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इन्द्रभूति गौतम राजगृह में हुआ। ये दोनों ही कौडिन्य गोत्रिय थे । लगभग इसी विवरण को आचार्य हेमचन्द्र, गुणचन्द्र एवं नेमिचन्द्र आदि उत्तरवर्ती जीवन-चरित्र लेखकों ने दुहराया है। गणधरों के सम्बन्ध में सार रूप जानकारी परिशिष्टगत कोष्टक से भी ज्ञात हो जाती है । विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता है।
भगवान महावीर : कैवल्य और तीर्थ प्रवर्तन
भगवान महावीर इस अवसर्पिणी के चौबीसवें तथा अन्तिम तीर्थंकर थे। तीस वर्ष की युवावस्था में राज्यवैभव एवं अपार भोगसामग्री को ठुकराकर निम्रन्थ भिक्षु बन गये और कठोर एकांत आत्म साधना में लगभग बारह वर्ष छह मास तक संलग्न रहे । इस कठोर साधना काल में उन्होंने अपने को तपाया, दुःसह कष्टों को सहन किया, और आधिभौतिक एवं आधिदैविक घोर उपसर्गों के झंझावात में भी अचल हिमाचल की भांति साधना का निष्कंप दीप जलाते रहे ।१२
एक समय भगवान महावीर साधना काल के अन्तिम वर्ष में ग्रीष्म ऋतु के वैशाख महीने में विहार करते हुये जम्भिया ग्राम के बाहर ऋजु बालिका नदी के उत्तर किनारे पर श्यामाक नामक गाथापति के कृषि भूमि (खेत) में पधारे । वहाँ शाल नामक वृक्ष के नीचे गोदोहिका आसन में बैठ कर परम समाधि पूर्वक ध्यान की उच्च भूमिका में पहुंच रहे थे। उनके राग-द्वेष क्षीण हो चुके थे। वे मोह पर विजय प्राप्त कर चुके थे । शुक्ल ध्यान की विशुद्धतर भूमिका पर पहुंचते ही श्रमण महावीर ने केवल ज्ञान केवल दर्शन का अनन्त आलोक प्राप्त किया। यह वैशाखशुक्ल दशमी का दिन इस अवसर्पिणी के अन्तिम तीर्थंकर श्रमण महावीर के
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, पर्व १० सर्ग ५ ११. महावीर चरियं, प्रस्ताव, ८. १२. विशेष विवरण देखिए—(क) तीर्थकर महावीर (विजयेन्द्रसूरि) भा० १
(ख) आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन (मुनि नगराजजी) १३. (क) आचारांग २।२४।१०२४
(ख) आवश्यक नियुक्ति : (ग) विशेषावश्यक भाष्य गा० ५२६ प्र० मा० पृ० ६०८ (घ) महापुराणे उत्तर पुराण ७४।३४८-३५५
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