दीनी खोटी रीत जी । जांरे आई - सांची प्रीत जी, जोड़ी जुगत मुक्ति सु प्रीतः जी । For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.003429
Book TitleIndrabhuti Gautam Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1970
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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