Book Title: Dharma Jivan ka Utkarsh
Author(s): Chitrabhanu
Publisher: Divine Knowledge Society
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 0# তjido কী g বুযুর্গা বিমাঝর্তী Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म जीवन का प्रकाश पूज्यश्री चित्रभानुजी : प्रकाशक : डिवाइन नालेज सोसायटी मुंबई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "धर्म जीवन का प्रकाश" प्रवचनकार : पूज्य श्री चित्रभानुजी गुजराती संकलनकार : जमुभाई दाणी (भाषा विशारद) हिन्दी अनुवादक : श्रीमती पुष्पा एफ. जैन प्रकाशन : सन् २००७ प्रति : २००० પ્રાપ્તિસ્થાનક *नवमात साहित्य मंदिर १३४, प्रिन्सेस स्ट्रीट, मुंबई-२. प्रकाशक : डिवाइन नालेज सोसायटी - मुंबई. मुद्रक : सागर आर्ट ग्राफिक्स् - मुंबई. फोन : (०२२) २८७२ ८५६१ मोबाईल : ९८२०० ४८३९७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व मैत्री की मंगल भावना मैत्री भाव मैत्री भाव का पवित्र झरना, मेरे दिल में बहा करे । शुभ मंगल हों सकल विश्व का, ऐसी भावना नित्य रहे । प्रमोद भाव गुणवानों के गुण दर्शन से, मनवा मेरा नृत्य करे । गुणीजनों के गुणपालन से, जीवन मेरा धन्य बने । करुणा भाव दीन क्रूर और दया विहीन को, देख के दिल यह भर आए। करूणा भीगी आँखों में से, सेवा भाव उभर आए || माध्यस्थ भाव भूले भटके जीवन पथिक को, मार्ग दिखाने खडा रहूं । करे उपेक्षा प्रेम पंथ की, तो भी समता चित्त धरूं ।। चित्रभानु की धर्म भावना, मैत्री घर घर सुख लाए । बैर विरोध के भाव त्यागकर, गीत प्रेम के सब गाए । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय. वर्तमान युग में मानव जीवन विक्षुब्ध बना है। भौतिक समृद्धि के इर्द गिर्द जीने वाला मानव सब कुछ होते हुए भी, स्वयं को कहीं न कहीं बौना महसूस करता है, कुछ कमी, खालीपन का एहसास करता है। विज्ञान का हवाईजहाज कितना ही ऊँचा क्यों न उडे परंतु उडने के लिए उसे पहले अध्यात्म की जमीन पर दोडना पडेगा व फिर सुरक्षित लौटने के लिए भी धर्म धरा पर उतरना ही पडेगा। पूरे विश्व के मानचित्र पर जैन दर्शन को स्थापित कर भगवान महावीर के सिद्धांतो को जनजन तक पहुंचाने वाले, परम पूज्य चित्रभानुजी के श्रीमुख से निकलने वाला हर शब्द किसी ग्रंथ से कम नहीं होता। वे कहते हैं - "क्या धर्म की जीवन में जरूरत है? क्या वह दिखाई देता है ? वैसे तो वृक्ष की जड़ें भी कहाँ दिखाई देती हैं, परंतु जरा सोचिए ! यदि जड़ें न हों तो वृक्ष हो सकता है? इसी तरह जीवन के मूल में यदि धर्म न हों तो जीवन कैसा होगा? वृक्ष की जीवन दाता उसकी जड़े हैं, वैसे ही मानव का जीवनदाता अहिंसा धर्म है। धर्म का मूल्य अनमोल है।" कितनी सहजता से जीवन के सार की व्याख्या कर दी ! यह धर्म हमारे जीवन में कैसे रोशनी ला सकता है, यह सार, इस ग्रंथ में इक्कीस गुणों को लक्ष्य में रखकर समझाया गया है। इन्सान एक के पश्चात एक गुण पर आरोहण करता चला जाए, तो उसके जीवन में न बुझने वाला, अवर्णनीय प्रकाश प्रगट हो सकता है। पूज्य श्री चित्रभानुजी ने आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी कृत धर्मरत्न प्रकरण ग्रंथ के आधार पर इन उच्च भावनाओं की चर्चा की है। पूज्यश्री 4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वैचारिक सोच इतनी व्यापक है, जहां धार्मिक संकिर्णता को कोई स्थान नहीं है। पूज्य गुरुदेव चित्रभानुजी की विचारधारा तो कल कल करती सरिता की तरह है, जो सिर्फ मैत्री व प्रेम का सुगम संगीत गाती हुई आनंदसागर में समा जाती है। उनका कहना है कि, जीवन बांस है इससे लडो मत, इसकी बांसुरी बनाओ जीवन संगीत बन जायेगा | आपके व्यापक दृष्टिकोण का लक्ष्य, सतत जगबंधुत्व और जीव मात्र के कल्याण का रहा है। इसके कारण यह पुस्तक इक्कीस सुरभित पुष्पों का गुलदस्ता बन गई है, इसका पठन, चिंतन, मनन निश्चित ही हमारे जीवन में शांति व अध्यात्म की सौरभ फैला कर जीवन धन्य करेगा। इस पुस्तक की चार गुजराती आवृत्तियां 'धर्म रत्नना अजवाला नाम से प्रकाशित हुई थी । यह पुस्तक अप्राप्य थी। अब इस पांचवी आवृत्ति का हिन्दी अनुवाद श्रीमती पुष्पा एफ. जैन ने पूर्ण भक्तिभाव से किया है। एवं उसका परिमार्जन युगद्रष्टा श्री युगराजजी जैन ने किया है। तत्पश्चात् इस पुस्तक को प्रुफ संशोधन से लेकर कलात्मक ढंगसे मुद्रित करने का कार्य सुभाष जैन ने किया है। ये सभी धन्यवाद के पात्र है। दानवता के क्रूर जबड़ों में कराह रही मानवता को यकीनन राहत देने वाली ये पुस्तक इस मौलिक युग की दशा व दिशा बदलने में समर्थ होगी। 5 - प्रकाशक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रकाश) उजाले की आराधना प्रकृति के किसी मंगल और मनोहारी प्रभात में, प्राची की और से गुलाब की पंखुडियां बिखेरती हुई, होठों पर स्निग्ध मुस्कान लिए उषा, भास्कर के उदय होने का संकेत दे रही है। सरिता का निर्मल नीर भगवान भास्कर के स्वागत हेतु कल- कल करने लगा है। किसी अदृश्य बन की वल्लरियों में छिपी कोकिला का मधुर कंठ नाद, कर्ण को पुलकित कर रहा है। आँखो से अदृश्य प्रफुल्लित पुष्प, उसके परिमल की सौरभ को चारों और बिखरते हुए हमारे मन को आल्हादित कर रहे हैं। मधुर अनुराग भरी श्रद्धा से हृदय भर आए, अंग अंग में चेतना झंकृत हो उठे, ऐसा ही कुछ स्पष्ट, अस्पष्ट अनुभव मुनि श्री चंद्रप्रभसागरजी के दर्शन, परिचय से हुआ। मुझे लगा, यह है कोई आदर्श अवधूत, भावना में मस्त, क्रान्तिकारी, मनसा-वाचा- कर्मणा मुनिराज । पाँच छः साल पहले का है यह प्रसंग, जब पालीताणा यानि जैन मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी में हमने प्रवेश किया। सामान्य से दिखते हुए एक घर में प्रवेश के उपरांत ऊपर जाकर देखा तो कई साधु अपने नित्यक्रम में व्यस्त थे। हमारी नजरें दो मुनिराजों पर ठहरी, उन्हें मन ही मन नमन किया। उनमें से एक तो थे चन्द्रकान्तसागरजी जिनका थोडे समय पहले ही कालधर्म हुआ है, तथा दूसरे थे युवा व प्रतिभा सम्पन्न मुनि श्री चन्द्रप्रभसागरजी । प्रथम मुनिश्रीने प्यार पूर्वक हमारा सत्कार किया तथा दूसरे मुनिराज की ज्ञान गोष्टि के रंग ने हमें सहबोर कर दिया। साधुता के साथ साथ, स्नेह भीनी आत्मियता । इतना सद्भाव ? इनके दर्शन से हमारी आत्मा पुलकित हो उठी, औपचारिक परिचय के प्रथम पलों में ही सत्संग की और साधुता की गूढ़ता हमें स्पर्श कर गई। साधु मिलन की धन्य घडी हमें धन्य कर गयी । पिता-पु फिर तो कुछ समय बाद हमने जाना कि ये दोनों साधु, संसारी - पुत्र हैं, तथा साधु जगत में गुरूभाई। माया का कलुष त्याग कर दोनों ने त्याग का पंथ अपनाकर, संसार के सुख-साधनों से विरक्त 6 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुता के रंग से, अपने आप को रंग लिया। एक ने धर्म क्रियाओं की आराधना अपनाई, तो दूसरे ने ज्ञान ध्यान की राह पसंद की। इस जुगल जोडी की सुसंवादिता के क्या कहने? प्रेम और प्रकाश का कैसा दैवीय सुलभ और विरल सुमेल ? संसारी स्वजन इस तरह धर्मपथ की सहकल्याण यात्रा का प्रारंभ करे, यह कैसा रंगीला, मस्तीभरा स्वप्न चित्र है? प्रथम भावनगर, फिर गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में लोगों को धर्म के रंग में रंगकर मुनि श्री मुंबई पधारे। १९६० मई महिने में मेरी मुलाकात उनसे हुई। शिक्षण क्षेत्र से निवृत्त होकर, मैं शांत प्रवृति में विहर रहा था। मैंने सुना कि मुनिराज नेमिनाथजी मंदिरजी में चतुर्मास हेतु पधार रहे हैं, उनके प्रवचन सवेरे होंगे, यह सुनकर मुझे अति आनन्द हुआ। ___मैं प्रवचन में जाने लगा, संवत २0१६ के चातुर्मास, प्रवचन स्वाध्याय के लिए, साढे सात सौ साल पुराना ग्रंथ, सर्व धर्म प्रेरक, ऐसा यह ग्रंथ “धर्मरत्न प्रकरण'' पसंद किया गया ! प्रतिदिन प्रार्थना एवं मैत्रिभावना के बाद मुनिराज प्रवचन देते। विशाल जन समुदाय एकत्रित होता था। जैन तथा अजैन सबके मुख पर एक अनोखी चमक, प्रवचन सुनने के बाद दिखाई देती थी। उनके ज्ञानानुभव का सुधापान मैं प्रथम बार कर रहा था। मुझे प्रवचन सुनने में अपूर्व आनंद आने लगा। प्रवचन के दौरान कई विचार, उदाहरण, काव्यमय कल्पना आदि मैं रोज लिखता था, यह मेरी पुरानी आदत है। कभी मेरे मित्र, मुनिराज के भक्त इसे पढ़ते तो आनंदित हो उठते। कुछ लोगों ने मुझे सुझाव दिया, कि पूर्ण प्रवचनों का संकलन किया जाए तो भविष्य में पुस्तक छपवा सकते हैं। मुझे इसमें मेरे निवृत्त समय का सदुपयोग नजर आया, और मैंने अपनी पात्रता का विचार किए बिना ही यह कार्य शुरू कर दिया। मुझमें न तो लघुलिपि लिखने की योग्यता और ना ही दीर्घलिपि लिख सकुं ऐसी गति। परंतु जो कार्य हाथ में लिया, उसे अधूरा छोडना उचित न समझकर दूसरे श्रोताओं की लिखी हुई टिप्पणियों की सहायता लेकर में रोजबरोज के प्रवचन तैयार करने लगा। परंतु मन में क्षोभ रहता 7 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था, मैं सोचता कहाँ मुनिराज का ज्ञान और दर्शन, कहाँ अद्भुत वाणी द्वारा अजब प्रवाहित इनके प्रतिभा सम्पन्न विचार, कैसी उदाहरणों की रसिकता और कहाँ मेरी कांपती हुई यह कलम ! डर लगता था कि, मुनिश्री के विचारों को न्याय तो मिलेगा न ? फिर भी यथाशक्ति लिपिबद्ध दो-तीन प्रवचन संकोच सहित उन्हें दिखाए। ज्ञानी की दृष्टि तो बाह्यस्वरूप की तरफ नहीं बल्कि आंतरिक भावों की ओर ही होती है। मुनिश्री ने भी उदार दिल से प्रवचन देखे, और स्मित चहरे से मुझे सम्मति दी । इनकी तरफ से मिले प्रोत्साहन के लिए मैं तथा श्रोतावाचक गण इनके खूब आभारी हैं। प्रत्येक चातुर्मास में जिन मंदिरो में होने वाले, धर्मग्रंथो का पठन, भाविक श्रमण तथा श्रद्धावान श्रावकों में भक्ति की पुनः स्मृति जगा देता है । और यदि ग्रहण करने की योग्यता है, तो जीवन नव संजीवनी से भर जाता है। परंतु चित्रभानुजी के प्रवचन, स्वाध्याय की बातो में, कुछ विशेषता लिए कल्याणकारी सुंदरता थी । अति प्राचीन इस ग्रंथ में से विचार, आदर्श और भावना को आपने नवयुग की भाषा, नवनिरूपण, नवीन अर्थ गौरव भरी रंगावली तथा काल्पनिक काव्यमय शैली से अलंकृत किया है । इनके प्रवचनों ने इस ग्रंथ को नवयुग के नवजीवन की एक युगगाथा बना दी है। धर्मभावना को सर्वांगी जीवन में मूर्तिमंत करने की तमन्ना और झंखना श्रोताभक्तों में जगा दी है। “धर्म रत्न" प्रकरण के इस ग्रंथ को - इसके संदेश को पूज्यश्री ने नवीन, सर्वधर्मप्रिय, सदा प्रेरक और इसमें चैतन्य उर्जा भरकर जिवित बना दिया है। इनके प्रवचनों में सर्वधर्म समन्वयभाव है, मानव मात्र के प्रति करुणा का झरना उनके हृदय में बह रहा है। अंधेरे में भटकते हुए लोगों के लिए दीपक समान है आपका संदेश तथा सर्वकाल में सबको सहायक बनने की आपकी तत्परता, सराहनीय है। आपके तप संदेश में नवनीत सी कोमलता है और त्याग संदेश में हृदय की आर्द्रता है। श्रोतावर्ग, पाठकगणों को इनके हृदय की उर्मियां स्पर्श कर जाती है, वो सबके हृदय में बस जाते है । पूज्य श्री स्वयं प्रवक्ता होने के साथ साथ मनोवैज्ञानिक भी है, ऐसा प्रतीत होता है। कब, कितना, किस स्वरूप में और किस श्रोता से कहना 8 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है यह उन्हें अच्छी तरह आता है। कभी रम्य कल्पना से, तो कभी काव्य पंक्तियों से, कभी मनोहर उदाहरणों से, तो कभी क्रांतिकारी प्रहारों से, कभी कारूण्य भाव तो कभी कटाक्ष भाव, कभी पाण्डित्यभरा साहित्य तो कभी सरल और कभी मीठी बोली। कभी जीवन की करूणता का दर्शन करा कर, तो कभी रूला कर, कभी अंतरमन का प्रकाश दिखाकर, हंसाकर, सबको ज्ञान मंदिर के सोपान चढ़ाते है। धर्म और जीवन के कठिन पाठ सरलता से पढ़ाते है, और आत्मीयता की रस वर्षा से सबको आनंदमस्त कर देते हैं। इस ग्रंथ का स्वाध्याय, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, रसिक और प्रेरक आलेखन मात्र ही नहीं, इसमें बताए हुए इक्कीस सद्गुण सोपान का सौंदर्यमय और कल्याणकारी दर्शन, धर्मी मानव के लिए आचार संहिता है। इस ग्रंथ से यह प्रतीत होता है कि धर्म का जो सच्चा स्वरूप है, वह व्यक्ति के प्रत्येक आचार, विचार, वाणी और बर्ताव में प्रतिबिंबित होना चाहिए। धर्म केवल पढने और बोलने का ही विषय नहीं है, बल्कि इसकी भाव पूजा तो प्रतिपल होनी चाहिए। ग्रंथ का प्रत्येक सोपान, जीवन का विशिष्ट, विषद तथा सर्वजन मंगलकारी स्वरूप बताता है। धर्मरत्न से सुशोभित, मंगलमंदिर के प्रति प्रयाण करने की प्रत्येक भक्त में नयी श्रद्धा और झंखना प्रगट करती है, जीवन में नया प्रकाश फैलाती है। आज मनुष्य जीवन रूपी झरना, सुमार्ग त्यागकर कुमार्ग की तरफ बह रहा है, तब उसे सुपथगामी बनाने की आशा हम एक तो धर्मगुरुओं से तथा दूसरे शिक्षागुरुओं से ही रख सकते है। संस्कृति का इतिहास, अनुभव द्वारा कहता है कि मानव समाज की प्रगति का नवदर्शन, नयी प्रेरणा देने का कार्य आज तक धर्म तथा धर्म उपदेशक, तथा शिक्षा तथा आश्रमगुरुओं ने किया है, ऐसा करके मानव प्रगति में प्रोत्साहन दिया है। आज के इस संक्रान्तिकाल में इन दोनों मंडलों का विशेष धर्म बन जाता है। संपूर्ण विश्व आज अभूतपूर्व गति से विकास कर रहा है। आज का नया धर्म, मात्र मंदिर में मूर्तिपूजा, पूजा अर्चना, क्रियाकांडो, कथाओं, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यानों तथा पठन-श्रवण में ही परिपूर्ण नहीं हो जाता। पुराने जमाने में लोग केवल मंदिर जाकर ही धर्म की प्राप्ति कर लेते थे, परंतु आज मंदिर तथा साधुओं को धर्म की इस मंगलमय भावना को मानव के गृहमंदिर, कर्ममंदिर तक पहुंचाने की पदयात्रा प्रारंभ करनी होगी। मानव जीवन के विविध क्षेत्र तक पहुंचकर धर्मरूपी स्तोत्र को बहता हुआ रखना होगा। यही काल धर्म है, आपद् धर्म है। - पूज्यश्री के साहित्यिक एवं रसपूर्ण पुस्तकों ने एक विशाल वाचक वर्ग खडा किया है। अंतिम दस वर्षों में इन्होंने गुजरात में ग्रंथसप्तक का प्रसाद धरा है, गुजराती साहित्य एवं धर्मभावना के साहित्य को सुसमृद्ध बनाया है। जीवन के विविध प्रसंग पुष्पों का पराग, सुगंध फैलाता हुआ ‘सौरभ', धर्मपथ के यात्रियों को नवदृष्टि प्रदान करने वाला 'भवनु भातुं'। क्षणिक तथा मायावी सुख में पड़े हुए लोगों को आवाज देता हुआ ‘हवे तो जागो', मानवमात्र की अप्रगट छबि बताता हुआ 'कथादीप' | जीवात्मा को परमात्मा के दर्शन कराता हुआ ‘बिंदुमा सिंधु', विचार रत्नों से हृदय को शांति प्रदान करता हुआ ‘प्रेरणानी परब' हृदयस्पर्शी विचारधारा से सुशोभित 'जीवन मांगल्य', इनके इस सप्तक में प्रस्तुत नये ग्रंथ का समावेश करने से, धर्मकार्य का एक मंगलाष्टक पूर्ण होता है। तत्पश्चात यह प्रार्थना ! हे, मुनिश्री ! प्रोढ़ों को आपने बहुत कुछ दिया है, बहुतों के हृदय को शीतलता प्रदान की है। परंतु अब अपने देश की भावि आशाएँ जिन पर अवलम्बित हैं, इस देश की संस्कृति उन बालकों तथा युवक-युवतिओं को संस्कार बोधक और सहकार पोषक कथा साहित्य की भेट आप नहीं देंगे? इनका हृदय तथा हाथ क्या आपके संजीवनी साहित्य से खाली रहेंगे? सभी भाविकों की तरफ से मैं आपके पास, आज के मंगल दिन यह प्रस्ताव रखता हूं। और दो चार हार्दिक आभार शब्द 'प्रेरणानी परब' का पानी पीकर आनंद अनुभव करते हुए विशाल भक्त, मित्र समुदाय के प्रोत्साहन से पूज्यश्री के प्रेरक प्रवचनों का, जो मेरी अपूर्णता के कारण शायद अधूरा हो सकता है, परंतु पूज्यश्री के प्रवचनों से मधुर बने हुए इस ग्रंथ को पेश करते हुए मेरी आत्मा अत्यंत हर्ष का 10 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव कर रही है। इस ग्रंथ की क्षतियों का अधिकारी मैं हुं, तथा इसकी प्रेरणा का, सुंदरता का यश पूज्यश्री को जाता है। चातुर्मास के विदाय प्रवचन में उन्होंने जो कहा था, उसमें मैं थोडा सा फेर बदल कर के इतना ही कहता हूं कि, मुनिश्री के धर्म ज्ञान सागर में से बूंद भर पानी पीने का पुण्य मैंने कमाया है, यह अलभ्य और अनिवर्चनीय सुख पाकर मैं कृतकृत्यता का अनुभव करता हूं। कहते हैं की अरूणोदय के पहले का अंधकार गूढ़ होता है। मानव जाति के इतिहास में आज यह अंधकार, जीवन के सभी क्षेत्रों में फैल रहा है। आज मानव मन, माया के रंग में रंग रहा है, मन अस्वस्थ है, हृदय में प्यार का पावन झरना सूख गया है, मानवता कम नजर आती है। ज्ञान की जड़ता और अन्दर का अहम्, आत्मा की आवाज को दबा रहा है। मानव अपने आप को दयनीय महसूस कर रहा है, शांति संवादिता, स्नेह की तृषा में तड़फ रहा है। जबकि विज्ञान संशोधन के अणु, मानव जाति का संहार करने के लिए आसन्न उपस्थित है। अब तो धर्म का कल्याणकारी झरना ही मानवता के लिए आशा की किरण है। अंधेरे में भटकते लोगों के लिए धर्मप्रकाश ही नव चेतना अर्पण कर सकता है। संहार के संताप में सूजन की सुंदरता देख सकता है। आज का जगत ऐसे धर्मपंथप्रदर्शकों, प्रेरणादाता सुमित्रों की अपेक्षा रखता है। आज के संत, उपदेशक और शिक्षागुरुओं को आज अनाथ बने हुए लोगों के जीवन रूपी रथ का सारथी बनने की जरूरत है। धर्म रत्न की प्राप्ति के लिए आराधना आवश्यक है। जिस हृदय में श्रद्धा का दीप प्रज्वलित है, वहां भक्ति, स्नेह का सिंचन है। प्रत्येक धर्मजिज्ञासु को इस में से धर्मरत्न, ज्ञानपिपासु को ज्ञान रत्न तथा अन्य जीवों को तरह तरह का प्रकाश प्राप्त होगा। और मुझे श्रद्धा है की इस ग्रंथ की प्राण प्रतिष्ठा, सर्वधर्मी जनों को, धर्म मंदिर की और ले जाएगी यही भक्तिभरी, प्रेमभरी मेरी आराधना है। कार्तिक प्रतिपदा २०१८ - जमुभाई दाणी ता. ९ नवे. १९६१ 11 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री चित्रभानुजी की जीवन सौरभ विश्वभर में अहिंसा और अनेकान्त विचारधारा के प्रबोधक, आन्तरराष्ट्रिय दार्शनिक पूज्य श्री चित्रभानुजी का जन्म २६ जुलाई सन् १९२२ को राजस्थान के तखतगढ़ में, एक धार्मिक परिवार में हुआ । महाविद्यालय के आधुनिक शिक्षण के पश्चात, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने हेतु महात्मा गाँधीजी के परिचय में आए और अखण्ड भारत के स्वतंत्रता सेनानी बने । चार वर्ष की कोमल वय में माता की मृत्यु देखी, बारह वर्ष की उम्र में खिलती हुई कली समान छोटी बहन को बुखार से मरते देखा और फिर उन्नीसवें वर्ष में एक मेधावी सह छात्रा को जान लेवा बीमारी के कारण मौत के मुँह में जाते देखा । इन घटनाओं से आघात लगा और आपकी जीवन दिशा बदली, मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए विश्व विख्यात, रहस्यवादी, चिन्तकों से समागम किया । १९४२ में बोरडी के सागर तट पर पूज्य आचार्य श्री चन्द्रसागर सुरिजी की छत्रछाया में दीक्षा ग्रहण की और मुनि चन्द्रप्रभसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए । __इकलौते पुत्र को संसार त्याग करते हुए देखकर, आपके पिताश्री ने भी दीक्षा ग्रहण की और पू. मुनिश्री चन्द्रकान्त सागरजी के नाम से जाने गये । पूज्यश्री चित्रभानुजी ने श्रमणावस्था में योग, ध्यान एवं धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करके भारत के दूर-सुदूर प्रान्तों, गाँवों एवं नगरों में पाद-विहार करके लोक-जागृति फैलाई तथा सामान्य प्रजा में अहिंसा, करूणा, दया, समता, समन्वय तथा जैन सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया । सन् १९६९ में भगवान महावीर के जन्म दिवस पर समग्र मुंबई के कत्लखाने बंद करवाए, इससे भी आगे बढकर सर्वधर्म के सत्ताधीशो को समझाकर गांधी जयन्ती, रामनवमी वगैराह आठ त्यौहारों पर कत्लखाने बंद रखवाने का नगरपालिका में प्रस्ताव करवाया । इन त्यौहारों पर आज भी मुंबई के कत्लखाने बंद रहते हैं। आन्तरिक प्रेरणा से प्रकाशित होकर, विश्व के देशों में अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का प्रचार करने हेतु आप सन् १९७० में जेनीवा में द्वितीय आध्यात्मित शिखर परिषद में गए तथा जैन धर्म के सिद्धान्तों की अजय घोषणा की, और जैन धर्म में नई क्रान्ति लाकर जीव मात्र के कल्याणकारी सिद्धान्तों की हदयस्पर्शी वाणी बहाई। संप्रदाय अतीत शुद्धवाणी से प्रसन्न सभाने पूज्यश्री का हार्दिक स्वागत किया। पश्चिम में एक नये इतिहास का सर्जन किया । विश्व विद्यालय New York University (NYU) में सन् १९७१ में सर्वधर्म समभाव शाखा के आप प्रध्यापक बने । सन् १९८१ में सेंडीयेगो के सागर तट पर सत्रह दिन तक ध्यान, योग, साधना करते हुए आपको दिव्य आत्मज्ञान के साथ सोहं का साक्षात्कार हुआ, शुद्ध व्रतों का स्वीकार कर आप विश्वमानव संत बने और जीजिविषा मुक्त जीवन के मुक्त प्रवासी रहें। 12 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वर्तमान में आपकी मुख्य प्रवृत्तियाँ : (१) आप न्यूयोर्क, जैन मेडिटेशन इन्टरनेशनल सेन्टर, मुंबई दिव्य ज्ञान संघ और शाकाहार परिषद के संस्थापक तथा प्रेरक होने के नाते आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं । (२) आपकी दिव्य वाणी तथा अद्भूत लेखन शक्ति के माध्यम से आज अमेरिका, कैनेडा, युरोप, आफ्रिका, सिंगापोर, हाँगकाँग, बैंगकॉक, तायवान, मलेसिया, स्विट्जरलॅन्ड, फ्रान्स, जापान में अहिंसा तथा अनेकान्त का प्रचार करके ध्यान सेन्टरों की स्थापना करवाई और असंख्य लोगों को सही मार्गदर्शन देकर व्यसन मुक्त एवं शाकाहारी बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं । (३) आपने स्वअनुभव, गहन अभ्यास तथा प्रबुद्ध जीवन के सारांश स्वरूप अनेक हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी पुस्तकों का सृजन किया है, जो हमारे अज्ञानमय जीवन में दीपक की भाँति प्रकाश फैला रहे हैं । श्री चित्रभानुजी एक ऐसा व्यक्तित्व है, जिन्होंने जैन धर्म को संप्रदायों की दिवारों से उपर उठाकर विश्व के मानव मात्र को मैत्री और शांति प्राप्त हो, इस भाव से United Nation में प्रतिष्ठित करवाया है | आप निर्दभ और निर्भयता से मनुष्यों में सुषुप्त मानव को जगा कर आत्मज्ञान से प्रबुद्ध कर रहे हैं । हजारों नहि लाखों लोगों को हिंसा के पापमय परिणाम का एहसास करवा कर शाकाहारी और करूणामय अहिंसाप्रेमी बना रहे हैं | Vegan (डेयरी प्रोडक्ट) दूध एवं घी के सेवन से अदत्तादान और अंतराय कर्म हम अज्ञानवश कैसे बांधते है उसका दर्शन करवाया । पशु संरक्षण हेतु हर पांजरापोल की अभिवृद्धि हो इस महान उदेश्य से हमेशा आपश्री अमेरिका में लाखों का फंड करवाकर भारतभर की अनेक पांजरा पोलो को सहायता करवाते रहते है। आपके विदेशी विद्यार्थीयों और साधकों की संख्या अगणित हैं । विदेशों के अलग अलग प्रदेशों में आपके द्वारा प्रस्थापित २१ धर्म प्रचार केन्द्र है | आपकी ही प्रेरणा से अमेरिका के विचारशील धर्म श्रद्धालु लोगों ने “फेडरेशन ओफ जैना" की स्थापना की है और उसके अन्तर्गत ६९ भव्य जिन मन्दिर तथा भवनों का निर्माण हुआ है। Y.J.A. (young Jain of America) के हजारों युवा वर्ग के आप प्रेरणा दाता है | 37140pFetida gralcot "Realize what you are”, Psychology of Enlightenment, Twelve facets of Reality”, Philosophy of soul and matter” जैसे अमूल्य पुस्तक रत्न विदेशी जनता में अत्यन्त लोकप्रिय हैं । लोकोद्धार और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु अनेक कार्य हमारे श्रद्धेय, पूज्य गुरुदेवश्री के कर कमलों द्वारा सदा होते रहें, ऐसी आंतरिक अभिलाषा के साथ... प्रो. रमेश एच. भोजक M.A., M.Phi, D.H.E. Wilson College, Mumabi-7. ___13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम • तं ॐ 90 ॐ १६ ॐ ॐ २४ २७ 8 8 ३८ . पूर्व भूमिका धर्मकथा धर्म का आराधक धर्म का अधिकारी गंभीरता गंभीरता द्वारा आत्म दर्शन क्षुद्रता का त्याग संपूर्ण अंगोपांग प्रकृति सौम्यता सौम्यत्व के साथी जीवन परिवर्तन लोकप्रियता लोकप्रियता और प्राप्ति १४. विचार औदार्य १५. विनय-दर्शन १६. शाश्वत क्या? १७. अक्रूर १८. पापभीरूता १९. पापपराजय 20. अशठ यानि सुरीली संवादिता २१. धर्मी जीवन की सफलता २२. सुदाक्षिण्य २३. दाक्षिण्यमयी दान भावना लज्जा २५. मंगल मंदिर के पथ पर ४१ २४ एए ६४ ६९ ७१ ७५ ८० २४. ९१ ९ . 14 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ९७ २७. 909 २८. 90५ २९. मात्र 900 5U. ११३ ३१. 998 ३२. ११९ ३३. १२२ ३४. १२६ ३५. १२९ ३६. १३२ 3७. १३७ 36. १३९ ३९. ४०. दया का झरना दया के दो स्रोत विश्व एकता का भाव माध्यस्थ माध्यस्थ भाव का माधुर्य : गुणानुराग सद्गुणों की उपासना सत्कथा अखंड जीवन सुपक्ष जीवन में सुपक्षता दीर्घदर्शिता वस्तु के हार्द के दर्शन विशेषज्ञ वृद्धानुगामी अनुभव की कसौटी विनय कृतज्ञता उपकार चतुष्टक कृतज्ञता का संदेश परहित निरतः समष्टि की भक्ति में मुक्ति लुब्धलक्ष ध्येय दृष्टि ध्येय यात्रा लक्ष्य बिंदु १४३ १४७ ४१. १७२ १५६ १६१ ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. १६५ qbe १७२ ४७. १७४ ४८. १७५ १७७ ४९. ५०. ५१. १७९ १८१ 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म जीवन का प्रकाश चेतना में गजब की शक्ति है, यह क्षण का युगों तक विस्तार कर सकती है, युगों को क्षण में समा सकती है। परंतु वह शरीर नहीं, चेतना। शरीर एवं चेतना दोनो भिन्न है। चेतना के चले जाने पर शरीर निर्जीव बन जाता है, और चेतना यानि आनंदधन। हमारे सबके अन्दर भी यही आनंदधन सोया हुआ है, और श्रवण ध्यान द्वारा इसे जागृत करना है, सोये हुए को जगाना है। - चित्रभानु Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वभर में अहिंसा और अनेकान्त विचारधारा के प्रबोधक, आन्तरराष्ट्रिय दार्शनिक पूज्य श्री चित्रभानुजी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIFTH BIENNIAL YJA CONVENCION NEW JERSCY JULY-4-5-6-2002 DEDICATED TO ALL YOUNG JAINS OF NORTH AMERICA AND U.K. These young Jains have the courage of conviction to maintain the 2,600-years heritage of Bhagwan Mahavira's Ahinsa, renewing and reinvigorating it in the living present and who in everyday life are walking the talk of Ahinsa and Anekantavada. This unique tradition of respecting the sacredness of life is the hope of mankind. + Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CMK Jains made history when Gurudev shree Chitrabhanuji delivered the opening prayer in the House of Representatives. The photograph was taken on the steps of the Capitol Building after this historic event on May 22, 2001. Over 140 delegates of the Jain community from all over the United States and Canada, along with representatives from India Embassy, witnessed this momentous event from the Gallery of House of Representatives. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U.S. House of Representatives CERTIFICATE This certification of recognition and appreciation is presented to GURUDEV SHREE CHITRABHANUJI Founder, Jain Meditation International Center New York, New York who gave the opening prayer at a session of the u.s. House of Representatives, The Capitol, Washington, D.C., on May 22, 2901. Speaker Chaplain Jeff trandahl Attest: clerk of the House For the first time in the history of the United States of America, Jainism and Jains of North America received the unprecedented recognition and honor of having a prayer in the U.S. House of Representatives when on May 22,2001,in celebration of the 2600" birth anniversary of Mahavira, the twenty-fourth Tirthankara, the Jain Master Gurudev Shree Citrabhanuji delivered the opening prayer. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • -CMYK D S CHITRABHANUJI VISITS LIGTHOUSE CENTER On the weekend of October 8-10-2004, Gurudev Chitrabhanuji again came to Bless the Lighthouse Center for Spiritual Development in Whitmore Lake, Michigan (just north of Ann Arbor). At the Lighthouse, founded by Chetana Catherine Florida, Gurudev's first apostle, all of the members are meditating and practicing Ahimsa and Revernce for Life. Gurudev's loving presence and words of wisdom inspire all of us at the Lighthouse to continue each day to be guided by our meditations, that we may choose our thoughts, words, and actions in the awareness of Ahimsa and love, loving all others and ourselves. We are forever grateful to Gurudev for always being a Beacon of Light and Inspiration. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व भूमिका आज के युग 'की यह मांग है कि मानव केवल मानवजीवी ही बनकर न रह जाए, अपनी चेतना को विश्व चेतना बनाकर धर्मजीवी बने। इस मंगलमय दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर इस प्रवचन माला में जीवन की आचारसंहिता पर विचार करेंगे। १ इसके लिए हमने " धर्म रत्न प्रकरण" नामक ग्रंथ पसंद किया है। आचार्य श्री देवेन्द्रसुरिजी द्वारा रचित यह ग्रंथ अद्भुत है, जो हमारे जीवन में प्रेरणा स्त्रोत बन सकता है। इस ग्रंथ में धर्मी व्यक्ति के गुणों का वर्णन है, वरना धर्मी कहलाना एक बात है, यह सरल है, परंतु धर्मी बनना कठिन है। हमें इस ग्रंथ के अभ्यास द्वारा धर्माचरण को सिद्ध करना है। लेखक सर्व प्रथम अभिमान का त्याग करके प्रभु को नमन करते है, जिससे ऐसे ग्रंथ का श्रवण करके श्रोता तथा स्वयं दोनो भव का पार पा सके । ऐसे महान सृजन के पीछे इन्सान में नम्रता का गुण होना अत्यावश्यक है। लेखक ने त्यागी, बैरागी श्री महावीरप्रभु को वंदन किया है, हम लेखक को वंदन करते है, जिन्होंने विनय गुण का मंत्र हमें सिखाया है। नम्रता ओर विनय रहित मानव का जीवन कभी सुगंधित नहीं बन सकता, मोम जैसा नर्म हृदय बनाने के लिए, घर घर में माता-पिता, कुटुम्बीजन, मित्रों के प्रति नम्रता का गुण अपनाना जरूरी है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “नमन नमन में फेर है, बहुत नमे नादान'' इसका अर्थ है, इन्सान अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भी नमन करता है, पर ऐसे लोग मतलब निकल जाने पर धोखा भी दे सकते है, इन से सावधान रहना चाहिए। लेखक ने ऐसे महापुरूष को नमन किया है जो गुणों के भण्डार हैं। हजारों वर्ष पूर्व पावापुरी - राजगृही में विचरण की हुई इस चेतना द्वारा यह धरा पवित्र बनी, यह रजकण भी धन्य है। यह दिव्य चेतना आज भी योग्य जीवों को क्षणभर में युगो का दर्शन एवं जीवन की अनुभूति कराने की क्षमता रखती है। ऐसी महान विभूति जिन्होंने काल प्रवाह से पार पा लिया है, उन्हें लेखक नमन करते हैं। इस नमन में आत्मिक भाव है, आत्मिक खजाने के सच्चे स्वामी है महावीरस्वामी और यह ग्रंथ आत्मिक खजाने से भरपूर है। ..प्रभु महावीर के पास क्या कुछ नहीं था? धन, वैभव, बंधु, बहन, पुत्री, पत्नी सर्वस्व तो था, परंतु उन्हें तो अमृत तत्त्व की प्यास जगी थी, जो इन नश्वर वस्तुओं से कैसे बुझ सकती थी भला? यह तृषा भौतिक वस्तुओं से न बुझने वाली, आत्मिक शांति की परमपद की तृषा है। घोर उपसर्गों को सहन करके, साढे बारह वर्ष तक अडिग साधना करके प्रभु वीरने धर्म रत्न, शाश्वत प्रेम, मैत्री का खजाना प्राप्त किया। अवधूत योगी आनंदधनजी ने भी कहा है “मैं जो पाना चाहता हुं, वह जीवन अमृत है, विष के कटोरे पी चुका, अब आत्मिक तृषा बुझाने के लिए ज्ञानरूपी अमृत के प्याले पीने है। जिन्होंने पी लिया, उन्हें फिर कोई प्यास लगी ही नहीं, वे आनंदधन को प्राप्त हो गये। जो पीया वो जीया और जो जी गया वह फिर भला मरण को कैसे प्राप्त हो सकता है ! इस जीवन अमृत को कबीर ने पीया, महावीर ने पीया, बुद्ध ने पीया। जीना है तो पीना ही होगा। हम सब के अंदर भी आनंदधनरूपी चेतना सुषुप्त पडी है, उसे जगाना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ है, इस चेतना में अजब शक्ति है, जो एक क्षण में युगों का विस्तार कर सकती है, और युगों को क्षणमात्र में समाहित कर सकती है, यह चेतना देह से भिन्न है। इस धर्मरत्न के सूत्रो में अमीधारा भरी पडी है, जिसके पठन, चिंतन, मनन द्वारा हमें अपने गुणरत्नों को पहचानना है, प्राप्त करना है । समय के साथ साथ उपदेश के तरीके, तर्क, दलीलें शायद बदल भी सकते हैं, पर सूत्र नहीं बदलते, लोगों को नयी जागृति की बातें सुननी अच्छी लगती है, पर हमें यह नहीं पत्ता की इन सूत्राक्षरों की चिनगारी लाखों वर्षो बाद भी भक्तो के लिए प्रेरणारूप बन सकती है। जो लोग आत्मा का उत्कर्ष करना चाहते है उन्ही के लिए यह बोध उपदेश दिया गया है, जो व्यक्ति रत्नों की अपेक्षा रखता है, वही रत्नों की कीमत आँक सकता है, अतः धर्म रत्न भी जो योग्य हो, उन्हें ही देने चाहिए। धर्म को रत्न की उपमा दी गई है क्योंकी उपमा श्रेष्ठ की ही दी जाती है । विश्व की सभी स्थूल वस्तुओं में रत्न कीमती है, वैसे ही धर्म सभी रत्नों में बहुमुल्य है। हमें इस श्रेष्ठ धर्म को समझने के लिए अपनी दृष्टि बदलनी होगी, तभी हम धर्म रत्न प्राप्ति के अधिकारी बन सकेंगे । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा शास्त्रों में राजकथा, भक्तकथा, देशकथा और स्त्रीकथा इन चार प्रकार की कथाओं को विकथा कहा गया है। स्त्री कथा में क्या वृद्ध क्या युवान? सभी निमग्न बनते है, देशकथा, राज्यकथा भी काफी प्रचलित है और भोजनकथा में भी इंसान अपना कीमती समय बरबाद करता है। जब तक पृथ्वी पर मानव है, तब तक राग द्वेष रहेंगे, और उनके प्रतीकरूप राज्य भी रहेंगे। जिन्हें राजनीति के बारे में कोई ज्ञान नहीं, ऐसे लोग भी राजकार्य की समीक्षा करने बैठ जाते है। अलग अलग रीतिरिवाजों की चर्चा करके भी इन्सान अपना मन लगाने की कोशिश करता है, इन सारी चर्चाओ के माध्यम से चिंताओ को भूलने का प्रयत्न करता है। ___क्या यह सब जीवन के उत्कर्ष में सहायक बन सकता है? मानव स्वयं को भूल गया है, उसे स्व आत्मा की पहचान करने के लिए धर्मकथा की जरूरत है। व्यक्ति भौतिक, क्षणिक सुखों के पीछे दौड़कर अपना क्या गंवा रहा है? उसका उसे अंदाज नहीं है, क्यों की उसे आत्मा की पहचान नहीं है। एक नादान बालक के पिता के पास लाखों की संपत्ति होते हुए भी, यदि उसे कोई एक रूपैया दे दे तो वह खुश हो जाएगा, क्यों की उसका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता कितना धनवान है, उसे क्या पत्ता? ऐसी ही करूणाजनक स्थिति मानव की है, जो सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु अपना सर्वाधिक बहुमूल्य धन आत्मधन लुटा रहा है। इसीलिए ज्ञानियों ने फरमाया है कि, “है मानव तू अपनी संपत्ति को पहचान । राग, द्वेष तथा अहंकार के जाल से मुक्त जो होता है, वही सच्चे आत्मिक सुख की प्राप्ति कर सकता है, ऐसे विषय कषाय मुक्त साधक का सुख चक्रवर्ती राजा के सुख से भी बढ़कर होता है। आखिर तो आत्मलीनता की दशा का जो सुख है उसका अंशमात्र सुख भी भौतिक पदार्थों में नहीं मिल सकता।" __भौतिक सुखों के जंजाल से बाहर निकल कर, राग द्वेष रूपी कीडे से मुक्त बनकर, लोकव्यवहार से जो व्यक्ति अलिप्त रहता है, उसे ही आत्मा और परमात्मा के मिलन की अनुभूति होती है। प्रभु स्मरण में मानव अपने अहम् को विलय करके अपने शुद्ध स्वभाव को देखता है, तब उसे नैसर्गिक सुख की अनुभूति होती है। जिस सुख के पीछे हम दौड़ रहे है, वह तो मात्र सुखाभास है। आप जिसे खुशी कहते हैं वह तो दुःख के बीच में आता थोडा अंतराल है। धर्म चिंतन में दिव्य आनंद भरा पडा है, इससे आत्म प्रकाश बाहर आता है, यह ऐसा अमूल्य तत्त्व है, जिसके पठन, चिंतन, मनन से कभी थकान नहीं लगती। __ चंदन को जैसे जैसे घिसते हैं, अधिक सुगंध देता है, वैसे ही जीव जब आत्मतत्त्व-धर्मतत्त्व में लीन होता है, जीवन सौरभ महक उठती है, क्यों कि आत्मा की बात स्व-रस की बात है। अपने प्रियजनों, स्वजनों की मृत्यु के पश्चात उनके अपने ही लोग उन्हें चिता में जलाते तो हैं, किन्तु यह ध्यान रखते हुए की कहीं उनके अपने ही हाथ जल न जाएं। यह मानव जीवन की कैसी विडम्बना? जिन स्वजनों के शरीर की हमें इतनी चिंता थी उन्हें ही चिन्गारी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगाकर, उन्हें ही जलाकर अपना कर्तव्य पूरा करने का संतोष मानते है। आखिर तो यह देह हमें छोड़ने वाला है, फिर उसके लिए जीवनभर पाप करना कहाँ तक उचित है? धर्मकथाओं से हमें यही सीख मिलती है। यह काया पुद्गल है, यह पल पल गल रही है, पूरण-गलन इसका स्वभाव है। फूलो के इत्र से या काया कल्पों से भी इसे सदा सुगंधित नहीं रख सकते। ऐसी काया से इतना प्यार? आत्मा की याद भी नहीं? इसीलिए भगवान ने कहा है "तूं अपनी आत्मा को समझ, तभी विश्व और परमात्मा को समझ सकेगा। इस जगत में कुछ भी निंदा या प्रशंसा के योग्य नहीं है, वस्तु मात्र परिवर्तनशील है। प्राज्ञ मनुष्य का काम तो केवल देखना और जानना है। "कर्तृत्वं नान्यमावानाम् साक्षित्वं अवशिष्यते।" यानि की आत्मा वस्तु का कर्ता नहीं पर दृष्टा, साक्षीरूप है, यदि यह बात समझ में आ जाए, तो हम धर्मकथा के श्रवण, चिंतन से धर्म पंथ पर समझदारी पूर्वक अग्रसर हो सकते है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का आराधक इस अथाह भवसागर में मनुष्य भव प्राप्ति अति दुर्लभ एवं कठिन है। जीवन साधनामय रहा तो मनुष्य भव सार्थक। बालक के जन्म के बाद सर्वप्रथम जन्मपत्री बनवाते हैं, उसका आयुष्य देखा जाता है, आयुष्य होगा तो ही संसार में कीर्ति, धन इत्यादि की प्राप्ति हो सकेगी। महान तत्त्व चिंतक भी इस भव रूपी महासागार की विशालता, गहनता का पार नहीं पा सके। जिस तरह जन्मांध व्यक्ति को प्रकाश की कल्पना नहीं होती, वैसे ही अज्ञानी मानव जन्म का महत्त्व क्या समझे? इसका महत्त्व ज्ञानी पुरूष ही समझ सकते है, पशुओं का जीवन कितना यातनामय है, कौन वर्णन कर सकता है ? मनुष्य को थोडा भी कष्ट आए तो लम्बा चौडा वर्णन करता है, मानव शिकायत कर सकता है, अपना दु:ख दूर कर सकता है उसके पास साधन है, सिद्धि है। पशु मूक रहकर सारे कष्ट झेलते हैं। हमें यदि अपने जीवन का दर्शन करना हों, प्राप्य सुखों की कीमत आंकनी हों तो हमें अपने से छोटे लोगों, यहाँ तक कि पशुओं के जीवन के साथ स्वयं के सुख की । तुलना करनी चाहिए तो हमें पत्ता चलेगा की हम कितने सुखी हैं ? वैसे भी इन्सान स्वभावतः सुखान्वेषी है। पर अज्ञानता के कारण वह Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक और नश्वर सुख को ही सत्य मान बैठा है, यही कारण है कि इन्सान हमेशां अपने से उपर वाले धनवानों की और दृष्टि रखता है, दूसरों के सुखों को अपनी कल्पना के मोतीयों में पिरोकर दु:खी होता है। "हाय!' उसके पास इतना, मेरे पास तो कुछ भी नहीं। जीवन सुखमय बनाना है या दुखमय, यह व्यक्ति के अपने हाथों में है। वस्तु में सुख या दुख नहीं है, सुख-दुख उसकी कल्पना, मन और दृष्टि में है। एक वस्तु सुख देती है, दूसरी दुख देती है, कल तक मित्र प्रिय लगता था, आज अप्रिय लगता है, इस परिवर्तन का आधार हमारे भाव है, और भाव हर पल बदलते रहते हैं। __फूल के सौंदर्य को देखकर आँखो में हर्ष के आंसू आ जाते हैं, जब ' मन प्रसन्न होता है। कभी मन विषाद से भर जाता है, वस्तु तो वही है, हमारे भाव भिन्न हैं कभी हम कहते हैं “मैं मूड़ में नहीं हूं।" यानि की मन में विषाद है वह व्यवस्थित नहीं है। अंदर का तंत्र बराबर नहीं हो तो घडी के काँटे कैसे व्यवस्थित होंगे? ठीक वैसे ही चित्त प्रसन्न होगा तो ही मन में शांति होगी। जीवन में सुख-दुःख का सत्कार करो, संयोग वियोग होंगे, दोनो समय मन को समभाव में रखो। इस दुनिया में कौन ऐसा है? जिसके जीवन में केवल सुख है? आम के मधुर रस के साथ करेले की कड़वाहट हों तो आम रस अधिक स्वादिष्ट लगता है। अधिकतम सुख में भी इन्सान अभिमानी बन सकता है और अधिकतम दुखों में भी वह हार जाता है, अत: दोनो का समन्वय करके जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। सच्चा आनंद देने वाला तत्त्व तो उसकी आत्मा में ही समाया हुआ है। __ महान तत्त्वचिंतक टॉलस्टॉय ने कहा है कि दुख तो उस ताप के सदृश है जो आम को पकाकर उसमें मीठा रस भरता है। गर्मी से आम का खट्टा रस मीठा बनता है, इसी प्रकार सुख की उपयोगिता समझने के लिए दु:ख चाहिए। जीवन रूपी आम के खट्टे रस को मीठा करने के लिए दुख रूपी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताप आवश्यक है, सुख दुख जीवन के पोषक तत्त्व है, इनसे हारो मत, थको मत, हिम्मतवान बनो। सर्दी के बाद गर्मी, फिर बरसात यह प्रकृति का क्रम है, मानव जीवन में भी सीधी कटुता नहीं तो (शुगर कोटेड) शक्कर लिप्त कटुता जरूरी है। अकेली मिठाई से तो मधुमेह की बिमारी हो सकती है, इसीलिए जीवन में संपत्ति, विपत्ति दोनो स्वागत योग्य हैं। कहते है कि "सुख मां सोनी सांभरे, दुख मां जागे राम।' जिन्दगी की शाम जब ढलती है, तभी कष्ट आते है, तब आनंद शांति धाम प्रभु का स्मरण हमें होता है। जीवन में सुख-दुख दो पहलू हैं, जीवन रथ के दो पहिये हैं, कभी दुख तो कभी सुख दोनो हमेशां आते जाते रहते हैं। जिस सिक्के के दोनो पल्लू सलामत होते हैं वही सिक्के बाजार में चलते हैं। दोनो परिस्थिति में धीरता, समता रखनी है, तभी जीवन महत्त्वपूर्ण बन सकता है। ___ इन्सान दौलत के पीछे पागल बना है, पर वह जानता नहीं की दौलत जीवन में दो बार लात मारती है- जब आती है, आगे लात मारती है, इन्सान अकड़कर घूमता है और जब जाती है तब पीछे से लात मारती है, इन्सान को कुबड़ा बना देती है। इसके लिए हमें वृक्ष का उदाहरण लेना चाहिए कि इतनी गर्मी में भी वह इतना हरा भरा कैसे रहता है। क्यों की उसकी जड़ें धरती के नीचे शीतलता से भरी हैं। मानव जीवन में उपर से तपस्या तथा अंतर की गहराईयो में भक्ति की शीतलता हों, तो जीवन सदा प्रफुलित रह सकता है। जब अपने ही जीवन को मनुष्य शांतिमय नहीं बना सकता तो विश्व को क्या शांति प्रदान करेगा? अतः हमें जीवन का मूल्य सर्वप्रथम समझना होगा। खूनी और संत दोनों के पास जिन्दगी तो है पर भिन्न है। दोनो की जिन्दगी के उपयोग अलग है, इन दोनों के जीवन का दर्शन करो। अपने स्थान पर खडे होकर, जो हमसे नीचे है उनकी तरफ करूणा तथा प्रेम बहाएँ तथा हम से जो ऊंचे है उनकी और सन्मान, भक्ति भाव रखें। मानव जीवन का यह सुंदर अधिकार है, जिसे हम जानें, अनुभव करें। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ धर्म का अधिकारी अधिकार - यह अपने इस स्वाध्याय ग्रंथ का मौलिक तत्त्व है, इसमें मानव जीवन का रहस्य समाया हुआ है । मानव जीवन यानि जो जीवन हम जी रहे हैं वह ? या जिसका महापुरूषों ने दर्शन किया है, वह ? इस ग्रंथ के पठन, मनन, श्रवण द्वारा हम यह जान पायेंगे कि महापुरूषों के जीवन और हमारे जीवन में क्या फर्क है ? सच्चे मानव जीवन की प्राप्ति अति दुर्लभ है। दूसरे प्राणियों के साथ जब मनुष्यकी तुलना करेंगे तभी हमें मनुष्य जीवन की सार्थकता का पता चलेगा ! व्यक्ति पैसे को ही केन्द्र बिन्दु मानकर स्वयं को सुखी मानता है, परंतु अंधे, लंगडे धनी इन्सान को यदि पूछा जाए तो शायद वे अपने आपको सुखी नहीं मानेंगे, पैसा होते हुए भी। जीवन में पाँच इन्द्रियों की पटुता के साथ साथ अहिंसक कुल मिलना अत्यंत दुर्लभ है। अहिंसक संस्कृति में पले इन्सान का हृदय खून के छीटें देखकर ही द्रवित हो जाएगा, क्योंकि उसका लालनपालन ही अनुकंपामय संस्कृति में हुआ है। भौतिकवाद में वही व्यक्ति मुग्ध होकर घूमता है, जिसे इस संस्कृति का भान नहीं । मद्रास के एक न्यायाधीश के यहां गोरा सुंदर बालक जन्मा । उसके को देखकर सभी प्रसन्न होते थे, परंतु उसके नीचे के सभी अंग अपंग थे, उसका जीवन यातनामय, निरर्थक हो गया था । इसलिए पंचेन्द्रियों की मुख १० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपूर्णता प्राप्त करना महान पुण्योदय है। पंचेन्द्रियों की पूर्णता के साथ विनय विवेक होना भी आवश्यक है। इसीलिए ज्ञानीयों ने कहा है की प्राप्त साधनसामग्री का जितना सदुपयोग करोगे, उतना ही विकास अच्छा होगा, दुरूपयोग से विनाश होगा, विवेक ही सफलता की चाबी है। सुंदर देखना, बोलना, विचार करना और सत्कार्य करना, यह जीवन का आशय होना चाहिए। जब तक हमें मृत्यु के दर्शन नहीं होते, तब तक हम अपने जीवन में न करने योग्य काम करके अपना जीवन व्यर्थ गंवा बैठते हैं। यह मृत्यु एक ऐसा दंड है, जो न झुकनेवाले को भी झुका देती है, यह ऐसी शिक्षक है जो बेहोश को होश में ला देती है। मृत्यु को समझने वाला यह समझता है की जीवन-मृत्यु ये जीवन के दो अखंड छोर है। जन्म से पहले भी जीवन था, और मृत्यु के बाद भी जीवन होगा। अज्ञान व्यक्ति अपने बुजुर्गो, गुरूजनों की अवहेलना करता है, अकड़कर घूमता है, पर ऐसे व्यक्ति का सर एक दिन मृत्यु झुका देती है, और अहंकार की मौत हो जाती है। यहां एक विचारणीय प्रश्न है, “दुनिया में बड़ा कौन? मानव या उसकी परछाई ? उसे कैसा जीवन जीना चाहिए? अपने अंदर बसे हुए चेतन को पहचान कर या परछाई के अनुकूल बनकर?" यह एक बहुत ही गहन अबूझ पहेली है। मानव और परछाई दोनो को इसका जवाब नहीं मिल पाया, तब दोनो . एक सूने मंदिर में गये, वहां मूर्ति नहीं थी प्रश्न की प्रतिध्वनि थी, हाथ जोडकर पूछा, “देव आप ही बताईये कौन बडा? मानव या परछाई?" ___ आवाज आई, “शांत हो जाईये, कोई आ रहा है, मानव और परछाई एक कोने में छिप गये।" तभी एक धनवान आया और बोला “मेरे पास पैसे थे, तब सभी मेरे स्वजन थे, आज पैसेरूपी परछाई नहीं है, तब सभी मुझसे दूर हो गये है।" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोडी देर बाद एक सत्ताधीश आया "मेरे हाथ में जब सत्ता थी, सब मुझे सलाम करते थे, मेरे इर्द गीर्द घूमते थे, आज सत्ता चले जाने पर मेरी कोई कीमत नहीं?'' क्या वाकई दुनिया सत्ता की परछाई को ही नमन करती है? तभी एक धनिक आया, कल तक उसे, "लखा' कहते थे, आज उसे लक्ष्मीचंद कहकर सभा में आगे बैठाते हैं, उसकी वाह वाह करते हैं। उसने नमन करके कहा, "हे मंदिर के देव, तुझे विनती करता हु, मेरी संपत्ति की परछाई को अमर रखना।" जगत में यही नजारा देखने को मिलता है, इन्सान अपने आसन सिंहासन से बड़ा माना जाता है। अपने सच्चे आंतरिक अस्तित्व को दिखाकर नहीं जीता, तब उसकी परछाई उससे बडी बन जाती है। परछाई तो बाह्य वस्तु है, सत्य तो अपना अस्तित्त्व है, परंतु जीवन में उल्टी गंगा बह रही है। इन्सान से अधिक उसके श्रृंगार की कीमत बढ़ गई है। जीवन के दो विभाग है - बाह्य और अंतर। बाह्य खजाना चाहे जितना अधिक हों, उससे सच्चा आनंद नहीं मिल सकता, लोग आकर्षित होंगे पर जब तक आंतरिक ऋद्धि से हम संपन्न नहीं होंगे, सात्त्विक सुख की प्राप्ति दुर्लभ है। आंतर वैभव ऐसा है, जिसे कोई नहीं छीन सकता। अंतर का खालीपन बेचैनी बढ़ाता है, व्याकुल करता है, यह एक खण्डहर जैसा है, जिस में भय रूपी भूत परिक्रमा करते हैं। हमें अपने हृदय को समृद्ध रखना है, अपनी आंतरिक समृद्धि का एहसास दिलाए ऐसे व्यक्तित्त्व की जरूरत है, ऐसे मनन, चिंतन और ध्यान की जरूरत है, ताकी हम अपनी आंतरिक समृद्धि को पहचान सकें, अनुभव कर सकें। कई लोग भूतकाल में ही जीते हैं। यह तो बासी भोजन करने जैसी बात है। वर्तमान ही उपयोगी है, हाँ अपने पूर्वजों के सद्गुण जरूर ग्रहण कर सकते हैं। उधार लेकर जीवन जीना चर्चास्पद बनता है, अपनी जरूरतें मर्यादित करके, जीने वाले के समान कोई सुखी नहीं जगत में। . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ साधु संसारिक वस्तु किसी को देते नहीं और नहीं लेते हैं, तो उनके जैसे निश्चिंत दूसरे कौन हो सकते हैं ? मानव के मन में आज शांति नहीं, स्थिरता नहीं चिंतारूपी चिता उसे खा रही है, क्यों कि इन्सान अपनी सच्ची समृद्धि को भूल कर परछाई का विस्तार कर रहा है । इस में केवल धर्म ही इन्सान के चैतन्य को शांत, सौम्य ओर निश्चिंत बनाता है, जो धर्म का पालन करते हैं, धर्म उनका पालन करता है। जितनी मौलिक साधनों की वृद्धि उतनी दुःख की भी वृद्धि, जितने साधन घटाऐंगे, शांति बढेगी, यदि यह दृष्टि नहीं अपनाएंगे तो कभी अपने ही साधन खंजर बन जाएंगे। जीवन में दु:ख कहाँ से आते हैं ? गया हुआ सुख आंसुओं से वापस नहीं आता, इसलिए तत्त्वज्ञानियों ने जीवन की गहराईयों को टटोलकर हमें एक नई दृष्टि प्रदान की है । दुःख आया तो क्यों आया ? किसने खडा किया ? यह सोचने पर पत्ता चलेगा कि अपने कल्पित सुख में से दुःख का सर्जन हुआ है, प्राप्त साधनों का वियोग होने पर दुःख आ घेरते हैं। कल्पित सुख में विचरने से अल्प आनंद प्राप्त होता है, अल्प समय के लिए, उन साधनों के अभाव में, दुख महसूस होता है, बेचैनी बढती है, क्यों कि इस सुख का आधार क्षणविनाशी वस्तुओं पर निर्भर था। आने वाले दुःखों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है । जब हम अपने निज दोष दर्शन करने की शुरूआत करेंगे, तभी सही रौशनी प्राप्त होगी। प्रभु महावीर के कानों में कीले ठोंके गये, तब भी भगवान ने किसी को दोषी नहीं माना, उन्होंने सोचा पूर्व भवों में मैंने शैय्यापालक के कानों में शीशा डलवाया तो आज यह मेरे कानों मे कीलें ठोक रहा है। “दूसरों को दुःख देने में सुख माना था, अब समतापूर्वक दुख सहन कर लो।" यह एक महान शिक्षा है, साधनों से सुख के मोह में भ्रमित होकर जीने से जीवन शांत, समाधिमय कैसे हो सकता है ? एक उदाहरण याद आ रहा है । एक राजा ने अपने नाई को जरी से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कसीदाकारी की हुई शॉल दी। गाँव में एक आदमी के पुत्र की शादी का जलूस निकलने वाला था, उस आदमी ने नाई से वह शॉल मांगी ओर दुल्हे को ओढाई । नाई को कहा गया, वह किसी को नहीं बताए, मगर नाई के पेट में भला कोई बात टिक सकती है ? उसने सबसे कह दिया “दुल्हे की शॉल मेरी है ।" हालांकि शाल बहुत सुंदर थी, तारीफ के काबिल थी, पर इससे क्या दुल्हे के बाप की ईज्जत बढी या कम हुई ? अपने जीवन में भी अधिकतर वस्तुएँ किराये की हैं, एक दिन इन्हें छोड़कर हमें जाना है, इनसे आत्मगौरव कैसे बढ सकता है ? स्वस्थ मन से अंत:करण की गहराईयों में डूब कर चिंतन किया जाए तभी जीवन की गूढता का दर्शन हो सकता है । अपनी सच्ची आत्मिक संपत्ति से ही शांति प्राप्त हो सकती है। हीरे का प्रकाश उसके सभी पासों में रहता है, ऐसे ही एक महान शक्ति हमारी आत्मा में छुपी हुई है। सत्य, अहिंसा आदि का अंतर - प्रकाश, बाहर की चकाचौंध से ज्यादा प्रभावी है । हमारा कार्य है इस महान शक्ति को प्राप्त करना। सामान्य मानव इन्द्रियों का दास बनकर जीता है, महापुरुष इन्द्रियों को दास बनाते हैं । यदि हम प्रयत्न करें तो, हमारे अंदर भी धीरे धीरे यह शक्ति प्रकट हो सकती है। जंग वाले बर्तन का जंग दूर करने के लिए उसे घिसना पड़ता है, मन को स्वच्छ रखने के लिए मार्जन करना पडता है। व्यक्ति जन्म से महान नहीं, अपने पुरूषार्थ से महान बनता है, आंतरिक प्रकाश को बाहर लाने का प्रयास हमें करना है । जैसा संग वैसा रंग, इन्सान आदतों का गुलाम है, अब आत्मा की अनंत शक्ति को प्राप्त करने, और ज्ञान प्रकाश बाहर लाने के लिए हमें भी आदत डालनी होगी, यानी कि हमें हाथ धोकर पीछे पड जाना चाहिए कि हम अपनी आत्मा के सौंदर्य को कैसे प्राप्त करें ? यह बात हमारे मन में स्पष्ट हो जानी चाहिए कि देह से आत्मा भिन्न है। आत्मा अनंत शक्ति की धनी है, कोई योग्य निमित्त पाकर आंतरिक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ . द्वार खुल जाते हैं, और हमें अपने सच्चे स्वरूप की पहचान हो जाती है। फिर हम इन्द्रियों के गुलाम नहीं रहते और फिर लगने लगता है कि अपार भवसागर में आत्म तत्त्व की पहचान कराने वाला यह मनुष्य जन्म तो अति दुर्लभ है। जिस तरह गरीब इन्सान हीरे पन्ने नहीं खरीद सकता, वैसे ही गुणविहीन व्यक्ति धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति नहीं कर सकता। जिंस आत्मा के पास गुणों की समृद्धि, विवेक का खजाना और पुण्य का कोष होगा, वही धर्म रूपी रत्न को पहचान सकेगा। इस प्रकाशमय तत्त्व की खोज करने के लिए बुद्धि, गुण तथा पुण्योदय आवश्यक है। कहते हैं की चिंतामणि रत्न सब रत्नों में कीमती है, इसके रहते, दूसरे रत्नों की कोई कीमत नहीं। मानवजीवन में भी धर्मरूपी रत्न का स्थान अमूल्य चिंतामणि रत्न जैसा ही है। विश्व में सामान्य वस्तु प्राप्ति के लिए भी, इच्छा तथा संकल्प बल जरूरी है, तो फिर अचिंत्य चिंतामणि रत्न की प्राप्ति हेतु केवल इच्छा से काम नहीं चलेगा, दृढ़ संकल्प होना जरूरी है। दुनिया में कुछ भी अप्राप्य नहीं है, यदि इच्छा तथा संकल्प बल दृढ़ हों तो, जो चाहो मिल सकता है। जितनी इच्छाशक्ति प्रबल उतनी ही सफलता अधिक, आत्मा सर्व शक्तिमान है, वह चाहे तो तीर्थंकर भी बन सकती है। पर इसके लिए पात्रता चाहिए, गडरिये को चिंतामणि रत्न मिला था, पर उसका मूल्य उसने नहीं जाना तथा कौंए को उड़ाने के लिए फेंक दिया। ऐसा भी एक वर्ग है, लोगों का दूसरा वर्ग जयदेव जैसा है, जो अपना सर्वस्व त्याग कर आराधना करता है और धर्म रत्न को प्राप्त करता है। हमें गड़रिये जैसा नहीं, जयदेव जैसा बनकर अपने जीवन में आराधना, साधना कर के धर्म रत्न को प्राप्त करके धन्यतापूर्वक, मानवजन्म सार्थक करना है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंभीरता धर्मरूपी रत्न की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले को अपनी वृत्ति के साथ साथ शक्ति तथा योग्यता का भी विचार करना चाहिए। जिसके पास सद्गुणों का खजाना नहीं है, वह यदि अध्यात्म जीवन की बातें करें, तो वह आत्मवंचना है, तथा समाज को ठगता है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में २१ गुण होने आवश्यक हैं। ज्यादातर लोग तो कल्पना में ही विचरते हैं, वास्तविकता में वे शून्य होते हैं, ऐसे वेशधारी लोग जीवन के उच्च स्तर को नीचे गिरा रहे हैं। धर्म पालने वाले के जीवन में सर्वप्रथम गंभीरता होनी चाहिए, ओछे स्वभाव वाला धर्म पारायण नहीं हो सकता। बातों को, रहस्यों को पचाने की शक्ति होनी चाहिए, सत्य का प्रतिपादन भी सोच समझकर, विवेकरूपी छलनी से छानकर करना चाहिए। कितने ही लोग अपने आप को शंकर के भक्त कहते हैं, परंतु वे शंकर के गुणों को पता नहीं जानते हैं, या नहीं? जो दूसरों का शम (भला) करे वह शंकर। जो जहर पचा सकता है, वही शंकर का सच्चा भक्त बन सकता है, क्यों कि शंकर ने भी स्वयं जहर पीकर दूसरों को अमृत प्रदान किया था। भक्त कहलाने से पहले ईष्ट के गुणों को जीवन में व्यवहार में उतारने की कोशिश करनी चाहिए। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ हम बहुत कुछ अच्छा-बुरा सुनते है। परंतु उसका निर्णय अपने विवेक द्वारा करना चाहिए । एक ही दवा, एक के लिए जहर का काम करती है, तो दूसरे के लिए अमृत बन सकती है। जो कुछ भी सुनें, पढ़ें उसे गंभीरतापूर्वक, विवेक पूर्ण एवं उपयुक्त शब्दों के माध्यम से प्रकट करना चाहिए । वाणी और दृष्टि की गंभीरता के साथ साथ, हृदय सागर जैसा विशाल होना चाहिए। हमारे कहे हुए शब्द कई बार लौटकर हमारे ही पास आ जाते हैं। किसी के लिए अभिप्राय देने से पहले हम यह सोचें कि यदि यह बात उनके कानों तक गई, तो वे क्या सोचेंगे। सोच विचार कर बोलना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। बिना सोचे बोलने से कई बार क्लेश पैदा होते हैं। कौनसी बात, किस संदर्भ में कह रहे हैं, इसका ध्यान होना चाहिए। अक्सर हम पुत्रवधू के लिए कहते हैं, "यह बड़े घर की है।' इसके दो अर्थ हो सकते हैं,याने कि अच्छे खानदान की है, सद्गुणी है। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह कामचोर है, काम नहीं करती। समझदारी पूर्वक बोलने से हम नाहक के क्लेश, झगडों से बच सकते हैं। बात चाहें कैसी भी क्यों न हों? हमें उसे अच्छे शब्दों में भली भांती सोचकर, कहनी चाहिए, जिससे किसी प्रकार का नुकसान न हों, किसी को दुःख न पहुंचे। जानते हुए भी, सत्य होते हुए भी, सब कुछ कहना जरूरी नहीं, हाँ झूठ नहीं बोलना, यह ज्यादा जरूरी है। सत्य को भी विवेक पूर्वक प्रगट करना चाहिए। पुराने समय में राजा के पास ऐसे गुरू, महापुरूष होते थे, जो उन्हें सच्ची राह दिखाते थे। जबसे राजाओं ने ऐसे गुरूओं का पथप्रदर्शन लेना छोडा है, कितने ही पशुता की पराकाष्टा तक पहुंचे और अपना पतन किया है। ऐसा ही एक प्रसंग एक नवाब का है। विदेशी पार्लियामेन्ट का एक सभासद भारतीय राज्य पद्धति का परिचय पाने यहां आया था, वह नवाब के दरबार में गया, नवाब ज्यादा बुद्धिशाली नहीं था, हाँ उसका दुभाषिया बड़ा कुशल था। अब भारत की आबरू रखने का काम दुभाषिये का था। नवाब पूछता है "तुम्हारे राजा कितनी रानीयां Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रखते हैं, उनके कितने बच्चे हैं ? वगैराह। पर दुभाषिया उसके बदले दूसरे ही प्रश्न पूछता, आपकी धारासभा में कितने सभासद है, स्त्रीयों को मतदान का अधिकार है या नहीं? इस तरह उसने अतिथी को कुशलता से प्रश्न पूछे और स्वयं भी ज्ञानभरे उत्तर दिए और भारत की इज्जत बढ़ाई। कहने का मतलब है दुनिया की उल्टी बातों को सीधी करे, वह समझदार। जो बातों ही बातों में आग लगाए, वे धर्म जीवन के लायक नहीं होते। अत : जीवन में गंभीरता का गुण प्रथम आवश्यक है। जल्दबाज व्यक्ति स्व-पर दोनों का नुकसान करता है। किसी की बात उसकी सम्मति बिना कहना उचित नहीं, जो व्यक्ति कुटुंब, संसार तथा जीवन में गंभीरतापूर्वक बर्ताव करता है वही सफलता के सोपान चढ़ सकता है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंभीरता द्वारा आत्म दर्शन धर्मप्राप्ति के अधिकारी बनने के लिए, व्यक्ति में कैसे सद्गुण होने चाहिए? हम इसकी चर्चा कर रहे हैं। धर्म बडी ऊँची वस्तु है, यदि यह गुणविहीन व्यक्ति के पास चली जाए तो वह जगत को ठगने का काम करता है। अपनी कमजोरियां छुपाने के लिए वह धर्म का लिबास पहनकर धार्मिकता का दंभ भरता है, किन्तु उसकी अन्तरधारा एकदम अधार्मिक है। बाह्य रूप से वह धार्मिक होने का केवल ढोंग करता है। स्वर्ण की परख के लिए उसे कसौटी पर घिसना जरूरी है, यदि कोई व्यक्ति अपने सोने को कसौटी पर घिसने की मनाई करता है, तो समझना चाहिए शायद उसका सोना अशुद्ध होगा। वैसे ही बाहर से धर्मी दिखने वाला कितना सच्चा धर्मी है, उसकी भी कभी कभी कसौटी करनी पड़ती है। धर्म पालन से इन्सान देवता बन सकता है, धर्म से पशुता दूर होती है, दिव्यता प्रगट होती है, पर धर्म जीवन में व्यापक बनना चाहिए, तभी यह संभव है। क्रोध, लोभ बगैरह के रंग और उनसे होने वाले असर का नाम भगवती सूत्र में लेश्या दिया गया है। आधुनिक समय में बिशप लेड़बीटर नामक अभ्यासीने इस बात को चित्रों द्वारा बताया है। मन में लोभ के विचार आते ही ऊंगलियां मुर्दे की भांति झुड़ जाती है। इन लेश्याओं का वैज्ञानिक दृष्टि से अभ्यास करना चाहिए। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ से मन दंभी व कपटी बन जाता है। एक इन्सान पीतल के कड़े पर सोने का गिलेट करा के उसे सोना कहकर बेचने जाता है, तो दूसरा मटके में पानी के उपर घी डालता है और तैरते हुए घी व पानी से भरे घड़े को घी का घड़ा ही बताता है, ऐसा यह संसार है। .. ऐसा असत्यमय जीवन जीने वाले का, जब समाज में आगे आने का मन करता है, तब वह भक्त बनकर, महा सत्यनारायण पूजा या शांतिस्नात्र । पूजन पढ़वाता है। फिर मोहमयी नगरी में बसे हुए, साधु के पास जाता है। जो व्यक्ति जीवन की गहराईयो में उतरता नहीं, जिसकी समालोचना, अवलोकन तथा दृष्टिबिन्दु आछे हैं, जो गहराई तक नहीं जाता वह जीवन के सच्चे रहस्यों को नहीं पहचान पाता। मोती प्राप्त करने के लिए सागर तल तक डुबकी जो लगाता है, वही मोती प्राप्त करता है। गंभीर व्यक्ति जीवन के सच्चे मूल्यों का पालन करता है और अगंभीर व्यक्ति धन के लिए सत्य ही क्या? अपने आप को भी बेचने के लिए, तैयार हो जाता है। हम बाहर से कुछ और हैं, अंदर से कुछ और, अच्छा है कि हमारे भीतर के फोटोग्राफ नहीं निकल सकते, कि हम कैसे हैं? ऐसी खोज हुई नहीं, इसी में जगत का श्रेय है। धर्म बोलने की नहीं आचरण में लाने की चीज है। केवल धर्म का बाह्य आडम्बर तारक नहीं बन सकता। जब मृत्यु नजदीक आती है तब केवल आश्वासन रूप धर्म ही एक मात्र तत्त्व है। महान योगीराज आनंदधनजी की भक्ति में यह तत्त्व था, भगवान के गीत गाते गाते उनकी आँखो से अश्रुधारा बहती थी, श्रोताजन भी भक्ति में तल्लीन हो जाते थे। हम भी जब तक धर्म में अपने अस्तित्त्व को भूलकर नीर और क्षीर की भांति एकमेक नहीं हो जाते, जीवन का सच्चा दर्शन नहीं पा सकते। आनंदधनजी विश्व को भूलकर भक्ति में मग्न थे, इसीलिए उनके गीतो में आत्मा के दर्शन होते हैं। व्यक्ति जब अपने कार्य में मग्न हो जाता है तब उसका कार्य ही गीत बन जाता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन यानि परमात्मा-मिलन की यात्रा। मिलने निकले है, फिर स्थल और समय के बंधन कैसे? स्थल, काल और वस्तु (space, time and matter) के पर्दे जब हट जाते हैं, तब आत्मा से परमात्मा का मिलन होता है। भगवान से मिलन यानि अहंकार का गलन, प्रभु से निकट आत्मीय इस जगत में दूसरा कौन है ? जब दुनिया अपने आंसुओं पर हसेंगी, तब केवल अपने अंदर का भगवान ही, इस रूदन को समझेगा और हमें शांति प्रदान करेगा। जब अहंकार विलीन होता है, तब ही आत्मा में हम तल्लीन होते हैं, और तभी आत्मानंद प्राप्त होता है। अकबर ने एक बार हरिदास को अपने दरबार में बुलाया, हरिदास ने सुर छेडे, सर्वत्र आनंद छा गया, पर किसी की आँखो से आह्लाद के अश्रु नहीं निकले। अकबर ने कहा "उस दिन जंगल में मैंने आपको गाते देखा था, तब तो आपकी आँखो से प्यार भरी अश्रुधारा बह रही थी, आज ऐसा क्यों नहीं हुआ?' जवाब मिला, "उस दिन मैं अपने प्रभु को रिझा रहा था, वे अंतर विरह के आंसू थे, पर आज तो जगत और बादशाह को रिझा रहा हूं इसलिए केवल आनंद ही है। आत्मा के इस ज्ञान की भाषा मौन है। जीवन की आंतरिक गहराईओं को पहचानने के लिए गंभीरता चाहिए। अपने आप को बेचकर आज इन्सान हँसी शायद प्राप्त कर ले- पर कल रोना पडेगा, आसानी से आनंददायक वस्तुओं का मूल्य प्राय : आंसुओं से चुकाना पडता है। जीवन का महत्त्व लेने में नहीं, देने में (त्याग में) है। आत्मज्ञानी से अधिक धनवान कोई नहीं है, क्षुद्रता का त्याग यानि गंभीरता। आत्मप्राप्ति के लिए गंभीरता आवश्यक है, जो भौतिक सुखों के लिए बिकता नहीं, वही महान है। प्रलोभनों के सामने खड़े रहने की शक्ति उसमें आती है, और घर्षणों में से भी जीवन का नवनीत वही प्राप्त कर सकता है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्रता का त्याग क्षुद्रता का निषेध और विधेय हमें समझना है, साथ ही गंभीरता का भी। विश्व में कोई स्थान ऐसा नहीं है जो खाली हों, इसलिए क्षुद्रता रूपी कौए को त्यागकर गंभीरतारूपी राजहंस पर सवार होना है। गंभीर व्यक्ति ही दुनिया में मान प्राप्त करता है, बाकी तो हर छोटी छोटी बातों में क्लेश करने वाले लोग उन्तीस दिन का प्रेम एक ही दिन में गंवा बैठते हैं। क्षुद्र व्यक्ति हर प्रसंग में दुःखी होता रहता है। दूसरों की भूलों को नजरअंदाज करने वाला व्यक्ति ही जीवन में प्रगति कर सकता है। हम कहीं गये, किसीने सत्कार नहीं किया, तो मन, स्वभाव बिगड जाता है, क्रोध आने लगता है, मन गमगीन हो जाता है, परिणाम यह आता है की मन का क्षेत्र संकुचित बनता जाता है। आनंद को समाने के लिए हृदयस्थान - पात्र, विशाल होने चाहिए। इसके लिए “भूल जाओ और क्षमा कर दो।" (Forget and Forgive) यह मंत्र जीवन में बहुत सहायक बन सकता है, पर कब? जब हृदय में विशालता हों। यदि राग, द्वेष की गांठो से मन ग्रसित है, तो मन में आनंद के लिए स्थान कहाँ ? इन्सान स्वयं ही दु:ख के बीज बोता है और फिर दुःखी होता है। अधिक खाने से बदहजमी होती है, वैसे ही गंभीरता न अपनाकर क्षुद्रता भरा स्वभाव रखता है, फिर दुखी होता है। इसलिए कहा गया है कि, २२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ "मन में ज्ञान ज्यादा भरो और पेट में अन्न कम भरो।" यदि मन में अच्छे विचार होंगे तो वाणी में, वृत्ति में भी सुन्दरता ही होगी। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बीती बातों को याद करके मन ही मन दुखी होते हैं। सच बात तो यह है कि बातें रोचक न हों तो, उन पर काल रूपी धूल डालकर उन्हें भूल जाना चाहिए। घाव को बार बार कुरेदने से फिर से ताजा हो जाता है, इसी तरह अनैच्छिक, अनपेक्षित प्रसंगो को भूलना ही बेहतर है। बिना कारण हमेशां जो लोग रोना रोते रहते हैं, उनकी आत्मा पर ज्ञानियों के अमृतवचन भी कुछ असर नहीं कर सकते। जीवन क्षमा गुण से ओत-प्रोत होना चाहिए। अगर कुत्ता आकर हमारा मुँह चाटता है, तो क्या हम वापस उसका मुँह चाटते हैं ? "जैसे को वैसा" कहकर? नहीं। हम कुत्ते को माफ कर सकते हैं तो इन्सान को क्यों नहीं? अपना धर्म बुरे के साथ बुरा होना नहीं सिखाता। मुर्ख इन्सान से भला हम क्या आशा रख सकते हैं? उसके पास कुछ है ही नहीं, तो क्या देगा! उसके प्रति तो करूणा भाव रखना चाहिए। कोई बड़ा व्यक्ति छोटी छोटी बातों से परेशान हो जाता है, कोई टीका करता है तो वह दुखी हो जाता है। उसे तो सोचना चाहिए कि सामने वाले व्यक्ति ने मुझे अपनी गल्ती सुधारने का अवसर दिया है, तो मुझे उसको धन्यवाद देना चाहिए। “यदि मैं खराब हूं ही नहीं तो फिर चिंता क्यों करूं।" ऐसी छोटी २ बातों से मन को तंग नहीं बनाना चाहिए। इसके लिए गंभीरता जरूरी है, इसके आने से दो गुण खिलेंगे, सूक्ष्मबुद्धि तथा क्षमा देने की शक्ति। एक व्यक्ति ने एक बार प्रतिज्ञा ली की वह साधु की सेवा करके ही खाना खाएगा। एक दिन उसे ऐसा कोई साधु नहीं मिला, जिसकी वो सेवा कर सके। मन ही मन वह बड़बड़ाने लगा "भगवान आज कोई साधु बिमार नहीं पड़ा, जिसकी मैं सेवा कर सकू।" उसकी प्रतिज्ञा तो अच्छी थी पर उसमें बुद्धि की सूक्ष्मता नहीं थी, इसलिए अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए साधु की बिमारी की इच्छा की। ऐसे इन्सान में गंभीरता न होने से वह कभी कभी अच्छाई की जगह बुराई कर बैठता है। सूक्ष्म बुद्धि धर्म का प्रथम सोपान है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपूर्ण अंगोपांग धर्म का दूसरा सोपान है संपूर्ण अंगोपांग । जिसके शरीर की रचना सुव्यवस्थित हों, पाँचो इन्द्रियां परिपूर्ण हों, धर्म आराधना उसके लिए सरल बन जाती है। आवश्यक गुणों में संपूर्ण अंगोपांग को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । गूंगा व्यक्ति अपने भाव व्यक्त नहीं कर सकता । इन्सान जितना इन्द्रियों का गुलाम होगा उतना ही दुखी होगा । हमें अपनी प्रवृत्तियां जहाँ हर संभव हो सके वहाँ तक स्वयं ही करनी चाहिएं, क्यों कि काम करने की आदत छूट जाती है, तो शरीर अकड़ जाता है, कई बिमारियां आ घेरती है । इन्सान जितना आदतों से मुक्त, उतना ही वह स्वाधीन, हमें अपनी पंचेन्द्रियों को यदि सुंदर और स्वस्थ रखना हो तो जीवन में संयम तथा शरीर को प्रवृत्तिशील रखना चाहिए । ८ शरीर सुंदर होने के साथ साथ सुगठित भी होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो वह इन्सान तप, सेवा आदि सुचारू रूप से नहीं कर सकेगा,. ऐसा व्यक्ति यदि तीर्थयात्रा करने भी जाए तो उसे डोलीवालों को ही तकलीफ देनी पडेगी । (( इसीलिए ज्ञानीयों ने कहा है, 'आरूग्ग- बोहिलाभो” शरीर और मन का उत्तम स्वास्थ्य ही उत्तम जीवन है । मन तथा देह की अस्वस्थता ही मृत्यु २४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अत : शरीर के प्रति भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, नहीं तो फिर पछताना पडता है। तप, जिंदगीरूपी यंत्र में तेल सिंचन का काम करता है, उपवास, मन तथा शरीर को स्वस्थ रखने का साधन है। नेचरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा)ने भी यह सिद्ध कर दिया है, कि उपवास कई रोगो को मिटाने में औषधि का काम करता हैं। धर्म आराधना में स्थिरासन भी अत्यंत जरूरी है। यह शक्ति हमें तभी प्राप्त हो सकती है जब माया के प्रलोभनो में भी हम अडिग रहें। सशक्त शरीर के साथ दृढ मन, तथा अंगो की परिपूर्णता के साथ मन की पूर्णता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । बीमार शरीर, बीमार मन, स्वयं को परेशान तो करता ही है, दूसरों पर भी बोझरूप बनता है। धार्मिक व्यक्ति को एक और बात याद रखनी है, कि आत्मा शरीर से भिन्न है, परंतु जब तक यह शरीर में है, तब तक शरीर इसका रथ है, इन्द्रियां अश्व हैं, मन सारथी और आत्मा रथी है। इन्द्रियों को अंकुश में रखकर ही हम मोक्षरूपी ध्येय तक का सफर तय कर सकते हैं, इससे विपरीत यदि इन्द्रियरूपी अश्व बेलगाम हुआ तो पथ से भटकने के साथ-साथ दुर्गति भी हो सकती है। हमें आँखे प्रभु के निर्मल दर्शन करने के लिए मिली हैं, आँखो का स्वभाव देखना है, वह देखे, मगर मन पर उसकी छाप नहीं पडने देनी चाहिए। इसका विवेक हमें ही रखना है। धर्मी होने का मतलब यह नहीं कि, आँख बंद करके चलना या सुंदरता का दुश्मन हो जाना। धर्मी व्यक्ति तो सदा खुश रहता है, जहाँ से भी निर्दोष आनंद मिलता है, उसका आस्वाद लेता है। इन्सान को भी बालक की भांति निर्दोषता में जीना चाहिए, बालक रेत में खेलता है, उसी की मिठाई परोसता है, और आनंद मनाता है। मानवीय भोग भी धूल की मिठाई जैसे हैं, धूल से बनाया हुआ महल तोड कर, बालक खुश होता है। तथा भोगों में आसक्त मनुष्य घर टूटने पर रोने बैठता है, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ फर्क केवल इतना ही है। _ व्यक्ति को भ्रम है कि बाह्य वस्तुओं में आनंद समाया हुआ है, जो भ्रम को ज्ञान समझते हैं वे ज्ञान में अपूर्ण हैं। हमारे भीतर लोभ घर कर गया है, क्यों कि अस्थायी को हमने चिर स्थायी माना है। वैसे सोना बहुत कीमती माना जाता है, परंतु हकीकत में इसकी कीमत शून्य है, क्यों कि रेगिस्तान में प्यास लगी हो तो क्या सोना प्यास बुझा सकता है? वहां तो पानी ही काम आता है। मोहम्मद गजनी के कई लोग रेगिस्तान में मर ही गये थे न। सोना उनके पास था तो भी । क्यों कि उस समय पानी नहीं था। प्यास बुझाने के लिए। सोने के लिए पलंग उपयोगी है, क्या सोने की पाट पर शांति से नींद आ सकती है भला? ___हम सबके जीवन में मोह की काली परतें इतनी मोटी चढ़ गई हैं कि ज्ञान प्रकाश के पुंजरूप आत्मा का प्रकाश बाहर ही नहीं निकल पा रहा। ऐसे पदार्थो को जिन्हें छूना भी बुरा माना जाता है, यह विवेक हमारे अंतरचक्षु के खुलने पर ही आ सकता है। पैसे के साथ-साथ कई बार दुख, दंभ भी आ जाता है, धर्म दूर रह जाता है। जीवन में विवेक शून्यता आती है, आत्मा की अधोगति होती है। बहुत कम, कभी कभार ही पैसा, व्यक्ति को पुण्य के मार्ग पर जाने देता है। अत: इन्द्रियों की पटुता, धन संपत्ति जिन्हें मिलें हों, उनका व्यवहार विवेकयुक्त होना चाहिए, साथ-साथ सम्पूर्ण अंगोपांग भी सहायक गुण है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति सौम्यता प्रकृति सौम्यत्व, यह तीसरा सोपान है, इस गुण को धारण करने वाला जहाँ भी जाता है वहाँ सर्वत्र शांति और आनंद छा जाता है। प्रकृति सौम्य रखना और नि:स्वार्थी बनना यह विशिष्ट गुण है। __ स्वभाव में कोमलता आने पर इन्सान अपनी भाषा और प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेता है। उसके जीवन में सौम्यता ऐसी स्वाभाविक हो जाती है कि उग्र स्वभावी इन्सान भी उसके सानिध्य में शांत हो जाता है। क्षमाशील इन्सान हमेशा उदार व विशाल हृदयवाला होता है, इसीलिए जब संगम, भगवान के चरणों में आया, तब प्रभु ने आँखो से दो बूंद आंसू टपका कर क्षमा प्रदान की। इन्सान अपने स्वार्थ का त्याग तभी कर सकता है, जब वह दूसरों के दु:ख को अपना मानता है। फिर उसका तप भी स्निग्ध तथा प्रेमपूर्ण बनता है, और ऐसे तप से उसमें दिव्यता प्रगट होती है। जिसकी आँखे करूणा से नम बनी हों, वह खरा इन्सान है, जो लेता नहीं देता है, वह अपनी उदारता से दूसरों का दिल जीत लेता है, धर्म के इस अंश की प्राप्ति के लिए, हृदय को कोमल बनाना जरूरी है। एक तरफ हम विश्व युद्ध की निंदा करते हैं और दूसरी और छोटी छोटी बातों के लिए युद्ध करते हैं। हमें याद रखना चाहिए की पत्थर का छोटा कंकर भी तालाब में डालने से अंदर लहर पैदा करता है, वह तालाब २७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ के दूसरे किनारे तक पहुंचता है। जीवन के छोटे मोटे वाद-विवाद, आंदोलनों के दूसरे किनारे तक पहुंचते हैं और विश्व युद्ध के वातावरण का निर्माण करते है। ___ कुदरत के लिए सभी समान है, वहां गरीब अमीर का कोई भेद नहीं। विश्व में यदि शांति स्थापित करनी है तो हमें अपनी प्रकृति सौम्य बनानी पडेगी। जीवन की गहराईयों तक यह तत्त्व घुलेगा तभी हम समझ सकेंगे कि जीवन में उग्रता अग्नि है, सौम्यता चंदन है, हमें उग्रता त्याग कर सौम्यता ग्रहण करनी है। जिस व्यक्ति में गंभीरता नहीं, वह सौम्य नहीं बन सकता, सौम्य बनने के लिए किसी प्रकार के बाह्य दिखावे की जरूरत नहीं। सिर दुखता हों तो मरहम भी लगा सकते हैं, साथ साथ उसके मूलभूत कारण, कब्ज वगैराह दूर करने के लिए, आंतरिक दवाई भी ले सकते है, ज्ञानीयों ने हमें बाह्य के साथ-साथ आंतरिक दवाईयां भी बताई है। जो आदतें हमारे रक्त के साथ एकाकर हो गई हैं उनका निग्रह कैसे करेंगे? इसीलिए कहा है- “प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह : किम् करिष्यति।" आदतों की जड़ें इतनी गहरी हो जाती हैं, कि उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होता है। हम बाहर से नियंत्रण करते हैं पर थोडे ही समय में, निमित्त पाकर फिर उछलती हैं, इसे ही आघात-प्रत्याघात कहते हैं। जो लोग क्रोध का त्याग करते हैं, उनकी प्रकृति ही ऐसी सौम्य बन जाती है, कि फिर हर कार्य शांतिपूर्वक होता है। वाणी में से सौम्यता के ही सुर निकलते हैं। पुराने समय में कई ग्रंथों की रचना, ऐसे सौम्य, स्वमानी संतो ने की है, जिनके पठन, श्रवण से शांति का अनुभव होता है। आज तो कई लेखकों के लेखन में तृष्णा की आग छिपी होती है जो जिंदगी में असंतोष पैदा करती है। पहले के ब्राह्मण भी संतोषी थे, आज ब्राह्मण “भामण' हो गये हैं इनकी संस्कृत वाणी में आज सुंदरता कहाँ रही है? संस्कृत तो ऐसी लयमय एवं दिव्य वाणी है कि सुनकर मन आनंद विभोर हो जाता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ हम देह धारी हैं, देह के साथ उसकी जरूरते भी होती है, पर उनपर मर्यादा रखना ही विवेक है। पहले के लोग श्रमण एवं ब्राह्मण "मांगना और मरना' समान गिनते थे, त्यागियों का काम था, भौतिक वस्तुओं के प्रति उपेक्षा भाव तथा रागियो का काम था त्यागियों की सेवा करना। आज तो साधु मांगते है, तब धनिक लोग समझते हैं कि पैसे से साधु भी खरीदे जा सकते हैं। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन्हें खरीद सकते है, वे सच्चे त्यागी नहीं है, लोभी हैं, दंभी है। सच्चे साधु को खरीदने के लिए व्यक्ति में सच्ची साधुता होनी चाहिए। महान विद्वान “कणाद" जैसों का ध्यान रखना. उस काल के राजाओं का काम था। राजा ने स्वर्णमुद्राओं से भरा थाल उनके सामने रखा, पर कणाद तो अपने सर्जन में मस्त थे, उन्होने उन स्वर्णमुद्राओं पर एक नजर भी नहीं डाली। जब तक इन्सान अपने कार्य में आत्म विलोपन नहीं करे, तब तक उस काम में प्राण नहीं फूंक सकता, नही उसका सच्चा आनंद प्राप्त कर सकता है। प्रेम के साथ-साथ अर्पण और सेवा का भाव भी होना चाहिए, माता अपने बालक को दूध के साथ-साथ प्यार भी पिलाती है, जब कि आया केवल दूध पिलाती है। जब बालक को ऐसा मातृ प्यार नहीं मिलता तब उसका मानस विकृत हो जाता है। प्यार के अभाव में उसके मन में पलने वाली वितृष्णा समय पाकर और तेजोदीप्त हो उठती है। फिर उसका हर कार्य हर सोच नकार को बढ़ावा देने वाला होता है। हमें अपना प्रत्येक क्षण, ध्येयपूर्वक जीना चाहिए, जो लोग ऐसे आदर्श को सामने रखकर जीते हैं, उन्हें जीवन में नीरसता कभी नहीं सताती। कणाद ने स्वर्णमुद्राओं के थाल को ठुकराया तब राजा ने रत्नों का थाल हाजिर किया, परंतु कणाद तो संतोष के स्वामी थे, इन रत्नों से भला उन्हें क्या आनंद मिल सकता था? उनकी प्रसन्नता तो प्रेम और सेवा में थी। भौतिक वस्तुओं का आकर्षण तो साधु को भी मन से भिखारी बना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० देता है। सच्चे साधु तो संसार रूपी बगीचे में खिले पुष्पों पर गुंजन करने वाले भ्रमर हैं, जो किसी भी पुष्प को छुए बिना, उसे पीडा पहुंचाए बिना, आनंद प्राप्त करते हुए, अपनी तथा दूसरों की आत्मा को, परितृप्त करते हैं। विहरते हैं। सच्चे साधु जिनकी आत्मा में त्याग का रंग भरा हुआ है, वे सभी विघ्नों का प्रसन्नतापूर्वक सामना करते हैं। परंतु आज के कई साधुओं की साधुता का रंग कच्चा होता है। हमें तो चित्र की अविकल्प दशा प्राप्त करनी है, प्रभु भक्ति की सच्ची प्रभावना बिना, धर्म अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती। राजा सोचता है कणाद के पास भला ऐसा क्या है? रात को राजा कणाद के पास आता है, उसके पाँव दबाता है, कणाद उठ जाता है, पूछता है, “हे राजन! आप मेरे पाँव दबा रहे हैं?" मेरे जैसा भिखारी जो दिन में भी आपके वहां भीख मांगने नहीं आया, उसके पास रात को अनुचर के वेश में क्यों आए हो?" राजा कहता है, "आप स्वर्ण सिद्धि जानते हैं, मुझे बताईये।" कणाद ने हँसकर कहा “परमात्मा ही पारसमणि है, जो जीवनरूपी लोहे को स्पर्श करे तो काया स्वर्ण स्वरूपी बन जाए।" राजा की समझ में यह बात आ गई, कि सोने की सिद्धि से भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती, सोने की दीवारें मृत्यु को नहीं रोक सकती। आत्मा रूपी लोहे के साथ परमात्मारूपी पारसमणि के संयोग से आत्मा परमात्मा स्वरूपी बन जाती है। जिसे संतोषरूपी स्वर्ण मिल जाए, उसके जैसा धनाढ्य कोई नहीं, संतोष ही सुख है। क्रोध, मान, माया, लोभ जीवन में दीमक के समान है, इनके उपर विजय प्राप्त करने से हाथ में खरोंच लगने की संभावना है, जब कि लकडी को चिकना बनाकर हाथ फेरने में कोई भय नहीं। इसी तरह प्रकृति का सौम्यत्व दिल और दिमाग की कोमलता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सौम्यत्व के साथी इस धर्मरत्न की विशेषता यह है कि एक के बाद दूसरे सद्गुण क्रमश: आ ही जाते हैं, केवल एक सद्गुण का पठन, चिंतन, श्रवण दूसरे सद्गुणों को आकर्षित कर ही लेता हैं। जीवनरूपी रेल गाडी में एक सद्गुण रूपी ईंजन जुड जाए, तो दुसरे सद्गुण रूपी डिब्बे स्वत: ही जुड जाते हैं। इसके लिए अनुरूप वातावरण का सर्जन करना चाहिए, ताकि सद्गुणों का प्रवेश जीवन में होता रहे, और दुर्गुण निकलते जाएँ। सच ही कहा है कि पुस्तकों का पठन, मित्र और अच्छा वातावरण इन्सान के जीवन सर्जन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अच्छा स्वाध्याय होना चाहिए, ताकि मन में अच्छे विचार आएं, मिट्टी के घडे में भी हम हल्की चीज या कचरा नहीं भरते। तो क्या? उस घडे से भी हमारा दिमाग गया गुजरा है कि ऐसे हल्के विचार, भरें? हमें खराब बातें सुननी ही नहीं चाहिए, क्योंकि फिर उन्हें दिमाग से निकालना कठिन होता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि, “मनुष्य में मनुष्यत्व का पनपना उसके कुल के संस्कारो का परिणाम है। मन अत्यंत ही संवेदनशील होता है। बुरी आदतें अथवा बातें जो मन को लुभाती हैं, जल्दी ही मन उनकी और आकर्षित हो जाता है कारण कि इन्द्रियो को वह सुखकर प्रतीत होता है। यदि जन्म ३१ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जन्मान्तर के संस्कार अच्छे हैं तो यह बातें शीघ्र असर नहीं कर पाती किन्तु यदि जरा भी कुसंस्कारों की छाप है तो इन्द्रियां उस और मुड़ जाती है और मन रस लेने लगता है।" बहुत समय बाद ये बातें अगर निकल भी जाएं, तो भी छाप छोड जाती हैं। मानस शास्त्र के ऐसे संशोधन जीवन दर्शन की साधना के प्रतिघोष हैं। आज व्यक्ति के विचार, हल्की पुस्तके पढने से विकृत बने हैं। जैसा तैसा खाने से - पानीपूरी, भेलपूरी, पकोडे रोज खाने से बिमारी आती है, वैसे ही दुर्वांचन से दिमाग बीमार होता है। थोडा पढ़ो मगर अच्छा पढ़ो। व्यक्ति के लिए विचारात्मक सर्जन की कल्पना प्रतिक्रमण में रखी गई है। घटिया इश्तिहारों से लोगों के दिमाग खराब हुए है। सद्वांचन वही है, जिसके पढने से देहाशक्ति कम हों, आत्मा की जलकमलवत् अलिप्तता बढ़ती जाए और हमारे जीवन में महान आदर्श जन्में। हमारी धर्म क्रियाओं के अंध अनुकरण के बदले उसके अर्थ को जानें, व सभी क्रियायें भाववाही बनें। ध्यान रहे - जिन्दगी कैमरे की नेगेटिव फिल्म जैसी है, प्रकाश की एक किरण भी उस पर गिरे तो वह वस्तु के प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर लेती है। सृजनात्मक विचारों से दिमाग में आदर्श संवेदन उभरेंगे, जो आत्मा के साथ एकाकार होकर संवादमय संगीत का सर्जन करेंगे। हम बैठे बैठे ही तीर्थों के दर्शन, कल्पना द्वारा कर सकेंगे, ऐसी जागृति, एकाग्रता आने से मन शांत और मधुर वातावरण में विचरने लगेगा। हमारे विचार भी पुष्प की भांति सदा सद्गुणों की सुगंध से महकते ही रहेंगे। __मन एक सुंदर वाद्य साज है, इसको जानकर तारों को छेडे तो मधुर झंकार ही निकलती है, अत: मन, वचन, काया तीनों की योग रूपी संवादिता जरूरी है। जहां संवादिता, वहां सुख, जहां विसंवादिता वहां दु:ख है। तबलची का ताल और संगीत के सुरों की लय संवादिता उत्पन्न करती है, और ऐसे संवादमय वातावरण में मन आनंदमुग्ध बन जाता है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ मन, वचन, काया तीनों का संवाद होना चाहिए । विचार, वाणी तथा क्रिया एक समान होंगे, तभी जीवन का सच्चा योग होगा । पियानो सुंदर है, इतना ही काफी नहीं है, उसे बजाने वाला भी होना चाहिए वरना वह केवल दिवानखाने की मात्र शोभा रूप बनकर ही रह जाएगा। एक मंदिर में पियानो बहुत वर्षो से पडा था, कोई बजाने वाला नहीं था, एक दिन एक बजाने वाला आया और अपनी ऊँगलियों के स्पर्श से सुर छेड़ा। सारा वातावरण संगीत के सुरों से झंकृत हो उठा, सभी भक्तजन भाव विभोर हो गये। ऐसा क्यों हुआ ? बजाने वाला संगीत का जानकार था, ही बजाने में मन एकाग्र था ! साथ पियानो यानि कि हमारा मन मंदिर, हम भगवान को कहते हैं, “प्रभुजी मन मंदिर में पधारो।” परंतु प्रभु को मन मंदिर में लाना है, तो मंदिर को शुद्ध भावों रूपी धूप से, शुभ विचारों की सुगंध से महकाना होगा । मन अत्यंत कीमती साज है । वाणी और कर्म के योग से ही यहां साज बजाया जा रहा है। दोनों मे जब एकरूपता होती है, परस्पर संवादिता स्थापित होती है तभी मधुर संगीत जन्म लेता है । मन से उठने वाली इस आनंदमय स्वर लहरियों से आत्मा भीग उठती है और फिर वह परमानंद में गोतें लगाने लगती है । इन्सान जहां है, वहीं उसे अपने स्वभाव को बदलना चाहिए, कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए । जब तक आंतरिक स्वभाव में परिवर्तन न हों जीवन में परिवर्तन मुश्किल है। "छप्पन तीरथ करी आवे, पण श्वानपणुं नव जाय।” जीवन से क्रूरता नामक तत्त्व बाहर निकले और सौम्यता गुण खिले, इसी को प्रकृति सौम्यत्व कहते हैं। दूसरों की तरक्की, सुख देखकर, इर्ष्या नामक दुर्गुण जिसे श्वानपना कहते हैं, उसे दूर करना अपने जीवन का ध्येय होना चाहिए । जब मन क्रोधी, अशांत होता है, वश में रखना मुश्किल होता है, उस समय हमें बाहर न देखकर, अपने भीतर झांकना चाहिए, मन क्रोध के Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ वश क्यों हुआ? यह पूछना चाहिए। शांत चित्त से विचार करेंगे तब समझ में आएगा कि क्रोध तो विसंवाद है, इसमें इन्सान पागल हो जाता है, वह क्या बोलता है, उसे स्वयं नहीं पता होता। समझदार इन्सान वही है, जो ऐसे समय में चुप रहे। पुराने समयमें समझदार लोग घर में एक खंड रखते थे जिसका नाम होता था 'शान्तिगृह'। उसमें शांति और संवादिता के प्रतीक रखे जाते थे। जब किसी को क्रोध आता, उस खंड में जाकर बैठता, उन प्रतीकों को देखकर क्रोध स्वतः शान्त हो जाता। मित्रों का चुनाव भी विवेकपूर्वक करना चाहिए, बुरी संगत इन्सान को बेआबरू कर सकती है, संकट के समय में सही प्रेरणा देकर काम आएं, ऐसे लोगों की ही मित्रता करनी चाहिए। - विचारों का जिस तरह मन पर अच्छा-बुरा असर होता है, वैसे ही अच्छे पुस्तक, अच्छे मित्र, अच्छे गीत, अच्छे चित्रों का यानि की सम्पूर्ण अच्छे वातावरण का मन पर असर होता है। स्वस्थ जीवन बनाने के लिए सर्वप्रथम मन में से राग, द्वेष रूपी कचरा बाहर फेंकना होगा। सौम्य प्रकृति का व्यक्ति कभी किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ता। खानदान एवं कुल के अच्छे संस्कार तथा अच्छे गुण हमें बुरा बनने सें, बुरा करने से बचाते हैं। अच्छे संस्कारों से युक्त कुल महान पुण्योदय से प्राप्त होता है। चलो हम भी मानसिक बल एकत्र कर, अपने संस्कारो द्वारा चंदन सी शीतलता, सुगंध एवं शांत सौम्यत्व की सुरभि सर्वत्र फैलाए। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ जीवन परिवर्तन जो धार्मिक बनना चाहता है, उसके पास सद्गुणों की संपत्ति होनी आवश्यक है। गुण हों और ख्याति प्राप्त हो वह तो ठीक है, बाह्य आडम्बरों से सच्ची ख्याति प्राप्त नहीं हो सकती, सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए सद्गुण तो प्रथम पायदान है। इस काया रूपी मिट्टी के पुतले में सद्गुण तो सोने के समान है। आज तक जिसे हमने धूल माना है, वह सुंदर से सुंदर आंतरिक तत्त्व है, इन सद्गुणों की प्राप्ति द्वारा हम काया रूपी मिट्टी को सोने के समान बना सकते है । इस संसार का बाह्य खजाना व्यर्थ है, एक दिन उसे छोडकर जाना है। हमारे भीतर परमात्मा तत्त्व रूपी खजाना मौजूद है, उसकी ज्योति प्रगट करनी है। जीवन अंधकारमय लगता है, क्यों कि उस ज्योति को हमने पहचाना नहीं है, जलाया नहीं है, उसके प्रगट होते ही, इसलोक तथा परलोक में दिव्य ज्योति व्याप्त हो जाएगी। इस सफलता की प्राप्ति के लिए गंभीरता, तुच्छता का त्याग, तंदुरस्त शरीर, संपूर्ण अंगोपांग, राग द्वेष से परे, स्वभाव की निर्मलता वगैरह गुणों को आवश्यक माना गया है। व्यक्ति जब अपने स्वभाव को समझने लगता है, तब धीरे-धीरे उसके स्वभाव में परिवर्तन आने लगता है। वैसे तो जब किसी को सन्निपात उठता है, तब ज्ञानी और गंवार दोनों की स्थिति समान होती है । वैसे ही जब काम, ३५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ क्रोध, मान, माया, लोभ जागृत होते हैं तब त्यागी और रागी, साधु और गृहस्थ में कोई फर्क नहीं रह जाता। कषाय का यह सन्निपात जब मिटता है, तभी उसे भान होता है कि वह कौन है ? और क्या कर रहा है ? हम दुनिया के साथ जुडे हुए हैं, अलग नहीं हैं, जिस दृष्टि से हम दुनिया को देखते हैं, उन्हीं नजरों से दुनिया हमें देखती है। इसीलिए कहा है, “आप भला तो जग भला ।" इन्सान का स्वयं का जीवन सुंदर तो जगत सुंदर । एक धोबी कपड़े धो रहा था, साधु वहां से गुजर रहे थे, साधु पर पानी के छींटे उड़े। उन्हें क्रोध आया और हल्के शब्दो से धोबी को फटकारा । धोबी को भी गुस्सा आया, उसने गालियां देते हुए साधु से कहा, "यहां क्यों भटक रहे हो ? तलाब के पास पानी नहीं उडेगा, तो क्या पत्थर उडेंगे ?" ऐसा कहकर साधु को धक्का मारा । साधु थोडी दूर जाकर, स्वस्थ होकर सोचने लगे " दोष तो मेरा ही था । " फिर उन्होंने धोबी को खमाया । धोबी को भी इस बात का एहसास हुआ और गल्ती के लिए साधु के पैरों मे गिरकर माफी मांगी। इन्सान जब आवेश में आता है, दुसरों को कष्टदायक हल्के शब्द बोलता है। जब सन्निपात उतरता है तब साधु, साधु की भांति व्यवहार करता है । हमें आवेश पर संयम रखना चाहिए । क्षमा से क्षमा, समता से समता और क्रोध से क्रोध का उद्भव होता है। इन्सान त्याग और साधुपन को नमन करता है। मान का आवेश, गर्व लाता है, इन आवेशों के शमन होने पर ही सही समझ आती है ओर विचारधारा सही दिशा में बहने लगती है । जिस इन्सान को इन बातों का ज्ञान है, उसका उद्धार तो कभी संभव हो सकेगा, क्यों कि सुना हुआ, चिंतन किया हुआ फिर कभी जागृत होगा और आत्मा को भी जगाएगा, सत्संग का यह महान लाभ है। ज्ञानी पुरूषों के सद्वचनों के श्रवण मात्र से ही कभी कभी उत्थान की महत्त्वपूर्ण भूमिका बन जाती है। गर्म तवे पर पानी की बूंदे डालते रहने से कुछ बूंदे तो जल Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ जाएंगी, पर बाद में बूंदे पानी के रूप में तवे पर दिखाई देंगी। जो बूंदे जल गइ उनका त्याग व्यर्थ नहीं गया। उन बूंदोने तवे को ठंडा किया, तब बाद की बूंदे पानी के रूप में बची। समर्पण कभी व्यर्थ नहीं जाता, श्रवण, मनन रूपी समर्पण का भी जीवन में यही स्थान है। काम की शुरूआत करते ही हम कहते हैं, 'काम किया' जब से हम जीवन परिवर्तन की शुरूआत करते हैं, हमारा पथ प्रकाशित होने लगता है। धार्मिक जीवन यानि कि, “आंतरिक सूक्ष्म परिवर्तन।" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक व्यक्ति लोकप्रिय बनना पसंद करता है, बदनामी किसी को प्रिय नहीं। यह महत्त्वकांक्षा छोटे बालक से लेकर बूढ़े व्यक्ति तक में पाई जाती है, फिर भी हम लोकप्रिय क्यों नहीं बन पाते ? कारण कि जरूरी सद्गुणों का सिद्धान्तों का हम पालन अभ्यास नहीं करते। - १२ लोकप्रियता बिमार आदमी को दवाई के साथ पथ्य पालना पड़ता है, लोकप्रियता का पथ्य यह है कि किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्यों कि एक बार आदत पड़ जाती है, फिर उसे रोकना बड़ा मुश्किल होता है। खुजली को खुजाने के लिए हाथों को रोकना कठिन होता है, इसी तरह निंदक का मुँह बन्द करना भी सरल नहीं । "संपूर्ण जगत मां ईश्वर एक, माणस मात्र अधूरो रे ।” यह कथन सत्य है, दोष तो मानवमात्र में पाए जाते हैं, पर किसी के दोषों की उसके पीछे निन्दा करना पाप है । हमें किसी की निन्दा करने का अधिकार नहीं है, और जो विशिष्ट गुण समृद्ध है, उनकी निन्दा हम कैसे कर सकते हैं? बडे दुर्गुण अक्षम्य है, परंतु छोटी मोटी त्रुटियों के लिए तो जीवन की प्रतिकूलताएँ संयोग परिस्थितियां भी कारणरूप हो सकती हैं। बिना सोचे समझे किसी की टीका करना यानि कि सामने वाले के साथ अन्याय करना है । ३८ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ किसी की भूल को सुधारने के लिए हमें उसे प्रेम से समझाना चाहिए। किसी को धर्मक्रिया बराबर नहीं आती हों तो उसको सही तरीका बताना चाहिए। किसी का उपहास करना क्षुद्रता है। ___ लोकप्रिय क्यों होना चाहिए? यह एक साधन है, जिससे इन्सान के वचन की कीमत होती है। जो लोग देश, समाज और धर्म के नेता है, उनकी लोकप्रियता दूसरों के लिए प्रेरणा रूप बनती है। आपके अच्छे आचरण से सामने वाले के मन में परिवर्तन आता है। यदि समाज उत्सुकता से सुनने को तैयार न हों तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति ने अपनी लोकप्रियता गंवा दी है। लोकप्रियता यूं ही प्राप्त नहीं होती। उसके लिए योग्य बनना पड़ता है। जिसमें योग्यता है वह जरूर प्रिय बन सकेगा सब जगह और यदि गुणी होते हुए भी लोग स्वीकार नहीं करें तो हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, विश्व विशाल है, सच्चे गुणों की कद्र करने वाले जरूर मिल ही जाएंगे। संस्थाए लोगों के त्याग और बलिदान से ही लोकप्रिय बनती हैं, उसके द्वारा सम्पन्न कार्यो में जान तभी आती है, जब धर्मशीलवान स्त्रीपुरूषों द्वारा उसका संचालन होता है। आज हम जन समुदाय की बातें करते हैं, परंतु उस में सर्वजनों का साथ है? संघ में भी सर्वसम्मति जरूरी है, केवल जी हजूरी करने वालों के साथ होने से बात नहीं बनती। संसार में विजय प्राप्ति के लिए लोकप्रियता का सूत्र हमेशा याद रखना चाहिए। संसार में व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता, सबका समावेश मैत्री और प्रेम से करता है। जिंदगी में इन्सान ही क्या पशुओं की भी जरूरत पड़ती है। गर्व में अंधा व्यक्ति ही ऐसा बोलता है कि, "मुझे किसी की जरूरत नहीं।” “धर्म रत्न प्रकरण' ग्रंथ से हमें ऐसी प्रेरणाएँ मिल सकती है जिससे जीवन की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। ___ स्वोपार्जित विषमताएं ही हमारी आंतरिक प्रगति में अवरोधक है। पुण्य, पाप, कर्म, तकदीर क्या है? कल तक जो बोया, उसका ही आज परिणाम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० है, और आज जो करेंगे वह कल भोगना पड़ेगा । हमारी तकदीर हमारे भूतकाल के कर्मों का फल है, हमारे मन, वचन, काया के कार्यो का परिणाम है। यदि किसी को लोकप्रियता मिलती है तो हम उसकी निंदा क्यों करते है ? इससे हमारे पुण्य का नाश होता है । व्यक्ति यदि अपने आप को सुधारने का प्रयत्न आज से ही शुरू करे, तो एक दिन अवश्य सुधर जाएगा। परंतु जो कोशिश ही नहीं करता, वह नहीं सुधर सकता । अपमान किसी को प्रिय नहीं, स्वमान सबको प्रिय होता है, क्यों कि सब में स्व-तत्त्व पडा है । हम जैसा दुनिया को देंगे वैसा ही पायेंगे। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकप्रियता और प्राप्ति जिस देश में हम रहते हैं, उस देश के आचारों तथा अच्छे विचारों का आदरपूर्वक पालन करना चाहिए। कहते भी है कि "देश जैसा वेश" एक और बात - ___ “अति उद्भट वेश न पहेरिये, नव धरिए मलिनता वेश जो।" हमें उद्भट वेश भी धारण नहीं करना चाहिए क्यों कि उद्भट वेश वाला सबकी निंदा का केन्द्र बिन्दु बन जाता है। दूसरों के मनोरंजन के लिए चाहे जैसे वस्त्र धारण करना शोभा नहीं देता, क्यों कि आखिर तो व्यक्ति अपने आंतरिक सौंदर्य से सुंदर दिखता है। साथ ही मैले कुचेले वस्त्र भी धारण नहीं करने चाहिए। व्यक्ति गहनों और कपड़ो से ही सुंदर नहीं दिखता, अपने व्यक्तित्व से सुंदर दिखता है। सादे, स्वच्छ कपड़ो से भी व्यक्ति की प्रतिभा दिखाई दे सकती है। लोकप्रिय व्यक्ति को शक्ति अनुसार दान भी देना चाहिए, कल किसने देखा है? हमारे हाथ में सिर्फ आज का यही पल है इसीलिए “आज, आज भाई, आज और अभी" का मंत्र याद रखिए। किसी के भरोसे न रहकर, वर्तमान को पहचानकर सुयोग्य जीवन जीना है। यदि बाद में पछताना न हों तो धर्म के कार्य में समय का सदुपयोग जल्द से जल्द कर लेना चाहिए। जीवन के अंत में साथ ले जाने के लिए भाथे (रास्ते का खाना) की तैयारी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अभी से करनी होगी, यानी कि पुण्यरूपी लक्ष्मी का उपार्जन इस जन्म में ही हो सकता है। मराठी में दान को 'देव' कहते है, यानि की जिसके मन में देव बसे हों, उसे ही दान देने का विचार आता है। जिसको लेने और लूटने की इच्छा रहती है, उसमें देवत्व का अंश कहाँ ? अनादि काल से लेने का काम किया है, अब देने का वक्त आया है। शक्ति होते हुए भी दान न देना अपराध है, हमारे पीछे, कोई यह नहीं कहे कि, "बेचारा सब कुछ छोड़कर गया।" बल्कि कहना चाहिए कि, "सब कुछ अच्छे कामों में खर्च कर गया।" लोकप्रियता के लिए यह भी एक अनिवार्य गुण है कि सच्ची बात पर क्रोध न आए, अपितु इससे प्रसन्न होना चाहिए। अपने जीवन उत्थान के लिए महापुरूष हम को हितोपदेश देते है, वो तो निस्वार्थ भाव से कहते है वे हमारी आत्मा की सच्ची पहचान करवाते हैं। अकिंचन तथा कीर्तिलोभी न हों ऐसे महापुरूष तो दर्पण के समान हैं, जो हमें अपना सच्चा स्वरूप दिखाते हैं। जिसे विश्व में लोकप्रिय होना है, उसे किस प्रकार का त्याग और किसका स्वीकार करना है, उस बारे में हमारी बात चल रही है। व्यक्ति जब तक बुरी आदतें, दुर्गुण छोड़ेगा नहीं, तब तक उसके जीवन में सद्गुणों का अविभाव नहीं हो सकता। हमारा जीवन दुर्गुणो तथा सद्गुणों का मिश्रण है, सद्गुण तो अंदर है ही, परंतु दुर्गुणो का आवरण चढ़ जाने से उन सद्गुणों का दर्शन नहीं हो पाता। जिसके पास दान, ज्ञान, वक्तृत्व आदि शक्तियां है, इन शक्तियों का कल्याणभाव से उपयोग करना चाहिए, अपनी शक्तियों का गोपन करना भी पाप है। कार्य से ही नया ज्ञान, बोध प्राप्त होता है, शक्तियों का विकास होता है। जीवन में गुरूता ग्रंथि या लघुता ग्रंथि का होना दोनों ही गलत है। कई बार इन्सान काम करने से पहले ही असफलता के भय से डरता है, इससे काम में अवरोध पैदा होता है। हमें याद रखना चाहिए कि थोडे बहुत प्रमाण में मूलभूत शक्तियां तो हमारे भीतर मौजूद हैं ही। इन्सान यदि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ अपने अंदर भगवान के गुण देखने का प्रयत्न करे तो वह भी भगवान बन सकता है, क्यों कि आत्मा तो दोनों की एक समान है । इन्सान को उसके अंदर छिपी हुई शक्तियों का अन्दाज नहीं है, अपनी शक्तियों को पहचान कर उनका उपयोग करना ही साधन है । शक्तियों का उपयोग करने से वे खिलती हैं, नहीं तो कुंठित हो जाती हैं। जब कोई नये काम की शुरूआत करता है, लोग निंदा करते हैं, पर समय बीतने पर कद्र करते हैं, सम्मान देते हैं । कवि न्हानालाल ने अपद्यागद्य शैली को साहित्य क्षेत्र में पेश किया, तब कई कवियों ने कड़ी आलोचना की, पर आज उनकी इस डोलनशैली पर लोग वाह-वाह करते हैं । हमें यह याद रखना चाहिए कि हम पूरी दुनिया को धोखा दे सकते हैं, पर अपनी आत्मा को नहीं । यदि समय के होते, अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं किया तो वे कुंठित हो जाएंगी और हमारे साथ उनका भी मरण हो जाएगा। भगवान महावीर ने मनुष्य को जागृत होकर आगे कदम बढाने के लिए ललकारा है, उन्होंने इन्सान में भगवान, सर्वशक्तिमान के दर्शन किए हैं, न कि भिखारी के। संतो की बताई हुई राह पर यदि मनुष्य चलेगा तो उसे अपनी शक्तियों की पहचान होगी, हमें तो सिर्फ उनको प्रगट ही करना है। अपनी शक्तियों के दर्शन मात्र से ही हमारे जीवन में नई चेतना का संचार होता है । चाहें निष्फलता मिलें या लोग निन्दा करें यदि हम सत्य मार्ग पर हैं, तो हमें जरूर अग्रसर होना चाहिए, और सत्य का प्रतिपादन करना चाहिए, अपनी आत्मा की आवाज को सुनो। हथियारों का उपयोग न करने पर जंग लग जाता है, वैसे ही शक्तियों का उपयोग न करने से वे क्षीण हो जाती हैं । अत: हमें प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग करते रहना चाहिए । जो लोग अपने सद्गुणो के कारण पूजे जाते हैं, उनकी कभी भी निन्दा या मजाक नहीं करनी चाहिए, उनकी मजाक करना यानि अपनी स्वयं की मजाक करना । इसी तरह औरतों तथा वृद्धो का भी मजाक नहीं बनाना चाहिए, बुढ़ापे का मजाक यानि कि अपनी जवानी की मजाक । युवकों को तो वृद्धो तथा औरतों Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ के रखवाले बनना चाहिए। श्रीपाल की माता कमलप्रभा युवा रानी थी, रात्रि के समय पुत्र को लेकर जा रही थी। सामने से युवकों की एक बड़ी टोली सामने आयी, क्षणभर के लिए कमलप्रभा काँप उठी। एक युवक ने सामने आकर कहा “बहन डरो मत, जिसके पास एक भाई खडा हों वह भी निर्भय रहता है, तो आपके साथ सात सौ भाई है, आपको डर किस बात का?" युवकों में शक्ति के साथ-साथ ऐसी समझदारी भी होनी चाहिए। लोकप्रियता के तीन गुण है- दान, विनय और शील, जो विनयवान है तथा उदार है वह दुनिया में प्रिय हो सकता है। जो सचमुच उदार है, वह अपनी प्रिय वस्तु भी दूसरों के कल्याण के लिए अर्पण कर सकता है। दुनिया में कुछ लोग तो मानों केवल संग्रह करने के लिए ही जन्में है। जीवन में कुछ भी भोग नहीं सकते, कंजूस बनकर अपनी भावनाओं को कुचल देते हैं। कुछ लोग दान देकर पश्चाताप करते हैं, ऐसे लोग अनाज बोकर पुण्य रूपी दाने को जला देते हैं। दान देने का सत्कार्य अत्यंत उल्लास तथा आनंद के साथ करना चाहिए, दुःखपूर्वक दिये हुए दान के लिए दान शब्द योग्य नहीं है। हम कहते हैं कि, “अन्न जैसा मन'' यह सत्य है क्यों कि प्राणों का सर्जन अन्न द्वारा ही होता है, अत: अन्न शुद्ध होना चाहिए। मंदिर में अर्पित धन या सम्पत्ति पर यदि किसी की नजर हो तो जिंदगी मलिन बन जाती है, जीवन शौर्य विलीन हो जाता है। दान ओर भिक्षा का पैसा खाने वालों का आंतरिक सत्व नष्ट हो जाता है। मुफ्त का लेने की इच्छा स्पृहा न हों यही सच्चा मंत्र है, दूसरों के बल पर जीना कायरता है, स्वयंबल पर जीना ही सच्ची बहादुरी है। दान देने के पश्चात् तो प्रेम उल्लास तथा आत्मिक आनंद प्रवाहित होना चाहिए। दिल की ऐसी उदारता का नाम ही सच्चा दान है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विचार औदार्य अभी हम लोकप्रियता के सद्गुणों की चर्चा कर रहे हैं, जिसके वचन में और आचरणमें विश्वासजनक प्रेम है, लोग उसका साथ अवश्य देते हैं। सहकार्य और सेवा इस गुण की प्राप्ति होती है। जिसमें इन गुणों का विकास नहीं हुआ उस पर व्यक्ति तथा समाज आदरणीय दृष्टि कैसे रखेंगे? जिस व्यक्तिने दूसरों के पैसे हड़प किये हों ऐसा व्यक्ति यदि धर्म की बात करता है, तो कौन सुनेगा? लोग कहेंगे “तुम तो पहले धर्म का आचरण करो।" समाज संस्थाओ में काम करने वालों को पहले आत्मशुद्धि का प्रयास करके फिर संस्थाओ में आना चाहिए, वरना ऐसे लोग सबके नुकसानकर्ता बनेंगे। जो स्वयं विशुद्ध है वही लोकप्रिय बन सकता है, इसके लिए कौन से सद्गुणों को अपनाए एवं कौन से दुर्गुणों का त्याग करना इस पर विचार करेंगे। ऐसा एक आवश्यक सद्गुण है, चित्त-औदार्य! उदारता। व्यक्ति में मन, वचन, काया तीनों की उदारता चाहिए, जिसका मन कंजूस है वह दूसरों का हड़प कर लेता है। जिसके हृदय में ईर्ष्या की अग्नि है वह तो स्वयं जलता है फिर दूसरों को शीतलता कैसे प्रदान करेगा? __कुछ लोग पैसे व्यय करने में उदार होते है, परंतु दूसरों के विचारों के प्रति उदारता नहीं दिखा सकते वो समझते हैं, “मैं सबकुछ समझता हूं, ये मुझे क्या समझायेगा?" परंतु सच तो यह है कि हमें सबके विचारों का ४५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आदर करना चाहिए, अपने विचार पेश करने की स्वतंत्रता सबको मिलनी चाहिए। अधिकतर परिवारों में विचार-स्वातंत्र्य दिखाई नहीं देता, पिता-पुत्र, सासु-बहु, राजा-प्रजा के बीच ऐसा व्यवहार होना चाहिए। तानाशाही किसी पर नहीं चल सकती, हाँ दो जगह चल सकती है। एक तो निर्बल पर तथा दूसरी धार्मिक लोंगो पर, जो क्षमाशील होते हैं, परंतु ऐसे लोग बहुत कम होते है। जरा सोचिए! पाँच बेटे होते हुए भी जिन माता-पिता को रोने के दिन देखने पड़ते हैं ऐसी दशा क्यों? क्यों कि आपस में आनंद तथा समाधान से एक दूसरों को सहन नहीं करते। सबको अपने विचार प्रदर्शन का मौका मिलना चाहिए। धीरे धीरे सबको समझा-बुझाकर घर में मनमेल तथा शांति स्थापित की जा सकती है, वरना जोर-जबरदस्ती करना बेकार है। विचारों की उदारता का ही दूसरा नाम है स्यादवाद। जीवन के प्रत्येक अंग में स्यादवाद की अपेक्षा और समीक्षा है, यह केवल शास्त्रों की ही पंक्तियां नहीं हैं इसका संबंध जीवन के प्रत्येक आचार के साथ है। जो शास्त्र व्यक्ति के जीवन में प्रेरणारूप बनकर तानेबाने की भांति एकरूप न हो जाए, तो वह केवल बोधमात्र है। अतः ज्ञानियों ने जो फरमाया है, उसका आचरण करके जीवन को लाभान्वित करके, आपसी संबंधो में समाधान लाना, इसी का नाम स्याद्वाद है। हम यहां एक उदाहरण देखते हैं - पिता तथा पुत्र रोज साथ खाना खाते हैं, एक दिन अनबन हो गई पुत्र ने कहा, "मैं आपके साथ खाना नहीं खाऊंगा।" पिता समझदार थे, स्याद्वाद के उपासक थे, अकेले खाना कैसे खाते भला? थाली लेकर पुत्र के पास जाकर बोले "तुम मेरे साथ नहीं बैठो तो कोई बात नहीं, मुझे तुम्हारे साथ बैठना है।" बेटे का अह्म प्रकट हुआ “मैं नहीं, पिताजी मेरे साथ बैठे।" यह सोचकर खुश हुआ। पिताने सरलता अपनाई तो पुत्र का समाधान हो गया। इसी का नाम है स्याद्वाद। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ इस तत्त्वज्ञान को हम समझ पाएं है, ऐसा तभी कह सकते है, जब जीवन के प्रत्येक पहलू का स्पर्श हों, जीवन सरल, सादा और प्रेममय बने। कठिनाई यह है कि हम बोलने को सदा तैयार हैं, पर दूसरों की बात सुनने को तैयार नहीं। “मुझे सुनो, मेंरी सुनो।" ऐसा ही मत कहो, सामने वाले को भी कहने का मौका दो, जब उसका हृदय खाली हो जाएगा तब तुम्हारे विचार उसके हृदय में प्रवेश कर सकेंगे। दूसरों के प्रश्न, शंकाओं का प्रेम से समाधान करने की कोशिश करो, सफलता सहज साध्य बनेगी। ज्यादातर लोग बुद्धि से शायद समझते हैं परंतु उनके आचरण में यह बात दिखाई नहीं देती आखिर तो अपना आचरण ही दूसरों में आचरण प्रगट कर सकता है। एक करोडपति शेठ थे, अत्यंत कंजूस, उनमें उदारता का नाम तक नहीं था। जो कुछ था, उसकी सुरक्षा कैसे हो? सदा उसकी ही चिंता लगी रहती थी। एक बार मन की शांति हेतु चांदनी रात में सागरतट पर जाकर बैठे, मुँह पर चिंता और विषाद की रेखाएं थी। थोडी देर बाद दूसरे शेठ वहां आए, उन्होंने पहले वाले शेठ के मुँह पर उदासी देखी, सच है जो कंजूस होता है, उसके मुख पर लाली, प्रकाश कहाँ से होगा? जो दाता बनकर देता है उसी के मुँह पर लाली प्रसन्नता दिखेगी। दूसरे शेठ को लगा बिचारे दुखी है, शायद आत्महत्या करने आए हैं, यह सोचकर शेठ उसके पास गये। अपने नाम का कार्ड और दस डॉलर दिए, अधिक सहायता चाहिए तो पेढी पर आने को कहा। इस शेठ के मन में करूणा रूपी झरना बह रहा था, सच्ची दया थी, दूसरों को मुसीबत में देखकर जिसका हृदय द्रवित हो, वही सच्चा इन्सान है। दानवीर शेठ तो भेंट देकर चले गये, पर हाथ में डॉलर देखकर करोडपति शेठ सोचने लगे, “इन्सान में ऐसी उदारता ऐसा प्यार भी हो सकता है?" उस शेठ की मानवता ने इस शेठ के हृदय में भी मानवता जगाई, दीप से दीप प्रज्जवलित हुआ। हृदय में स्पंदन जागृत हुआ, बिना स्वार्थ भी दूसरों के दुख में रोने वाले लोग दुनिया में मौजूद हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ शेठ के प्रेम भाव से इस शेठ के मन में भी नया भाव, नया प्रकाश जागृत हुआ, सुषुप्त श्रद्धा जाग उठी, इनमें भी उदारता गुण प्रकट हुआ। दस वर्ष बीत गये, एक बार शेठने अखबार में पढ़ा कि जिन्होंने उनकी मदद की थी, वही शेठ कठिनाई में आ धिरे हैं, पैसे मांगने वाले पैसे मांग रहे है, मगर उनके पास देने के लिए पैसे नहीं है। अब वो शेठ कंजूस नहीं रहे, उनमें उदारता के द्वार खुल चुके थे। एक पैसे का भी फालतू पेट्रोल नहीं जलाने वाले शेठ सत्तर माईल दूर बैठे उस शेठ की मदद करने निकल पड़े। ___ वहाँ जाकर देखा तो जिस शेठने हमेशा दूसरों की मदद की है, वे आज गमगीन बैठे हैं, उनकी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है। हार कर उन्होंने जहर पीकर आत्महत्या करने का विचार किया, इतने में ही करोडपति शेठ आ पहुँचे। कहने लगे "भाई मेरे पास जो धन है, वो तुम्हारा ही है, इसका उपयोग करो। उस दिन रात्रि के अंधकार में तुम्ही ने मेरे अंदर, दान का चिराग जलाया था, मुझे तभी से यह ज्ञान हुआ था कि मिट्टी की इस काया में भी दैवी मानव बैठा हुआ है। तुम्हारी इस विचार ज्योति ने ही मेरे भीतर दीप प्रगटाया है, अब तो मुझे बस देने में ही आनंद आता है।" यह कहकर शेठ के सामने चैक-बुक रख दी और शेठ को मुसीबत से उबार लिया। हमने देखा कि व्यक्ति की उदारता कैसा सुंदर काम करती है। हम यदि भले हो तो दुष्ट भी सुधर सकता है, दुष्ट में भी अच्छाईयां ही देखना, यही सम्यग् दृष्टि है। नालायक को लायक बनाना, कंजूस को दानी बनाना, इसी में हमारे जीवन का महत्त्व है। हम मन, वचन, काया से उदार बनेंगे तो लोकप्रियता तो कदम चूमेगी। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-दर्शन स्व-पर का कल्याण हों वही सच्ची लोकप्रियता है। धार्मिक व्यक्ति में यह लोकप्रियता अंदर से आती है, यह बाहर की बातों से या भाषणों से नहीं आती, दुनिया इतनी मूर्ख नहीं जो झुठे को सच्चा मानें, ये भावनाएं जब जीवन में उतरती हैं, तभी दुनिया मानती है और तभी व्यक्ति लोकप्रिय बनता है। यह विश्व सागर के समान चंचल है, गुणहीन मनुष्य लोकप्रिय होने की कोशिश में लगा रहेगा, फिर भी थोडे ही वक्त में सच्चाई सामने आते ही वह दूर फेंक दिया जाएगा। लोकप्रवाह में काम करना अग्नि के साथ खेलने के समान है, अग्नि के पास जाना है तो पानी बनकर रहना होगा। कुछ सेवक शिकायत करते हैं कि समाज कद्र नहीं करता, पर सच तो यह है कि ऐसे लोगों में ऐसे कोई गुण नहीं होते कि जिनकी कद्र की जाए। समाज की सेवा करनी है तो परीक्षा तो होगी, स्वर्ण भी अग्नि में जलकर ही शुद्ध होता है। आडंबर, खुशामद से लोकप्रियता नहीं बढ़ती है, हाँ बढ़ती है सद्गुणों से, सदाचरण से। लोकप्रिय व्यक्ति के तो विचार भी उदार होने चाहिए। आज मन की संकुचितता से लोग हीनग्रन्थि से ग्रसित होते हैं, यही वजह है कि जगह जगह पर झगडे, विवाद, मारामारी, सम्प्रदाय बढ़ रहे हैं। आज शिक्षा बढ़ी है परंतु विचारों की संकुचितता से, प्रांत भाषाऐं सब बढ रहे हैं, बटवारे हो रहे हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० विचार उदार, सुंदर होंगे तो विशालता आएगी, जहाँ भी अच्छा दिखे, ग्रहण करना चाहिए, इससे अच्छा प्राप्त होगा, बुरा छुटेगा, दो फायदे हैं। धर्मी के लिए प्रथम भूमिका स्याद्वाद अपनाना है, सबको सुनो, समझो, सबके साथ एकता, समभाव रखो । विद्वान् ब्राह्मणो को भगवान महावीर ने प्रभु सुना उनके प्रश्नों, शंकाओ का समाधान किया, फिर वो के बन सके, उनके गणधर बने । समाज में काम करनेवालों को जीवन के प्रवाह को समझकर उसके साथ चलना चाहिए । इसका आशय यह नहीं कि बस लकीर के फकीर बने रहें! जीवन की अनेकानेक धाराएं है किसी एक धारा को पकड़ना और दूसरी को छोड़ देना भी यथेष्ट नहीं है। बल्कि उन सभी धाराओं के नियमित एकत्रिकरण को उसके प्रवाह चक्र को समझने की आवश्यकता है। जीवन में संयोग नाम का कोई स्थान नहीं है । सब कुछ पूर्व सुनियोजित है । वह तो हमने नाम दे दिया है संयोग का । अनायास घटने वाली घटनाएँ भी अक्सर इसी जीवन प्रवाह के सतत संघर्षण का परिणाम है, आवश्यकता है तो बस उसे समझने की । उसके अनुरूप आचरण करने की । Any plan is God. यह विचारों की उदारता यानि स्यादवाद, इसे सापेक्षवाद Theory of Relativity कह सकते हैं। हमने प्रथम दान तथा उदारता गुण के बारे में चर्चा की, दूसरा गुण है विनय | मोर की सुंदरता उसके पंखो से है, पंख बिना उसकी शोभा नहीं । इसी तरह समाज में काम करने वाले के पास ज्ञान, सत्ता, स्थान सब कुछ होते हुए भी यदि विनय गुण नहीं है तो वह अधूरा ही दिखेगा । नेताओं को तो दूसरों को मार्गदर्शन देना है, अपने साथ वाला का गति, शक्ति को भी परखना है । नेता दौड़े और प्रजा पीछे रहे, यह कैसे हो सकता है । गाडी के इंजन और डिब्बों की तरह नेता तथा समाज का संबंध होना चाहिए। यदि नेता ऐसा विचार करता है कि "मैं सत्ता पर हूं, मैं समाज से ऊँचा हूं, समाज तो भेड चाल की तरह चलता है ।" ऐसा सोचने पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें अहम् एवं गर्व आता है तथा उसका पतन होता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा कि संयोगो से मुक्त हे भिक्खुओ, तुम्हे सद्गुणों तथा धर्म की शुरूआत में विनय के बारे में प्रथम कहूंगा, फिर दूसरी बात कहूंगा । लोग तुम्हें वंदन करेंगे, तुम्हारी चरण धूलि सर पर चढ़ायेंगे, उस समय यदि जागृत नहीं रहे तो गर्व रूपी सर्प तुम्हें डस लेगा । इसीलिए भगवान ने प्रथम विनय सिखाया, विनय बिना तो भलभलों का पतन हो जाता है। ५१ साधु संतो के जीवन में भी यदि विनय गुण न हों तो गर्व कब उछल पडेगा, जानना मुश्किल है । भगवन् स्थूलिभद्र, जिनका नाम ही मंगलरूप है, जो शील के अवतार थे, उनको भी एक बार अहम् आ गया था । मुनि स्थूलभद्र अत्यंत ज्ञानी थे, एक बार उनकी बहने सेणा, वेणा, रेणा वगैराह उनके दर्शन हेतु आई, गुरु ने कहा “ स्थूलिभद्र उपर है।” स्थूलिभद्र को इस बात का पता चल गया, उन्होंने सोचा " अपनी ज्ञान शक्ति का प्रभाव बहनों को दिखाऊं ।" वे सिंह का रूप धारण कर के बैठ गये, बहनें तो सिंह को देखकर डर गई, नीचे जाकर गुरू को बात बताई | गुरु समझ गये मुनि में विद्या प्रदर्शन का गर्व जग गया है, विद्या का अहंकार आ गया है। कई बार हम सोचते है चमत्कार दिखायेंगे तो लोग अनुयायी बनेंगे, पर हम भूल रहे हैं कि दुनिया को कल कोई नया चमत्कार देखने को मिलेगा, वह पहले चमत्कार को भूल जाएगी । चमत्कार में सच्चा धर्म है ही नहीं, यह तो अल्पजीवी है, केंचुए की तरह । जो धर्म आत्मा की गहराईयों से नहीं निकलता, वह धर्म उसका चमत्कार खत्म होंने पर या व्यक्ति के चले जाने पर नष्ट हो जाता है। अवधान जैसे प्रयोग दिखाकर लोगों को सिर्फ चकित करने की ही भावना हों तो ऐसे प्रदर्शन भी पाप है। धर्म कोई चमत्कार नहीं, यह तो सत्य है। धन, कुटुम्ब, पत्नी सब कुछ छूट सकता है, पर कई बार इन्सान अहंकार नहीं छोड़ सकता। अहम्, गर्व कब प्रगट हो जाएगा कुछ कह नहीं सकते । बाहुबली ने अपना सर्वस्व त्याग कर दिया था, परंतु एक अहंकार रह गया Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था “मैं अपने छोटे भाईओं को वंदन क्यों करू ? केवल ज्ञान प्रगट होने के बाद ही जाऊंगा, जिससे वंदन ही न करना पड़े।'' ऐसे अत्यंत ज्ञानी, जो साधना में इतने तल्लीन, एकाकार रहते थे कि पक्षियों ने सिर पर घोंसले बना दिए। सर्दी, गर्मी, बारिश में शरीर को लेशमात्र भी कंपित न होने दिया, उन्हें भी यह अहंकार सता रहा था कि, "मैं नमन करूं?' इस गर्व का दर्शन व्यक्ति को बहुत देर से होता है, जब अंतर ज्योति प्रगट होती है तभी इसके दर्शन होते है। जगत् गुरु ऋषभदेव भगवान की करूणा बाहुबली पर प्रगटी, उन्होंने ब्राह्मी तथा सुंदरी दोनों बहनों को प्रतिबोध करने भेजा, उन्होंने कहा, “वीरा मोरा गज थकी उतरो।" इन सादे शब्दों में आंतरिक भाव का संकेत अद्भुत था, वो जागृत हो गये, छोटे भाईओं के पास जाकर, वंदन करने के लिए कदम बढाया, उसी क्षण केवलज्ञान प्राप्त हो गया। . इस केवलज्ञान की शक्ति हम सब में मौजूद है, परंतु वृत्तियों के आवरण से आवृत्त है, सच्चे ज्ञानियों के दर्शन श्रवण से अपना अंतकरण खुल जाता है। ज्ञानी तो निमित्त मात्र है, यह ज्ञान कहीं बाहर नहीं अपने भीतर ही भरा हुआ है, उसे खोलने के लिए चाबी की खोज करनी है हमें। कई बार बल से नहीं बुद्धि से काम सुगम हो जाता है, इस सत्य की गुरु रूपी चाबी यदि अपने हाथ लग जाए तो अंतर द्वार पल भर में खुल सकते हैं। स्थूलिभद्र तथा बाहुबली के उदाहरण पूरे विश्व के लिए है, यह गर्व सबके भीतर छिपकर बैठा है। सांप यदि घर में घूम रहा हो तो कौन शान्ति से सो सकता है ? इसी तरह हमें अपने भीतर बैठे हुए गर्व रूपी सर्प से हमेशा सम्भलकर रहना है। इसीलिए विनय नामक सद्गुण को आवश्यक गिना गया है, इस बात को समझेंगे तभी हम कह सकेंगे कि हम कुछ समझे हैं। आटे को अच्छी तरह गूंथा जाए तो ही रोटी अच्छी बनती है, इसी तरह विनय गुण धारण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने से ही जीवन सुंदर बनता है । आज की शिक्षा में यह अत्यंत जरूरी है, प्रोफेसर बोलते रहते हैं, छात्र-छात्राएँ उनकी मजाक करते रहते है, ऐसी विद्या आशीर्वाद रूप नहीं बल्कि अभिशाप रूप बन जाती है । ५३ राजा बिंबिसार ने चांडाल के पास से विद्या ग्रहण करने का बहुत प्रयास किया, पर न प्राप्त कर सके। उन्होंने अभयकुमार से इसका कारण पूछा, उन्होंने कहा “महाराज बर्तन में पानी भरने के लिए उसे कुएं में डालना पडता है, बर्तन को टेढ़ा करना पडता है, नमना पडता है, तभी उसमें पानी भरता है । इसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के लिए विनय द्वारा नमन करना पडता है | आप अपने से ऊंचे स्थान पर चांडाल को बिठाईये, और आप उसके स्थान पर बैठिए ।" जब तक हममें लघुता, नम्रता नहीं आती, तब तक हमें वस्तु, स्वरूप की जानकारी तो भले प्राप्त हो सकती है, पर आंतरिक ज्ञान हम नहीं पा सकते। ज्ञान तो अंतर की खोज है । अतः ज्ञानियों ने फरमाया है, जो अक्षर के रहस्य को, ज्ञान को समझता है, उसी का जीवन अक्षर - अमर बनता है, केवल कागज पर लिखे अक्षरों की ज्यादा कीमत नहीं होती । और यह सब विनय बिना नहीं मिल सकता । आखिरकार मगध के महान् सम्राट् बिंबिसार चांडाल के स्थान पर बैठे, तब ज्ञान की प्राप्ति हुई । जो मोम की भांति नर्म बनकर पिघलता है, वही समाज में अमर बनता है । हृदय की गहराईयों से जगी हुई नम्रता से समाज भी वश में हो सकता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ शाश्वत क्या? हम कुछ दिनों से लोकप्रियता के गुणों पर विचार कर रहे हैं, और उससे संबंधित तीन गुण-दान, विनय और शील पर चर्चा चल रही है। ___ आज यदि मान, सत्कार मिलता है, तो यह नहीं समझना चाहिए कि यह चिर स्थायी रहेगा। प्रशंसा, खुशामद या अन्य विशेषणों से भ्रमित होकर भविष्य की मीनारों की रचना करना, समझदारी नहीं है। सच्ची लोकप्रियता तो स्वशक्ति में से आनी चाहिए। कौन सी शक्ति? पैसों की? नहीं, लक्ष्मी तो चंचल है, आज है तो कल नहीं। गतजन्मों के सुकृत्य होंगे, तब तक यह रहेगी, यह पानी पर चलती हुई नौका के समान है। अपने जीवनसरोवर में लक्ष्मी नौका के समान है चंचल है, उसे बांधकर नहीं रख सकते। तो फिर दूसरी शक्ति कौन सी है? सत्ता, यह चाहें तो उपर चढ़ा सकती है, चाहें तो नीचे गिरा सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सत्ता हमारे हाथों में नहीं है, पुण्य पर निर्भर है। मुसोलिनी और हिटलर जैसों की सत्ता भी पलभर में खत्म हो गई और उन्हें मौत भी अच्छी नसीब नहीं हुई। यह इतिहास सर्वविदित है। तीसरी शक्ति शरीर बल है। इन्सान तब तक जोर कर सकता है, जब तक निरोगी है। रोग के आते ही नि:सहाय बन जाता है। कई बार सुबह ५४ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ है, पर शाम को इन्सान चला जाता है, हृदय रोग के हमले में, फिर ऐसे देह के जोर पर गर्व करना भी कहाँ तक उचित है ? इन तीनों से जो सर्वाधिक शक्तिशाली है, वह हमारे सद्गुण हैं । सत्ता, शरीर बल शायद कल को न रहें, परंतु सद्गुणों का खजाना होगा तो सदा रहेगा। इसलिए इन तीन चपल शक्तियों के सामने हमें तीन सद्गुणों की शाश्वत शक्तियों को धारण करने को कहा गया है, वो तीन है- दान, विनय और शील। ये तीनों गुण जिस धर्मात्मा में होते है, वह मरने के बाद भी अमर हो जाता है । " मरना है भला उसका, जो अपने लिए जिए, जीते हैं वो, जो मर चुके इन्सान के लिए।" स्मृति सदा व्यक्ति के सद्गुणों तथा उसके सहकार्यो से रहती है, जो दूसरों की सेवा करते हुए, या औरों की खातिर मरते हैं, उनकी लोकप्रियता सदा रहती है। संपत्ति, सत्ता और शरीर को काल ग्रसित कर ले, उसके पहले इनका सदुपयोग कर लेना चाहिए। अपना तथा अपने साधनों का उदारतापूर्वक सदुपयोग करके जाएंगे तो लोग भी कहेंगे, “दिल का बादशाह था । " ऐसे लोगों के लिए ही समाज आंसू बहाता है । हंसता हुआ वही इन्सान जा सकता है, जिसने सदा दिया है, जिसने दूसरों को लूटा है, वह हँसता हुआ क्या जाएगा भला ? चित्त की उदारता के पश्चात् हम नम्रता गुण पर विचार करेंगे । विजय प्राप्त होने पर गर्व करने के बजाय, कुदरत का तथा मित्रों का, स्वजनों का उपकार मानो, उन्हें श्रेय दो । पर अक्सर यह जगत की रीति है कि अच्छा होता है तो व्यक्ति स्वयं श्रेय लेता है, “मैंने किया ।" बुरा होता है तो दूसरों पर आरोप लगाता है। यह, "मैं और तुम " जीवन में दीवार खड़ी करते हैं । प्रशंसा सबको प्रिय है, यह हमारी आंतरिक वृत्ति है। अच्छे का श्रेय स्वयं लेकर दोष की टोकरी भगवान के सर मढ़ता है, इस तरह ईश्वर का Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सर्जन इन्सान ने ही किया है, यही ईश्वरवाद है। हम अक्सर कहते हैं "जैसी भगवान की मर्जी।" ___ व्यवहार में ही देखिए न! शादी की पत्रिका में लिखते हैं, “हमने हमारे भाई के बेटे की शादी तय की है।" ऐसा लिखकर श्रेय लेता है और मृत्युपत्र में लिखता है, “जैसी ईश्वर की इच्छा।" इस तरह मंगल होता है, तो अपना पुरूषार्थ और बुरा, अपमंगल हों तो भगवान जिम्मेदार। यहाँ एक बात याद आती है। एक सुंदर बगीचा था, बरसात आयी, बाग खिल उठा। कोई चिंतक वहाँ आया, माली से पूछा, “ये लताऐं, वाटिका, फल-फूल अत्यंत सुंदर है, यह बाग किसने बनाया? फौरन माली बोला- मैंने।" उसने ऐसा नहीं कहा कि मेघकृपा से सूर्यकिरणों से यह फला-फूला है। उसी समय एक गाय वहाँ आई, माली ने उसे जोर से लकडी मारी, गाय मर गई। माली को राजा के सामने पेश किया गया। राजाने पूछा, “अरे! इस गाय को तुमने मार दिया?" माली ने कहा, "नहीं मालिक। क्या लकडी से गाय मरती है भला? लकडी तो सिर्फ निमित्त मात्र है, मारने वाला तो भगवान है।" हमारे जीवन में "अहम्' सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित है। जो स्थान जितना ऊँचा वहां अहम् भी उतना ही ऊँचा। धर्म, समाजसेवा, राष्ट्रसेवा, प्रत्येक जगह अहम् के ही दर्शन होते है, परिणाम यह आता है कि अहम् के अतिरेक से इन्सान एक दिन गुब्बारे की भांति फूट जाता है। इस अहंकार से मानव अपने भीतर दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है। इस अहम् से छुटकारा कैसे मिले? इसके लिए हमें विनम्रता गुण अपनाना चाहिए। चौदह साल पुरानी बात है, एक व्यापारी थे, उन्होंने व्रत लिया कि कमाई का एक निश्चित भाग स्वयं रखेंगे, दूसरा हिस्सा उनके लोगों के बीच बाँट देंगे। उनकी मृत्यु होने पर उनके नौकर-चाकर उनके बेटों से भी ज्यादा रो रहे थे। दरवाजे पर बैठने वाला पठान बोला “मेरे सगे बाप की मृत्यु का जितना मुझे दुःख नहीं हुआ, इतना आज हुआ है।'' इतना कहकर वह फूट फूटकर रोने लगा। इसका कारण था शेठ की उदारता, उन्होंने सबको खूब दिया था। इस व्यापारी शेठ की खूब इज्जत थी, सबके झगड़े निष्पक्ष Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनकर सुलझाते। अपनी ज्ञाति में भी अगुवा, सब काम न्यायपूर्वक करते थे, यह समभावात्मक दृष्टि उनका स्वभाव बन गई थी। उनके जीवन का एक प्रसंग बना, उनके बेटे ने अपनी सगाई तोड दी, गाँव था, हाहाकार मच गया। शेठ ने गाँव के लोगो को न्याय करने को कहा। शेठ न्याय की गद्दी पर बैठे, उनको अपने भूतकाल में किए गये न्याय याद आए। एक बार ऐसी ही भूल के लिए उन्होंने किसी को हजार रूपये दंड तथा तीन माह तक उनके साथे व्यवहार बंद की सजा सुनाई थी। उन्होंने अपने पुत्र के न्याय को तोलते हुए कहा कि, "मुझे पाँच हजार का दंड तथा बारह महिनों तक मेरे साथ सबका व्यवहार बंद।" ___लोग चकित हो गये "शेठ इतनी भारी सजा?' शेठ ने कहा, “मैं आगेवान हूं, मेरी सजा तो अधिक ही होनी चाहिए।'' आज शेठ नहीं रहे परंतु आज भी लोग उनके न्याय को याद करते हुए कहते है, "न्याय तो पानाचंद शेठ का।'' इसको कहते हैं लोकप्रियता से जन्मी हुई न्याय भरी नम्रता तथा विनय । सुरभि तथा शीतलता से चंदन की शोभा है, सुधा की सौम्यता से जैसे चंद्र सुशोभित है, तथा माधुर्य से ही अमृत मीठा है, इसी प्रकार विनय तथा नम्रता से ही मानव-जीवन की शोभा है। विनय करके ही दूसरों के हृदय में स्थान प्राप्त कर सकते हैं। लोकप्रियता का तीसरा सद्गुण है शील की सुरभि। ज्ञानी से एक बार पूछा गया, जीवन में कम से कम क्या होना चाहिए? जवाब मिला अपरिग्रह तथा शील (अच्छा चरित्र)। समाज का मानस कितना नीचे जा रहा है? जानना है तो अभिनेता तथा अभिनेत्रियों के चित्रोंवाले विभिन्न पत्र पत्रिकाओं की खपत से जाना जा सकता है। ऐसे समाज को बदलने के लिए, संपूर्ण वातावरण को बदलना जरूरी है, इसकी शुरूआत अपने घर से होनी चाहिए। वातावरण के अणुअणु को शील की सौरभ छूएगी तभी यह दुर्गन्ध दूर होगी। आपसे मिलने आने वाला व्यक्ति आपके शील सौरभ से सुरभीत हो उठे ऐसी अवस्था होनी चाहिए। और यह तभी संभव है जब शील ही आपका जीवन हो। सुदर्शन शेठ, विजया Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आदि गृहस्थ थे परंतु अपने चरित्र की ऐसी महक छोडकर गये कि बड़े-बड़े साधु संत भी उनके गुण-गान गाते थकते नहीं । संयम तथा सदाचार केवल धर्म में ही नहीं, सुखी जीवन के लिए भी परम आवश्यक है । संसार भोग का अखाडा मात्र नहीं है। अतिभोग, रोग को आमंत्रित करते हैं। जैसे तालाब को दीवार होती है, वैसे ही भोग में योग की दीवार होनी चाहिए। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में अपनी विषय वृत्तियों के अतिरेक का खुले दिल से इकरार किया है । बाद में जीवन में संयम योग लाकर प्रेममूर्ति कस्तुरबा को कस्तुरबा कहकर संबोधित करते हैं, यह वृत्तियों, भावों का उर्ध्वकरण है। स्त्री को केवल भोग वृद्धि का साधन न समझकर, उसमें जीवन साथी और साधना - सहचरी का आत्मदर्शन करना ही शील है, संयम योग है । स्त्री के शील को समझना यानि कि पुरूष के जैसी ही विकास गामी चेतना का समभाव से संवेदन करना । काम स्त्री या पुरूष में नहीं, उनकी वृत्तियों में है। रात दिन स्त्री की निंदा करने वाले पुरूष शीलवान ही है, ऐसा जरूरी नहीं, हो सकता है, उनमें भीतर सुषुप्त, छिपी हुई वृत्तियां बाहर न आ जाए और कोई जान न ले इसलिए सतत ऐसी बातों द्वारा सुननेवालों का ध्यान दूसरी तरफ खींचना चाहते हैं। वस्तु के प्रति दृष्टिकोण बदलने से व्यक्ति के साथ संबंधो की सृष्टि भी बदल जाएगी शील दृष्टि है, विकार वृत्ति है, विकारी वृत्ति को सम्यग् दृष्टि द्वारा बदला जा सकता है। यदि जीवनरूपी सरिता में संयमरूपी किनारा न हों तो जीवन का पानी के रण में ही समाप्त हो जाएगा। हमें संयम के किनारों का आभार मानना चाहिए, जो जीवन के प्रवाह को परमात्मा रूपी सागर तक पहुँचाता है । महापुरूष कहते हैं कि जलते हुए इस संसार में सद्गुण रूपी शीतलता के सिवाय सब व्यर्थ है । इस तरह दान, विनय तथा शील सद्गुणों का त्रिवेणी संगम जहां होता है वहाँ लोकप्रिय नाम का तीर्थ बन जाता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अक्रूर उपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की जरूरत रहती है वैसे ही धर्मरूपी शिखर पर चढ़ने के लिए भी कुछ सीढ़ियों की जरूरत होती है। यदि एक एक सीढ़ि भी चढ़े, तब भी चढ़ने वाला एक न एक दिन ऐसे शिखर को सर कर लेगा जो सभी शिखरों में श्रेष्ठ शिखर है अर्थात् धर्म शिखर । हिमगिरि के उत्तुंग शिखर को सर कर के तेनसिंह ने पराक्रम की पराकाष्ठा दिखाई, वैसे ही जो धर्म शिखर पर पहुंचता है, वह अपने जीवन में अध्यात्म की पराकाष्टा दिखाता है। ___ हम सब धर्म शिखर के पथिक है। यदि यह न होता तो शायद हम यहाँ इकट्ठे नहीं होते। हम सब धर्म शिखर के प्रवास की भावना, इच्छा तथा कामना रखते हैं, यह प्यास हम सबकी आँखो में झलकती है। साधक के लिए धर्मप्रवास कठिन नहीं है। जो धर्म को कलिष्ट कहते हैं, वह धर्म नहीं हो सकता, ऐसे लोग धर्म के नाम पर कुछ और ही बेचने निकले हैं। धर्म तो गाँव का गरीब भी समझ सकता है। धर्म की सीढ़ियां ऊंची भी नहीं है, संकडी भी नहीं है, यह सीढ़िया हैं एक, एक सद्गुण। जिसके जीवन में हेतु ध्येय, सद्गुण नहीं, वह कहीं भी नहीं पहुंच सकता। __ हमने अब तक क्षुद्रता का त्याग, संपूर्ण अंगोपांग, प्रकृति-सौम्यत्व और लोकप्रियता, इन चार बातों पर विचार कर लिया, अब हम पांचवें गुण पर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० चर्चा करेंगे। पिछले सद्गुणों को भूल न जाएँ, इसके लिए पुनरावर्तन करना चाहिए जिसे स्वाध्याय कहते है । इन गुणों को जानने से चिंतन मनन करने से जीवन में कितनी शांति मिली ? कितना अनुभव किया ? जितना आचरण होगा, उतनी हमारी विजय है, मात्र सुनने से कोई फायदा नहीं होता। डॉक्टर की दी हुई दवाई का सेवन करने से रोग दूर जाता है, इसी तरह सद्गुणों को जीवन में उतारने से ही भव रोग जाएगा। यह पाँचवी सीढ़ि यानि क्रूरता का त्याग, जो स्वयं शांत है, वही दूसरों को शांति प्रदान कर सकता है, बर्फ के पास बैठने से ठंडक मिलती है, भट्ठी के पास बैठने से तो गर्मी का ही अनुभव होगा। इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है, जिस व्यक्ति ने बोध प्राप्त किया है, और दूसरों को बोध प्रदान करता है वही सच्चा महापुरूष है। सच्चा धार्मिक कैसा होता है ? जिसमें चंदन सी शीतलता, शांति तथा सौम्यता हो । जहाँ जाए शीतलता प्रदान करे । क्रूरता नहीं, यानि क्या ? जीवन में किसी प्रकार की क्लिष्टता नहीं, अपितु कोमलता होनी चाहिए। जिसका हृदय कोमल हो, दूसरों का सुख, सफलता देखकर खुश हो वही धार्मिक है कई लोग दूसरों के सुख को देखकर निराश होते है, उनकी मनोवृत्ति कलुषित है, वे धर्म करने योग्य नहीं हैं। जो हृदय से कठोर, क्रूर होते हैं वे कई बार हिंसक पशुओं से भी अधिक क्रूर या निर्दयी बन जाते हैं और दूसरों को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचा सकते हैं । कहते हैं कि सिंह या सर्प सामने से आ रहे हो तो सावधानी बरतने से उनसे बचा जा सकता है, परंतु जो बाहर से सौम्यता दिखाकर अंदर से क्रूरता का आचरण करते हैं, उनसे बचना मुश्किल होता है । अत: ज्ञानियों ने फरमाया है "मधु तिष्ठति जिह्याग्रे, हृदये तु हलाहलम्।” मुँह से मानो शहद टपक रहा हों, ऐसा मीठा बोलने वालों के हृदय में भी लेशमात्र दया नहीं होती, ऐसा देखा गया है। जिसका हृदय मोम जैसा मुलायम मक्खन जैसा कोमल हो वही सच्चा धार्मिक । एक प्रसंग याद आ रहा है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफ्रिका में चरोत्तर के एक व्यापारी बहुत धनी तथा साथ ही साथ सज्जन भी है, रहते हैं। उनके माथे पर एक घाव है, कई मित्रों ने उनसे कहा, “प्लास्टिक सर्जरी करवालो'' उन्होंने कहा- “यह घाव तो मेरा गुरू है। यदि यह न होता तो मैं मानव नहीं होता, मेरे हृदय में जो दया का झरना बह रहा है, वह भी नहीं होता।" एक मित्र ने घाव का राज पूछा तब उन्होंने कहा कि वो बचपन में गरीब थे, वो तथा उनकी माँ झोपडे में रहते थे, माँ घर पर चक्की में अनाज पीसकर गुजारा चलाती थी। पास में ही बड़ी हवेली थी, उसके चौक में सब बच्चे इकट्ठे होकर खेलते थे। जो बच्चे खेलने आते थे वे सब धनिकों के बच्चे थे। एक बच्चे की माँ ने उसकी जेब में काजु, बादाम भर कर कहा कि वो अकेला ही खाए, किसी को न दे। अब यह सोचने की बात है कि हमारी ऐसी शिक्षा कहाँ तक उचित है, बच्चा जब बड़ा होगा वह माँ-बाप को अंगूठा भी दिखा सकता है। कोने में बैठकर तो श्वान भी अकेला खाता है। इन्सान को बाँटकर खाना चाहिए। हम कई लोगों को आमंत्रण देते हैं, खाना खिलाते हैं, परंतु अपने लाभ के लिए। कभी किसी गुणवान संत, न्यायी को हम निमंत्रण देते है? हम जैसा देते है दुनिया से वैसा ही पाते हैं। Law of nature. यह कुदरत का नियम है। अच्छा देंगे, अच्छा मिलेगा, बुरा देंगे, बुरा पायेंगे। हाँ फल मिलने में देर-सवेर हो सकती है, परंतु कुदरत के यहाँ देर है अन्धेर नहीं। ___ अब एक दिन उस धनिक बच्चे को काजु-बदाम खाते देखकर गरीब बच्चे ने उससे मांगे। उसने नहीं दिए, अंगूठा दिखाया। लडका माँ के पास आकर रोने लगा, काजु-बादाम मांगने लगा, माँ की आँखो में आंसू आ गये, हृदय द्रवित हो उठा। वह उस लडके की माँ के पास जाकर बोली "बहन! आपको पैसा अपने पुण्य से मिला है, अच्छा है, मुझे आनंद है, मगर आपके बच्चे को काजु-बदाम देकर खेलने मत भेजा करो, मेरा बच्चा भी मांगता Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ है, रोता है, मैं आपसे विनती करती हूं।" झूले पर झूला झूलती हुई शेठाणी चिल्लाई, “अरे जा तू कौन होती है? मुझे मना करने वाली। मेरा बच्चा तो खाएगा।'' गरीब औरत को बहुत आघात लगा, वह जैसे ही वहां से बाहर निकली उसके बेटे ने कहा, “माँ बादाम?" माँ को गुस्सा आया, उसने पास ही पड़े पत्थर को उठाकर बेटे के सर पर दे मारा। खून की धार बह निकली, धीरे-धीरे घाव तो ठीक हो गया, पर निशान रह गया। वर्षों बीत गये, वह लडका बड़ा होकर आज खूब रईस बन गया, मगर रोज काँच में अपना चहेरा देखता है तब मानों वह घाव उससे कह रहा है, “दूसरे की लक्ष्मी ने तेरे कपाल पर घाव दिया है, ध्यान रहे तुम्हारी लक्ष्मी किसी के कपाल पर घाव न कर दे।" इस तरह इस व्यक्ति ने इस दुखद घटना से बोधपाठ लिया, कई बार दुख भी सुखरूप बन जाता है। ऐसी ही दृष्टि रखना पाँचवा सद्गुण है। इसमें दो भाव छिपे है- स्वयं के प्रति कठोरता, दूसरों के प्रति कोमलता, ऐसे सद्पुरूष के हृदय का वर्णन इस सुभाषित में किया है। वज्रादपि कठोराजि, मृदुनि कुसुमादपि। दूसरों के आंसू देखकर जिसका हृदय द्रवित हो उठे, वहीं अपने जीवन में संयम, नियम पालन के लिए तथा विषमता आने पर उसका सामना करने के लिए वज्र से भी कठोर बन जाता है, हमें भी ऐसा ही बनना चाहिए। ___ कवि श्री निरालाजी को पुरस्कार में १२५ रूपये मिले, वो लेकर घर जा रहे थे, रास्ते में एक भिखारिन को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा, उन्होंने उसे उन पैसों से अंबर चर्खा दिलाकर उसे रोजगार का जरिया प्रदान किया। पत्नी ने पुरस्कार का पूछा तब उन्होंने कहा “एक औरत को ऐसी बेहाल दशा में देखकर मैंने मदद न की होती, तो ऐसा हैवान पति तुम्हें अच्छा लगता?' पत्नी भी उनकी सुंदर भावना देखकर खुश हो गई। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पाँचवे सद्गुण के दो पासे है- सकारात्मक, नकारात्मक। अपने प्रति कठोर बनो, दूसरों के प्रति मृदु, दोनों का ही आचरण जीवन में होना चाहिए। इन्सान किसी भी परिस्थितिमें अडिग कब रह सकता है ? जब वह स्वयं संयमी हो और दूसरों को मदद करने के लिए तत्पर। दूसरों के लिए आंसू बहाओ। Life is mostly froth and bubble, Two things stand like stone, kindness in another's trouble, Courage in our own, पानी के बुलबुले जैसी यह जिन्दगी है, इसमें दो वस्तु तलवार की तरह अमर बनती है, दूसरों के प्रति कोमलताभरी करूणा तथा स्वयं के प्रति हिम्मतभरा धैर्य। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापभीकता - धर्म रत्न प्रकरण का छट्ठा सोपान है- पापभीरूता, निर्भय बनो साथसाथ डरो भी, ये दो विरोधात्मक भाव इसमें भरे हुए हैं। निर्भय बनने का अर्थ निर्लज्ज बनना नहीं है, न्याय मार्ग का त्याग, सदाचार का त्याग यह तो अंत में धर्म का त्याग ही हो जाता है। हमें अपने पापों का डर रखना है, बुरे कार्य करने का विचार आते ही आत्मा में स्पंदन का जागरण होना चाहिए। कई प्रलोभन मिलेंगे, मगर नहीं “यह मैं नही कर सकता।" अंदर से आवाज आनी चाहिए। और जो सत्य है, उसका निर्भय बनकर साथ देना चाहिए। यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक सद्गुण है। ऐसे पापभीरू व्यक्ति का एक उदाहरण देखते हैं। एक बार एक आदमी रास्ते में भीख मांग रहा था, सामने से दूसरा आदमी आया उसने उसे भूखा जानकर चने कुरमुरे दिए और चला गया। जैसे ही उसने चने ममरे खाने की शुरूआत की उसके हाथ में एक स्वर्ण खण्ड आ गया। वह प्रसन्न हो गया, क्यों कि वह गरीबी से पीडित था। दूसरे ही क्षण उसे विचार आया, "उसने तो चने कुरमुरे दिए है, सोना नहीं, उस पर मेरा अधिकार कैसे हो सकता है।" उसके मन में युद्ध चल रहा है, मन कहता है ‘रखले' आत्मा कहती है 'नहीं', क्यों कि वह पापभीरू था। मानवमात्र में दो प्रकार के मन होते है- एक जाग्रत, दूसरा अजाग्रत। जाग्रत मन गलत काम के सामने विरोध करता है, जब कि अजाग्रत मन कहता ६४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है “यदि भूल से भी सोना मिला है तो प्रमाद तो देने वाले का है, उसकी लापरवाही है, रख ले।" पूरी रात मन में द्वन्द चला, सो न पाया सुबह घूमने निकला, सामने से फिर वही आदमी मिला, उसने पूछा “क्यों भाई आज भी चने-कुरमुरे चाहिए?" उसने जबाव दिया “नहीं आज तो मैं आपको यह सोना वापस देने आया हूं।" उसने पूछा “क्यों तुम्हारा रखने का मन नहीं हुआ?' जवाब मिला "हुआ था मगर मेरे अंतर मन में भारी युद्ध चला मन तथा आत्मा का।" मन ने कहा, 'सोना रख ले', आत्मा ने कहा 'वापस दे दे।' यह आपको वापस लौटा कर मुझे यह झगड़ा खत्म करना है। यह सुनकर दूसरा व्यक्ति इतना खुश हुआ कि बस “इतना गरीब होते हुए भी तेरी आत्मा कितनी जाग्रत है? मुझे ऐसे ही मित्र की तलाश थी, तू मेरे साथ चल।" आज हम में से इस तरह जागृत मन वाला कोई नहीं, हम अपनी आत्मा की आवाज सुनने को तैयार ही नहीं, वरना अंतरात्मा से सही गलत की आवाज तो आती ही है। ‘पर्वत पर प्रवचन' "Sermon on the mount" में इसामसीह ने कहा है एक औरत से उसके जीवन में अनाचार का सेवन हो गया, तब ऐसा नियम था कि ऐसी भूल करने वाले को लोग पत्थरों से मारे। लोग मारने के लिए इकट्ठे हुए, औरत वहाँ से भाग खडी हुई। पहाड के पास झोपडी में एक संत रहते थे, वहाँ आकर वह छुप गई, संत को बताया लोग उसे मारने आ रहे हैं, उसने जीवन रक्षा की भीख मांगी। संत की समझ में बात आ गई कि इस औरतने अनाचार किया है, परंतु अब वह तीव्र पश्चाताप कर रही है। केले के छिलके से फिसलने की इच्छा किसी की नहीं होती, मगर संयोग से इन्सान गिर भी जाता है। ज्ञानी इस बात को समझते हैं, इसीलिए भूल करने वाले के प्रति करूणा बहाते हैं, उनके अंतर में खूनी के प्रति भी करूणा, क्षमा, दया होती है। आखिर तो इन्सान ही है न, भूल हो भी सकती Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, महात्मा साधु माफ कर देते हैं। बाकी तो ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो संयोगो तथा वातावरण को पैरो तले रोंदकर आगेकूच कर जाते हैं। ___ संत ने देखा इस औरत को सुधरने की इच्छा तो है, इसके अंतर में सच्चा पश्चाताप जगा है। उत्तम तथा दैवी भावना का झरना बहने लगे तो इन्सान पुण्यशाली बन सकता है। इस औरत का मुंह उदास था, अंतरमन से दुखी थी, संयोगो के दबाव में आकर अनाचार का सेवन किया था, संतने कहा “तुम निश्चित रहो।" पत्थर, ढेले, लकडियां लेकर लोग आए, संत ने शांति से सबकी बात सुनी और बोले तुम को लगता है, “यह औरत भ्रष्ट है, तो मारना, परंतु जिसने कभी किसी औरत को देखकर कुदृष्टि न डाली हो, मन में विकार पैदा नहीं हुआ हो, केवल वही इन्सान मारेगा। तुम सबसे पहले अपने मन को पूछो, अपने ईष्ट देव से पूछो। यदि तुम पवित्र हों तो जरूर मारो।" संत के साथ सब ध्यान में खड़े रहे, आत्मा तो सामान ही है, जो होता है वह सच कहती है। मन का एकांत, यानि मन के साथ बात, आज हम यह करते हैं? नहीं शायद। हम तो अकेलेपन से घबराते है, अकेलापन हो तो रेडियो बजाते हैं। हमें तो मंदिर में भी कई विचार आते है, एकांत की शांति में। क्यों कि हमारा मन हमेशा कूदता रहता है। हमें मौन की भाषा सीखनी है तभी हम अपनी आत्मा की आवाज सुन सकेंगे। इसीलिए कई बार हम कहते हैं, “अपनी आत्मा से पूछो यदि हम चाहेंगे तो हमारी आत्मा हमें जरूर जवाब देगी।" मारने आने वालों ने ध्यान की शांति में देख लिया कि, ऐसा पवित्र तो कोई नहीं है, जिसके मन में भी कभी विकार न जन्मा हों। धीरे धीरे सब शर्मा कर वहां से चले गये।। संत ने औरत से कहा, “अब तुम जाओ अपने जीवन का नवसर्जन करो, जो इन्सान अंधेरे कुएँ से बाहर निकलता है, उसे ही नवप्रभात के सुंदर दर्शन होते हैं।' 'आत्मा सो परमात्मा' इसका अर्थ यही है कि हमारी आत्मा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ भी परमात्मा स्वरूप ही है परंतु कर्मों तथा वासना तले दबी हुई है। पापभीरू मन धीरे-धीरे कर्मों तथा पापों से मुक्त होकर परमात्मा के पूर्ण प्रकाश को प्राप्त करता है । उस भिखारी के मन में सोने के लिए उसके भीतर जो क्लेश जन्मा था, उसी का नाम, श्रेयस तथा प्रेयस का विवेक है। अपने मन को धोकर जो साफ करता है, वह श्रेयस का अभिनंदन करता है, परंतु आज तो अधिकतर लोग प्रेयस के ही रसिक हैं । चौकीदार रात भर आवाज करता रहता है, इसी तरह हमें भी अपने मन को प्रतिपल सचेत रखना है, इसके लिए शास्त्रों का सदैव पठन, चिंतन, मनन आवश्यक है। पापभीरूता का मतलब है हि हमें पाप नहीं करने चाहिए, और हो जाए तो अंदर उसका दुख होना चाहिए। जैसे बिस्तर में पिन या कंकड़ हो तो चुभते हैं, ऐसी ही बेचैनी पाप करते वक्त होनी चाहिए । “ऐसा नहीं कर सकता” यह आवाज स्वाभाविकता से ही आनी चाहिए, प्रतिपल मन जागरूक रखना चाहिए । यह कब संभव हो सकता है ? बाहर से धार्मिक कहलाने वाले कईं लोग हो सकते है, परंतु अपने मन का अंतर्निरीक्षण करना बहुत कठिन है । जीवन की अधिकतर क्रियाओं को वश में किया जा सकता है, सिवाय मन के। मन को वश करना अत्यंत कठिन है, जब तक यह वश नहीं होता, कुछ भी प्राप्त करना मुश्किल है। दो पाँच बार व्याख्यान सुनने से कुछ नहीं. हो सकता, अंतर में डुबकी लगाकर मन का संशोधन करना चाहिए, इसके लिए जन्मभर साधना की जरूरत है। हम सुनते है न, “जैसी करनी वैसी भरनी" यह कुदरत का नियम है, स्वयं महावीर प्रभु की आत्मा को भी एक भव में नर्क में जाना पड़ा था । कर्मसत्ता के सामने किसी की पेशकश नहीं चलती, वहाँ तो केवल आत्मा की करणी ही सहायक बनती है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जीवन में संयोगो के अधीन होकर हम फिसल न जाएं, इसके लिए यह छट्ठा सोपान मंत्र हमें मिला है। दुनिया में बलवान दिखते हुए व्यक्ति को भी, पापभीरूता का चिराग हृदय में सदा रोशन रखना है। ऐसे गुण धारक व्यक्ति की वाणी, विचार कैसे होते है? तथा परलोक में शांति कैसे प्राप्त होती है, यह बाद में सोचेंगे। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप पराजय पाप भीरू व्यक्ति का हृदय एक तरह से अभय होता है, किसी की परवाह नहीं करता। क्यों कि पाप को पराजित किया है उसने। अधिकतर लोग पाप से इसलिए डरते हैं, क्यों कि उन्हें भय है कि किसी को पता चल जाएगा तो क्या होगा? जब कि पापभीरू व्यक्ति पाप से डरता है, परंतु दूसरों से अभय रहता है, एक पाप कितने भय पैदा करता है, इसका एक उदाहरण देखते हैं। पापभीरू व्यक्ति मन, वचन, काया से नियमों को भंग नहीं करता। चोरी का माल लेना, बेचना, कर न भरना, प्रतिबंधित माल लेना या भेजना ऐसे काम न करके वह देश व कानून का भला करता है। आज तो पूरा समाज ही चोर बन गया है, केवल सरकार ही दोषी नहीं है। Every nation has a government it deserves. देश के प्रधान भी समाज में से ही चुने जाते है। इन्सान में यदि न्याय के प्रति कानून के प्रति आदरभाव नहीं हों, जीवन में सिद्धांतो का पालन नहीं हो तो राज्य चाहें जितने नियम कानून बनाऐं, वह भंग की करेगा। इन्सान को स्वयं को बदलने की, ईमानदार बनने की जरूरत है। मुंबई के एक न्यायाधीश थे, एक दिन अत्यंत जरूरी काम की वजह से, गति मर्यादा का भंग करके, पुलिस चौकी को भी पार करके, तेज रफ्तार से गाड़ी चलाकर आगे निकल गये। परंतु काम पूरा होते ही वे पुलिस चौकी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आए और नियम भंग करने के अपराध में अपना नाम स्वयं लिखाया। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही अपना न्यायाधीश बनना चाहिए, तभी समाज प्रगति करेगा । हमें राज्य के कायदे पापभीरूता पूर्वक पालने चाहिए, आज तो व्यापारी कायदे के पीछे फायदे ढूंढने में लगा हुआ है। जब तक इन्सान का हृदय परिवर्तन न हों, तब तक बाह्य कानूनों से क्या फायदा हो सकता है ? राज्य के कानूनों के पालन के साथ साथ व्यक्ति को समाजविरोधी कार्यो को त्याज्य, घृणास्पद मानकर चलना चाहिए। आज अपने यहां तो कोई ऐसी व्यवस्था ही नहीं है, व्यक्ति स्वछंदता पूर्वक व्यवहार करता है । एक काल ऐसा था जब इन्सान, स्वयं की, सभ्य समाज की तथा पवित्र लोगों की मर्यादा रखता था । न करने योग्य कार्य सभ्य व्यक्ति कैसे कर सकता है ? ऐसी मान्यता थी, आज तो स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का जीवन में प्रवेश हो गया है। पापभीरू व्यक्ति को समाज के श्रेयस्कर नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करना चाहिए । पापभीरू व्यक्ति की तीसरी दृष्टि, धर्म के प्रति उसकी समझदारी है। धर्म का दीपक चारों ओर प्रकाश फैलाता है, वह जानता है कि धार्मिक व्यक्ति को पाप करने की जरूरत ही नहीं है, कहते हैं कि, “धर्मो रक्षति रक्षितः ।" यदि इन्सान धर्म की रक्षा करेगा तो धर्म उसकी रक्षा करेगा। परंतु आज तो इन्सान धर्म को निष्फल कर रहा है, फिर जीवन का आधार क्या होगा ? किसकी शरण में जाएगा। धर्मवृक्ष को तोड़कर इन्सान शांति कहाँ से प्राप्त करेगा ? अतः कहा गया है कि " धर्मो हन्ति हन्तः । " मरा हुआ धर्म इन्सान को मारता है, जीवन की प्रत्येक क्रियाओ में जीवित धर्म ही हमें जीने की प्रेरणा देता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशठ यानि सुरीली संवादिता बहुत से लोग कहते हैं कि हमें मोक्ष स्वर्ग या निर्वाण याहिए, परंतु कहने मात्र से प्राप्त नहीं हो सकता, उसके लिए सद्गुण रूपी सोपान चढ़ने पडते हैं। इन सोपानों को चढ़ते हुए क्रमशः आनंद की प्राप्ति होने लगती है, सद्गुणों रूपी मुक्ति पाकर मोक्षरूपी साध्य की प्राप्ति कर सकते हैं । शठ व्यक्ति जो कुछ करता है, उसके पीछे हृदय का कलुष छुपा रहता है, उसकी आँखों में चेष्टाओं में, हावभाव में माया छलकती है । उसका हास्य और रूदन दोनों ही नकली होते हैं, उनकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर होता है । हास्य और रूदन दोनों में ही स्वार्थ की प्रधानता रहती है, वह रोता भी इसलिए है कि दूसरों को द्रवित कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर सके। ऐसा मायावी इन्सान कुछ लोगों की शाबाशी प्राप्त करके अपनी जीत समझता है, परंतु सच तो यह है कि वह अन्दर से हारा हुआ है । २० जिसकी करनी माया रहित, क्रूरता रहित होती है, वही सच्ची मानवता कहलाती है। पूज्य उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी महाराज फरमाते हैं कि कोई दिगम्बर रहे, वस्त्रधारण न करे, सूखा अन्न खाएँ, तपस्या करे, परंतु यदि उसका मन मायासे आच्छादित है, तो उसे असंख्य जन्म धारण करने पडेंगे। शठ व्यक्ति अपने आसपास माया जाल बिछाकर दूसरों को ठगता है, ऐसे व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता। इस जीवन में सबसे बडी उपलब्धि विश्वासपात्र होना है, जो विश्वासपात्र नहीं है, उसके पास सबकुछ हो हुए ७१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ भी, कुछ भी न होने के बराबर है, उसकी आराधना में भी दंभ है । तप में भी कपट है, वह सोचता है, सब लोगों को उसके पीछे रहना चाहिए, इस तरह छल, कपट, प्रपंच करने वाला कभी न कभी जरूर नीचे गिरता है । अशठ जीवन यानि क्या ? जैसा मन में वैसा वचन में, जैसा वचन में वैसा क्रिया में, तीनों में सुसंवादिता होनी चाहिए, सामंजस्य होना चाहिए। यथा चितं तथा वाचो, यथा वाचो तथा क्रियाः । धन्यास्ते त्रितयं येषां, विसंवादो न विद्यते । । बालक प्यारा क्यों लगता है ? क्यों कि वह दंभ रहित है, मन, वचन, काया तीनों में संवादिता है । बालक बडों का गुरू है। यदि गीत के सुर, वाद्य तथा ताल का सुमेल नहीं है तो संगीत कैसे प्रकट होगा ? इन तीनों का सामंजस्य यानि संगीत । आज तो हमारी आत्मा अलग गाती है, वाणी रूपी तबला अलग बजता है और क्रियारूपी पेटी अलग बजती है, जहाँ मन, वचन, क्रिया में विसंगतियां हों वहाँ सफलता कैसे मिल सकती है ? पहले के जमाने में घर के लोगों में ऐसी संवादिता थी, तब लोग सुखी थे। आज तो घर के लोगों के पास भी अपनी बात को सच सिद्ध करने के लिए सोगंध खाने पडते हैं । फिर भी लोग आधी बात ही सच मानते हैं, क्यों कि माया, झूठ बहुत बढ़ गये हैं । अभया रानी ने सुदर्शन शेठ को फंसाया, सुदर्शन शेठ ने अकार्य करने पर संयम रखा, तब रानी ने शेठ पर बलात्कार का आरोप लगाया । चिल्लाचिल्ला कर गाँव के लोगों को इकट्ठा किया, लोग रानी के पक्ष में आ गये । शेठ की पत्नी मनोरमा के कानों तक बात पहुंची । मनोरमा को अपने पति पर पूर्ण श्रद्धा थी, विश्वास था कि उसके पति पवित्र हैं, किसी भी नारी के रूप पर नजर तक नहीं करते । मनोरमा ने प्रार्थना की कि, "हे दिव्य तत्त्व ! यदि हमारा शील और दाम्पत्य जीवन शुद्ध और पवित्र हों तो आप प्रसन्न हों, प्रकाश की प्रतीक्षा में, मैं अन्नजल का त्याग करती हूं।" Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ शेठ पर सम्पूर्ण श्रद्धा थी, उनके मन, वचन, काया के सामंजस्यपूर्ण संगीत को जीवन भर सुना था, इसीलिए गाँव चाहें जो कह रहा था, मगर उसे सम्पूर्ण विश्वास था अपने पति पर। शासन देव पधारे, उसकी अपूर्व श्रद्धा से शूली भी सिंहासन बन गया, इस तरह इन्सान अपने गृहस्थाश्रम को पवित्रता द्वारा स्वर्ग बन सकता है। परंतु अंतर्वृत्ति न बदले, तब तक जीवन परिवर्तन नहीं हो सकता, इसके लिए प्रथम मन को बदलना जरूरी है। जिसे साधु बनना है, उसे अपनी वृत्तियों को विरक्त बनाना है। जो विरक्त नहीं, वह साधु बनकर भी छुपके छुपके धन, मान, वस्तुओं का संग्रह ही करेगा, क्यों कि उसकी वृत्तियां बदली नहीं हैं। वृत्तियों की निर्मलता ही धर्म है, वृत्तियां निर्मल बनती हैं, फिर संग्रह वृत्ति छूट जाती है। परिग्रह भाररूप लगता है। जैसे बालों के बढ़ने पर भार महसूस होता है। ऐसे ही शुद्ध वृत्ति वाले व्यक्ति को परिग्रह बढ़ने पर भाररूप लगता है। अतः वह भार कम करने के लिए दान की सरिता प्रवाहित करता है। __ आज के धनिक समझते हैं कि साधुओं को भी उनके बिना कहाँ चलने वाला है? और वो समाज के उद्धारक हैं, ऐसा गर्व करते हैं। इस दृष्टि को बदलने की आवश्यकता है। __ आज से सोलह वर्ष पहले की यह बात है, एक सज्जन संस्था का संचालन करते थे। उनके पास एक अन्य सज्जन आए और कहा “ये तीन लाख रूपये ले लो।' सज्जन ने मात्र एक लाख ही लिए, दूसरे वर्ष फिर आए, तब भी उन्होंने एक लाख रूपये ही रखे, तीसरे वर्षभी ऐसा ही किया। उन सज्जन ने प्रेम से पूछा, “आपने एक साथ तीन लाख क्यों नहीं रखे?' दूसरे सज्जन ने जवाब दिया, “यदि एक साथ रखे होते तो आपको गर्व आ जाता, दान नम्रता के बदले अहंकार में बदल जाता। पैसे के लेन-देन से व्यक्ति का दान भाव अधिक बड़ा है। बड़ी रकम को बैंक में जमा कराने जाना पडता है यह तो ठीक, परंतु निस्वार्थ भाव से काम करने के लिए मदद मिल ही जाती है, यह मेरी श्रद्धा और विश्वास है। यदि तीन लाख रूपये एक साथ ले लेता, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ तो मुझे अपने आप पर तथा मेरे काम पर विश्वास नहीं रहता।" दान देने से अधिक आनंद, देने की भावना का है, अर्पण भाव में आनंद है। अर्पण भाव बिना अमरता की पगडंडी हाथ लगने वाली नहीं इसके लिए निष्कपट, नि:स्वार्थ दान आवश्यक है। बादल बरस कर हल्के होते हैं, वैसे ही दान देकर हमें हल्केपन का अनुभव करना है। चित्त की उदारता बिना, कोरी आराधना निष्फल है। हमें अपने चित्त को इस प्रकार गढ़ना है कि दान की भावना हमेशा जागृत रहे। __यह सातवां सद्गुण है। अशठता में, अर्थात शठता को त्यागने वाला इन्सान निर्मल हृदयवाला होता है, उसका अंतःकरण पारदर्शी होता है, चित्त, वाणी, क्रिया में सुसंवाद होता है। ऐसा व्यक्ति विश्वसनीय, प्रशंसनीय होता है, उसकी बुद्धि उन्नत तथा तलवार की धार जैसी तीक्ष्ण होती है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मी जीवन की सफलता जो व्यक्ति माया, कपट रहित है, उसका मन स्फटिक की भांति निर्मल होता है। जो कपटी हों, मन से मलिन हों, उसकी गणना यदि धार्मिक में हो सकती है तो मात्र उसके बाह्य आडम्बरों के आधार पर। परंतु वह विश्वसनीय नहीं हो सकता, लोग कहेंगे उसका मन स्वच्छ नहीं है, उससे सावधान रहना। धार्मिक व्यक्ति का विश्वसनीय होना जरूरी है, ईर्ष्यालु या कपटी नहीं। ईर्ष्यालु व्यक्ति के मन को कोई नहीं जान सकता, तथा वह दूसरों के मन की बात जाने बिना रहता नहीं। धार्मिक व्यक्ति, स्त्री, बालक, वृद्ध चाहें जिसके पास चला जाए, उसके चरित्र, उसकी सरलता और उसके क्रिया कलापों से किसी को किसी प्रकार का भय नहीं सताता, जो मायावी नहीं, वह सच्चा अशठ। ऐसा व्यक्ति ही विश्वसनीय, प्रशंसनीय बन सकता है, दीर्घकाल के लिए। धार्मिक व्यक्ति को भावनाशील होना चाहिए, ऐसी भावना लाने के लिए अंदर की कुटिलता दूर करनी चाहिए, वरना फूल जैसे कोमल भाव, कुंठित हृदय में कैसे टिक सकते हैं। उर्वर जमीन में ही बीज, पानी मिले तो पौधा उग सकता है, वैसे ही हृदय की सरलता रूपी खाद मिलेगी, तभी धर्मभावना टिकी रह सकेगी। दुनिया में चमत्कारों से लोगों को प्रभावित करना आसान है, परंतु जिनका मन एवं हृदय शांत है, ऐसे लोग तो विरले ही होते हैं। जगत में ७५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैसे, प्रतिष्ठा, कीर्ति, मान वाले बहुत मिलेंगे, मगर मन को सदा प्रसन्न रखने वाले बहुत कम है। हाँ कृत्रिम आडंबर वाले, कामी लोग भी ऐसे ही बोलते है कि “संसार असार है'' अत : कहा है "वैराग्यरंग: परवंचनाय धर्मोपदेशो जन रंजनाय। वादाय विद्याऽध्ययनं च मेऽभूत क्रियब्रुवे हास्यकरं स्वमीश।" ऐसे लोग अन्य लोगों का मनोरंजन करने में सहायक बनते हैं, उनके लिए कृत्रिमता, आडंबर और दूसरों की सहायता, इन तीनों बातों से प्रसिद्धि आसान बनती है। ऐसे लोगों के छोटे छोटे काम पैसे के कारण बडे बन जाते हैं। मुँह पर नकली भाव बताते हैं, ऐसे लोग बाहर से त्यागी दिखते हैं, यह इनकी बाह्य चेष्टा है, इससे लोगों का मनोरंजन होता है, मगर अंदर से आत्मा तो कुटिल व मलिन ही होती है। ऐसे लोग बाह्य आडंबरों का खूब प्रयोग करते हैं। शिष्यों की टोली, प्रशंसा करनेवाले भक्तों के झुंड, पैसे खर्च करके अखबारो में खूब प्रचार करना इत्यादि इनके प्रपंच है। कृत्रिमता, आडंबर तथा पैसे खर्च करके इश्तिहार छपवाना इनके लक्षण होते हैं। जगत में ऐसे लोगों की प्रथम तो वाहवाह होती है परंतु फिर रह जाती है, हवा-हवा। यह सब करने से मनोरंजन तो होता है, परंतु मूल्यांकन करने की शक्ति आत्मा में होती है, आत्मा ऐसे बाह्य आडंबरो से नहीं अपित्तु सत्य आचरण से प्रसन्न होती है। बहुत से लोग काम करके अपनी प्रतिष्ठा या प्रशंसा करवाते हैं, जब कि शुद्ध भाव रखने वाले लोगों की भी प्रशंसा तो होती है, मगर उन्हें इसकी लालसा या ऐषणा नहीं रहती। नाम मिले तो उसे रोका नहीं जा सकता, परंतु नामना की स्पृहा को तो रोक ही सकते हैं। फूल के पास आकर भ्रमर गुंजन करता है, इसमें फूल का दोष नहीं, यह गुंजन स्वाभाविक है। वैसे ही इन्सान यदि लायक है, और उसे प्रशंसा मिले तो ठीक है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा तो वास्तविकता के दर्शन से ही खुश होती है, भ्रमर का गुंजन तब तक बंद नहीं होता, जब तक वह पराग का रसपान नहीं कर लेता। इसी प्रकार जब तक वास्तविक, गुणों का दर्शन न हों, आत्मा प्रसन्न नहीं होती। अपने स्वजनों को देखकर आह्लाद, रोमांच तभी होता है, जब वास्तविक स्नेह हों। ___हमारा मन वास्तविकता की राह छोडकर कृत्रिमता में ही लगा रहता है। हम पूरे समय दूसरों का विचार, ध्यान करते हैं, अपना ध्यान नहीं करते, जब कि करना चाहिए अपनी अत्मा का ही ध्यान। प्रत्येक कार्य प्रत्येक प्रवृत्ति करो, परंतु हर बार अपने मन से पूछो कि इससे मेरा मन या आत्मा प्रसन्न हुई है? यदि नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई? अपनी भूल खोजकर भविष्य में ध्यान रखना ही हमारा कर्तव्य है। केवल व्याख्यान सुनना ही पर्याप्त नहीं, सुनकर विचार करना चाहिए की क्या मिला? कौन सी नयी दृष्टि प्राप्त हुई ? कौन सा दोष दूर हुआ? किस सद्गुणों को पोषण मिला? ऐसा प्रयत्न करते रहने से ही मन इसमें तल्लीन होगा और आत्मा वास्तविकता की तरफ मुड़ेगी। संगीत हमारी आत्मा को आह्लादित करता है, स्तवन गाते समय उसमें मन तन्मय हो जाना चाहिए, यदि गाएं तो ऐसा गाएं कि अपना तथा दूसरों का मन आह्लादित हो उठे। ऐसी दृष्टि जागृत हुए बिना सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। ___इन्सान सब कुछ छोड सकता है, माया नहीं छोड सकता। साधु, कंचन, कामिनी को छोड़ देते है, परंतु कीर्ति की भूख नहीं छोड़ सकता। व्यक्ति अपने आप को, अपने कार्य को पहचान ले, तभी भवसागर से तैर सकता है। जो गलत को गलत नहीं समझता, अपनी भूलों को नहीं देख सकता, उसके समान दुनिया में हतभागी और कोई नहीं है। कुसुमपुर नामक नगर में दो साधु एक मकान में रहने आए, एक त्यागी थे, परंतु थे आडंबरी, दूसरा शिथिल, सरल पर गुणवान। मकान मालिक सरल साधु के पास आए, तब उसने उस आडंबरी साधु की प्रशंसा की, गुणगान Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ किए यह साधु गुणानुरागी था, शेठ ने उन्हें उपदेश देने को कहा, तब उन्होंने कहा कि उपदेश तपस्वी साधु देंगे। अब शेठ तपस्वी और आडंबरी साधु के पास आए, उस साधुने तो गुणानुरागी साधु की निन्दा करनी शुरू कर दी। ऐसा करने से आडंबरी साधु की भवपरंपरा बढ़ गई और उस सरल साधु को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। इन्सान इतना बौना बन गया है कि दूसरों की विराटता के दर्शन कर ही नहीं सकता। स्वयं छोटा है, यह जानकर उसे इर्ष्या होती है। परंतु जब विराटता आती है, तब अपने बडे सद्गुण छोटे लगते हैं, और दूसरों के छोटे छोटे गुण बडे दिखते हैं। जो अपने को छोटा तथा दूसरों को बड़ा समझता है, वही जीवन में विकास कर सकता है, कहा भी है कि परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यम्। निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।। अपना कार्य दूसरों की अनुमोदना करना है, न कि निन्दा करना, वास्तविकता को देखने वाला अपनी भूल देख सकता है, इसीलिए उसके सुधरने की संभावना रहती है। अकबर ने एक बार बीरबल से कहा कि, “इस मेरी लाइन को बिना काटे छोटी कर दो।" सबने सोचा यह कैसे हो सकता है ? परंतु बीरबल ने उस पंक्ति के पास ही दूसरी बडी रेखा खींच दी, वह रेखा स्वतः छोटी हो गई। हमें यह बोधपाठ लेना चाहिए, दूसरों को छोटा बनाने के बजाय, हमें विराट, बडा बनने के कोशिश करनी चाहिए। यदि हम ईर्ष्या वश होकर दूसरों को छोटा दिखाने की कोशिश में ही लगे रहेंगे तो हम बडे कब बनेंगे? दुनिया सद्गुण, दुर्गुण के भेद पूरी तरह समझती है, उसे समझाने की जरूरत नहीं। हमें दूसरों को दुर्गुणी न कहकर स्वयं सद्गुणी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ एक जगह दो वृद्ध स्त्रियां रहती थी । एक का नाम था रिद्धि, दूसरी का नाम था सिद्धि। सिद्धि ईर्ष्यालु थी, पहले वह पेन्सिल जैसी थी अब सुई जैसी हो गई थी, ईर्ष्या में जलजलकर । उसने सोचा "उस रिद्धि की संपत्ति का नाश करूं तब ही मुझे चैन मिलेगा ।" उससे दूसरों की महानता, उत्कर्ष देखा नहीं जाता था । इसलिए उसने तप करके देव को प्रसन्न किया, देवने पूछा, "इस तरह जल क्यों रही हो?" उसने कहा, "रिद्धि का उत्कर्ष देखकर मैं जल रही हूं, हे देव मुझे सुखी करो और उस रिद्धि को दुखी करो। " देव ने कहा यह नहीं हो सकता, क्यों कि उसका पुण्य प्रबल है, परंतु यह हो सकता है कि तुम जितना मांगोगी उससे दुगुना उसे मिलेगा । सिद्धि ने कहा, “ठीक है ऐसा करो। " देव ने कहा, “तथास्तु ।” सिद्धि ने एक घर तथा उसके सभी कमरों में एक एक कुआ मांगा, अब रिद्धि को दो घर तथा हर कमरे में दो दो कूए मिले। अब सिद्धि ने कहा “मेंरी एक आँख फूटे, जिससे उसकी दोनों आँखे फूट जाए, वह अंधी हो जाए, और कूए में गिर पड़े।" आपने देखा, ईर्ष्या में जलती हुई सिद्धि अपनी एक आँख फोडकर भी उसे अंधा बनाना चाहती थी। व्यक्ति की तुच्छता, ईर्ष्या, छिछोरेपन के कारण आज घर-घर में कलह हो रहे हैं । खाना मिल रहा है, कपडे है, पैसे हैं, फिर भी देवरानी-जेठानी में छोटी छोटी बातों को लेकर झगडे हो रहे हैं । जीवन में यदि सुखी होना है, तो छोटी छोटी बातों की उपेक्षा करके उदारता अपनानी पडेगी । हमें बीरबल की बड़ी रेखा और सिद्धि की ईर्ष्या को ध्यान में रखना होगा । जिन्हें धर्म में आगे बढ़ना है, उन्हें दुसरों की रेखा को छोटी करने के बजाय अपनी रेखा को बडी करनी चाहिए । यही जीवन की सफलता का सच्चा मंत्र है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदाक्षिण्य आठवाँ गुण सुदाक्षिण्यता गुण, जो हमें शुभकार्य करने की प्रेरणा देता है। जीवन में यदि यह गुण न हों तो इन्सान स्वार्थी बन जाता है, स्वार्थ में पागल होकर, वह कुत्ते की भांति, रोटी के लोभ में लकडी की मार भी खा लेता है। पर मनुष्यता पाने के लिए तो परमार्थ के तत्त्व को अपने भीतर विकसित करना होगा। सुदाक्षिण्यता गुण वाले आदमी के पास कोई दुःखी आए तो वह मदद जरूर करता है, ऐसे व्यक्ति के पास लोग अपना हृदय खोल सकते हैं, दुःख हल्का कर सकते हैं, ऐसे लोग आज कम दिखाई देते हैं। हमें यह कमी पूरी करनी है। शहरी लोगों के जीवन में स्वार्थ विशेष रूप से दिखाई देता है, उनका हर कदम गणनापूर्वक होता है। झोंपडे से महल बन जाए तो भी स्वार्थ वृत्ति बनी ही रहती है। जब तक इन्सान केवल अपना ही विचार करेगा मानवता कहाँ खिलेगी। यदि जीवन को हराभरा रखना है तो हृदय में सुदाक्षिण्यता की आर्द्रता होनी जरूरी है। ऐसे गुणधारक व्यक्ति का हृदय स्नेहमय होता है, वह दूसरों के दुःख दूर करने के लिए सदा तत्त्पर रहता है। ऐसे लोग गाँवो में थोडे जरूर मिल सकते है, शहरों में तो दूसरों की बात सुनने की फुर्सत ही कहाँ ? फिर सहायक बनना तो दूर की बात है। एक शहर के नगरशेठ गुजर गये, तब उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कवि ८० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघाणी ने कहा कि, “यह व्यक्ति बडे थे परंतु उनका चबूतरा छोटा था। इसलिए राह चलता कोई वृद्ध भी बिना काम उनके पास जाकर शिकायत कर सकता था। यह नगरशेठ सबकी सुनते थे, इनके द्वार सबके लिए खुले थे।" दरवाजे बंद करके बैठने वालों के पास कौन जाएगा। व्यक्ति जैसे जैसे बडा होता है। उसमें गुणों की भी वृद्धि होनी चाहिए, छोटे लोगों के साथ संबंध बढ़ना चाहिए। उनके दु:ख सुनकर सहानुभूति दिखानी चाहिए, कुटुंब में एक व्यक्ति भी ऐसा हों तो दूसरों में भी धीरे-धीरे ये सद्गुण विकसित हो जाएंगे। “महाजनो येन गतः स : पन्थाः " घर के बुजुर्गों को पहले अपना जीवन दाक्षिण्य गुण सम्पन्न, पवित्र, परोपकारी बनाना चाहिए, फिर छोटे भी उनका अनुकरण करेंगे। ऐसे भाववाले व्यक्ति अपने तथा दूसरों के लाभ का विचार करके प्राथमिकता के आधार पर कार्यों को अंजाम देते हैं। यदि दूसरों का काम ज्यादा जरूरी है तो वो पहले करते हैं। ऐसा व्यक्ति सभी का मददगार हो सकता है। कुछ लोग तो "समय नहीं है" कहकर अपना बचाव करते हैं। सच्चा उद्यमी व्यक्ति समय में से समय निकालकर परोपकार करता है। भगवान महावीरने पच्चीस सौ वर्ष पहले कहा था कि "हे गौतम एक पल का भी प्रमाद मत कर।" प्रमाद तो दीमक की भांति सद्गुणों का नाश कर देता है। बहुत से लोग सुबह जागने के बाद भी बिस्तर में तंद्रा, आलस्य में पड़े रहते हैं, व्यर्थ के विचारों में कई घंटे बरबाद करते हैं। ऐसे लोगों को व्यर्थ समय गंवाना ही नहीं चाहिए। आँख खुलते ही बिस्तर से उठकर परमात्मा . का नाम लेना चाहिए, सुंदर विचारों द्वारा काम में लगना चाहिए, काम करने से किसी की आत्मा थकती नहीं और न ही कोई बूढ़ा होता है। काम से तो व्यक्ति तंदुरस्त रहता है। धर्म इन्सान को कभी निर्माल्य नहीं बनाता। धर्म का काम तो “मृत्यु मेरा विश्राम है, मित्र है" इसका बोध कराकर आगे बढ़ाना है। धार्मिक को मृत्यु का भय कभी नहीं सताता, वह जानता है कि अखंड जीवन यात्रा में, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जीवन और मृत्यु तो दो सीढ़ियां हैं और मोक्ष उसका धवल शिखर। धर्मी, परोपकारी व्यक्ति को “ग्राह्य वाक्य' कहते हैं, उसका वचन निकलने से पहले ही लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं। परंतु ऐसा कब संभव होता है? जब हमने लोगों के लिए कुछ किया हो तो। दूसरों की उपेक्षा करके, हम अपेक्षा कैसे रख सकते है? कभी हम शिकायत करते हैं कि “उसने मेरा काम नहीं किया। उसके पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या हमने उसके लिए कभी कुछ किया है?" आज बालक और माँ बाप, शेठ और नोकर, सास-बहू, मंत्री और प्रजा, सब एक दूसरों से यही प्रश्न पूछते हैं “तुमने हमारे लिए क्या किया?" चुनाव के समय वोट हासिल करके, क्या नेता वापस मुँह दिखाते है ? परंतु फिर भी यह अपेक्षा तो रखते ही हैं कि प्रजा हम जैसा कहें वैसा करे, हमें ही मत दे वगैराह। मात्र भाषण देना ही तो सेवा नहीं है न। पालीताणा में आगम मंदिर का काम चल रहा था, उस समय की बात है। आगम संशोधन का काम पूज्य आचार्य श्री आनंदसागरसुरिजी महाराज अविरत कर रहे थे। वो इतना परिश्रम कर रहे थे कि उन्हें देखकर दूसरों को थकान लग जाए। एक दिन मैंने पूछा “महाराजश्री आप इतना कष्ट क्यों उठा रहे हैं ?" उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा "इसमें कोई कष्ट नहीं है, बल्कि स्वाध्याय की मौज है, इस समय तो प्रत्येक पल को ज्ञान से भरना है, अधिक समय ही कहाँ है?" ऐसे समर्थ ज्ञानी गुरू भी यदि कोई साधु बिमार हों तो, उन्हें शाता पूछने के लिए काम को छोड़कर चले जाते थे, उनकी सुश्रूषा करने। ज्ञान के साथ सुश्रुषा तथा श्रम करना भी ज्ञानियों को सीखना चाहिए। विक्टर ह्युगो का एक प्रसंग आता है, वह एक सामान्य पादरी था, रास्ते में एक बार एक फोड़े वाले आदमी को देखा, वह पीड़ा से कराह रहा था। पादरी वहाँ रूके उसकी मदद की, अपना काम छोडकर। कई लोग चले जा रहे थे, किसी ने मदद नहीं की, परंतु सबने मन ही मन यह अवश्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा कि “वाह कितना सेवाभावी है यह इन्सान" यह कार्य हजारों के लिए प्रेरणादायी बना। इस इन्सान को महान बनानेवाला कौन? उस फोडे वाले आदमी की सेवा का प्रसंग। ऐसे परोपकार के निमित्त में ही स्व-उपकार निहित है, पड़ोसी के घर की आग बुझाएंगे तो अपना घर भी सलामत रहेगा। दूसरों पर गुलाब जल छिड़केंगे तो सुगंध से सराबोर आप भी होंगे। परोपकारी लोगों की बात दूसरे लोग फौरन स्वीकार करते हैं, वरना तो बूढा पडापडा चिल्लाता रहता है, “अरे कोई पानी तो पिलाओ।" तब घर वाले कहते हैं, “तुमने कब किसी को पानी पिलाया है ? कि पानी मांग रहे हो।" ऐसी दशा हमारी न हों उसके लिए हमें जागृत रहना है। यह सच है कि समाज कभी कृतघ्न नहीं बनता, पूरा फूल नहीं तो फूल की पंखुडी वापस करता ही है। बीज बोया है तो फल जरूर मिलेगा। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाक्षिण्यमयी दान भावना सुदाक्षिण्यवान आत्मा कैसी होती है? यह हम देख रहे हैं। अपने कुटुम्ब के लिए तो पशुपक्षी भी प्रयत्न करते हैं, मकड़ी के जाले को देखकर कलाकार स्तब्ध रह जाता है, कई बार पशुपक्षी मानव से ज्यादा अच्छी तरह काम करते हैं। पशुपक्षीओं का अपने कुटुम्ब के प्रति समर्पण तो देखिए। एक दूसरे के लिए कितना प्रेम? है मानव में ऐसी वफादारी? पशुपक्षी गर्मी, सर्दी, बरसात इत्यादि सहकर भी साथ रहते हैं, जब कि इन्सान अपने बच्चे, पत्नी को छोड़कर क्लबों में घूमता है। क्या मानव आज पशुपक्षी जितना भी करता है? मकड़ी का जाल या सारस की जोड़ी को जरा देखिए, वो एक दूसरे के वियोग में प्राण त्याग देते हैं। ईश्वर की भक्ति को भी कवि ने पक्षी की उपमा दी है, “है प्रभु मैं तुझे चक्रवाक और चक्रवाकी की तरह चाहता हूं। वो दोनों जैसे एक दूसरे के लिए तड़पते हैं, वैसे ही मैं तेरे दर्शन के लिए तड़पता हूं।" यह सुंदर उपमा हमें पक्षियों से मिलती है। हमारा दाम्पत्य जीवन चक्रवाक तथा चक्रवाकी की तरह है, पक्षी में दिल और भावना की एकता होती है। तड़पते हुए सारस की अंतरव्यथा देखें तो पत्ता चलेगा कि प्यार किसे कहते हैं? परंतु अमर होने का अधिकार तो सिर्फ मनुष्य को ही मिला है। मनुष्य को पक्षी की भांति साथ रहकर केवल मरना ही नहीं है, अपितु अमर होना ८४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जब से इस जन्म मरण की गाड़ी में हम बैठे हैं, तब से यह अपने अंतिम ध्येय की ओर आगे बढ़ती ही जा रही है। बातों में और प्रवृत्ति में जीवन बीत रहा है, काल के प्रवाह में इस जीवन प्रवाह को हमें ध्यान से देखना है। क्षण-क्षण के अनंत खंडो से बना यह जीवन का काल प्रवाह कैसा अखंडता का भ्रम पैदा करता है? काल के इस प्रवाह में कभी न कभी तो दो आत्माएँ अलग होने ही वाली है। नेम-राजुल की जोड़ी जैसी उदात्त, उर्ध्वगामी बनने की कल्पना हमें कभी आती है? मोक्ष में भी यदि हम साथ रह सकें तो इसी का नाम आदर्श जीवन है। ऐसे जीवन में एक दूसरे के पूरक बनकर रहना है। जहाँ जीवन में मर्यादा, संयम होना चाहिए वहाँ आज पशुता के दर्शन होते हैं। श्रवण किए हुए विचारों का चिंतन होना चाहिए, जिससे हम उर्ध्वगामी बन सकें। माँ हाथ पकड़ कर बालक को एक-एक सीढि चढाती है, वैसे ही ज्ञानी धर्मरूपी सीढ़ियों पर चढ़ कर उपर ले जाता हैं। इसमें एक सीढ़ि सुदाक्षिण्य भाव की है, इस भाव को धारण करने वाला व्यक्ति स्वोपकार के साथ परोपकार करने से भी पीछे नहीं हटता। एक गाँव में एक फौजदार बहुत क्रूर था, उसकी एक आँख नकली थी, पर इतनी सुंदरथी कि कोई जान ही नहीं पाता था, कि वह नकली है। उसके पास एक चतुर अपराधी आया, उसने सोचा इसकी परीक्षा ली जाए। उसने अपराधी से कहा “मेरी कौन सी आँख नकली है? सही जवाब देने पर तेरी सजा माफ कर दूंगा।" अपराधी ने कहा, “बांयी आँख।" फौजदार ने कहा, “तुमने कैसे जाना?'' उसने कहा, “आपकी बांयी आँख में मुझे दया का अंश दिखाई देता है।" कहने का आशय था कि सच्ची आँख में केवल क्रूरता है, दाक्षिण्य भाव नहीं है। फौजदार को एक नयी सीख मिली। जहाँ स्वार्थ है, वहाँ से सुदाक्षिण्य भाव विदा हो जाता है, दुनिया में हम आए हैं तो दुनिया के काम हमें करने चाहिए। कम से कम रोज एक काम हम परोपकार का करें ताकि रात्रि में सोते वक्त उसका सात्विक आनंद उठा सकें। जिसे दूसरों की पीड़ा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अपनी पीड़ा लगे, अंतर में समभाव रहे, वह दाक्षिण्यवान व्यक्ति है। ये सद्गुण खरीदे नहीं जा सकते, न ही अचानक आ जाते हैं, यह तो साधना है, जागृति की। ___ आदि कालीन आदतें एकदम से नहीं छूटती। बीडी, तम्बाकू आदि की आदतें हमारे अन्दर घर कर जाती है, उन्हें छोड़नी मुश्किल हो जाती है, फिर ये तो दुर्गुणों की आदते हैं, आदि कालीन है। तैली के कपड़ों को खूब धोने से वे भी साफ हो जाते हैं, सतत धोने से अधिक साफ हो जाते हैं। इसी तरह अपने मन को साफ करने के लिए ध्यान रूपी साबुन का प्रयोग किया जाए तो मन पर लगे दाग भी दूर किए जा सकते हैं। दुष्ट व्यक्ति दान देगा, गलत तरीके से पैसा आएगा तो भगवान से कहेगा “प्रभु! आप दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बना देते है तो क्या काले धन को सफेद नहीं बनाओगे?" यह कोई दान नहीं है, बिगडा हुआ अनाज जब घर में नहीं रख सकते, तब उसका दान देना क्या सच्चा दान है? दान तो अपनी प्रिय वस्तु का, ऊंची चीज का देना चाहिए, वही दान फलता है। ___ नचिकेता ने अपने पिता को बूढी गायों का दान देते देखा तो पूछा "आप ऐसी गायों को ही दान में क्यों देते हैं ?'' यह सच्चा दान नहीं है। ऐसी ही महासती द्रौपदी के पूर्वभव में एक घटना घटी थी। साधु को कडवी धीया की सब्जी दान में दी थी, परिणाम यह हुआ कि उसके असंख्य भव बढ़ गये। दान तो श्रेष्ठ वस्तु का तथा प्रेमपूर्वक ही होना चाहिए, यह हमारे उदार दिल तथा भावों का प्रतीक है। बिना भावपूर्वक दिया हुआ दान केवल लेन-देन बनकर ही रह जाता है, ऐसे दान से तो केवल प्रशंसा, प्रतिष्ठा, कीर्ति आदि खरीदने के बराबर है, दान कोई व्यापार नहीं, व्यापार के लिए तो दूसरे कई क्षेत्र हैं। सच्चा दान मनुष्य के संकुचित मन को विकसित बनाने का सुंदर साधन है, यह संग्रह वृत्ति का नाश करता है। दान देने वाले थोड़े लोग भी होंगे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ तो यह प्रवाह चालू रहेगा, वस्तु के प्रतीक रूप दान देने से नयी चेतना प्रगट होती है। ऐसे आदर्श दान के दो किस्से ध्यान में लेने योग्य है। सूरत में एक आगम मंदिर बनवाने की चर्चा चल रही थी, पूज्य सागरजी महाराजने फरमाया कि, “घर घर मांगने जाने की जरूरत नहीं है, जिसका भाव होगा वह लाभ ले लेगा।" एक पेढ़ी रखी गई, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चौबीस घंटो में एक लाख दस हजार रूपये इक्ठे हो गये। किसने कितना दिया, कुछ पता नहीं। इसका नाम है सच्चा दान। दूसरा प्रसंग है, थोड़े समय पहले हुए रेलसंकट तथा अतिवृष्टि का। गाँव के लोग एक सज्जन के घर गये और विनती की इक्यावन रूपये देने की, मगर उन्होंने कहा कि वे सिर्फ इक्कीस रूपये ही देंगे। अब शाम को सब इक्ट्ठे हुए, चर्चा चली कि, “वो भाई कितने कंजूस है? इक्यावन रूपये भी न दे सके।" सबने निंदा, टीका की। तब एक वृद्ध बोल उठे, “भाईयों समझे बिना टीका नहीं करो। उस शेठ को पैसे देकर नाम नहीं करना था, वरना आज अखबार में जिसकी बात लिखी है कि अनाम रहकर, जिन्होंने इक्कीस हजार का दान दिया है, वह यही श्रेष्ठी हैं।" इस तरह सच्चा दान तो अपने आंतरिक आनंद के लिए दिया जाता है, नाम करने के लिए नहीं। आपके शरीर को मिले नाम, किराये के हैं नाम माता-पिता या किसीने भी रखे हों। इन नामों के पीछे हम पूरी जिन्दगी खत्म कर देते हैं, परंतु अपने अंदर छुपा हुआ तो अनामी, अरूपी है, इसका दर्शन प्रतीति धर्म का हेतु है। अपना जीवन केवल पानी बिलोने की प्रवृत्ति ही न बनकर रह जाए,यह ध्यान रहे। कहा है कि तेरे कार्य “आत्मप्रीत्यर्थे' कर। अंतरआत्मा को आनंद मिले, ऐसा जीवन जीएं, क्यों कि मन और इन्द्रियों की तृप्ति क्षणिक है, आत्म तृप्ति ही शाश्वत है। प्रवृत्तियां नाम के लिए है, या अंदर बैठे हुए उस अनामी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा के लिए? सोचिए। उतुंग शिखरों पर विपुल मंदिरों की नगरी यानि पालीताणा, जग विख्यात है। परंतु ये मंदिर किसने बनवाए ? क्या आप जानते हैं ? ये तो कितने ही . अनामी हृदयों की भावनाओं का अर्पण है, प्रेम का परिश्रम है। महामंत्री बाहड मंदिरों का जिर्णोद्धार करवाना चाहते थे, परंतु गाँव के लोगों की भी ऐसी भावना थी कि वे लाभ लें। इन उत्तम भावनाओं से इस मंदिर नगरी का निर्माण हुआ। सबने लाभ लिया है। यदि हम यहाँ नहीं देंगे स्वेच्छा से तो, काल मर्यादा पूरी होने पर जबरदस्ती छिन जाएगा, यह हमारी पामरता है। मृत्यु पश्चात् हम कुछ भी साथ नहीं ले जा सकते, यह जानते हुए भी हम छोड नहीं सकते। देने से विराटता प्रगट होती है, जमा करके रखने से इन्सान बौना ही बना रहता है। ___ मानव के लिए भावनाओं का भोजन यानि दिल की विशालता। असीम और सीमाबद्ध दोनों ही शक्तियां हमारे अन्दर मौजूद हैं। ऐसी ही असली शक्ति का प्रदर्शन भीमा कुंडलिया ने दिखाया था। जीर्णोद्धार की बात भीमा के कानों में पडी। दान का प्रेम जगा, उसने सोचा “मेरे पास जो है, मैं भी उस सबका दान क्यों न कर दूं?" एक सामान्य आदमी, घी का व्यापारी, सब मिलाकर केवल डेढ रूपये की पूंजी। कपड़ों पर घी तथा धूल के धब्बे, मैले कुचले वस्त्र, परंतु दान की भावना प्रबल। दान भाव लाखों के आधार पर नहीं टिका है। मन के उत्कृष्ट भावों पर आधारित है। उसे बस अब दान देने की बेचैनी होने लगी, जैसे बादल भरते हैं तब बरसने की चाह जगती है। इन्सान में भी ऐसे ही देने की चाह जागृत होनी चाहिए, कि वक्त आने पर अपना सब कुछ लुटा दूं। भीमा अपना सर्वस्व, जीवनआधार, धंधे की पूंजी यानि डेढ रूपया लेकर बाहड मंत्री की हवेली पर आया। उसने देखा हजारों धनवान लोग वहाँ लाखों स्वर्ण मुहरें, रत्न अर्पण करने को तैयार है, उसने सोचा “यहां मेरा भाव कौन पूछेगा।" मन निराश हो उठा, दूर खडा वह देख रहा है कि बाहड Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ मंत्री के साथ लोग दान देने हेतु मीठी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं । " गले में रत्नों की मालाएं धारण करने वाले शेठ लोगों के सामने मेरे डेढ रूपये की क्या कीमत? ऐसे कपडो में मुझ जैसे निर्धन को खडा भी कौन रखेगा ?” दूसरों का वैभव देखकर उसका मन भर आया, सोचने लगा “मैं कैसा अभागा ?" आकर एक पेड की छाँव में बैठ गया। उसके मन में उथल-पुथल चल रही थी “मैं वहाँ गया, परंतु मैंने मंत्री को ऐसा कब कहा कि लो ये मेरी भेंट | यदि ऐसा करने के बाद स्वीकार नहीं किया होता, तो में समझता कि मैं अभागा हूं। मुझे वापस जाना चाहिए।" फिर हवेली के पास आया, मंत्री की नजर उस पर पडी, मंत्री ने सोचा, “ शायद उसे पैसों की जरूरत है, मुझे देने चाहिए।” यह सोचकर वह भीमा के पास आए, सब काम छोडकर क्या हम ऐसा सोचते हैं ? जब ऐसा भाव जगेगा, तब ही उपासना के साथ दान भी होगा। परंतु हम तो हमारे नाम पत्रिका में छपें, मूर्तियों के नीचे भी अपने नाम खुदवाऐं, ऐसी चाह रखकर ही दान देते हैं। यह लालसा, ऐषणा, सद्भावों का नाश करती है । मंत्री उठे, साथ ही तारामंडल जैसे सभी श्रेष्ठि भी उनके साथ भीमा के पास आए। उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “बोलो तुम्हें क्या चाहिए भाई ?” उसके हृदय में आल्हाद की लहर दौड गई, "इतने बडे शेठ ने मेरे कंधो पर हाथ रखा । " गद्गद् स्वर में भीमा ने कहा “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, मैं तो कुछ देने आया हूं। गांठ खोली, डेढ रूपया निकाला, शेठ को दिया, उन्होंने हाथ पकडकर मखमल के गलीचे पर बिठाया ।" भीमा ने कहा कि उसके पैर गंदे है, मगर मंत्री उसके दान भाव जान गये थे, उन्होने कहा “तुम्हारी चरण रज तो कुंकुम के समान है, तुम्हारा दिल तो सागर के समान विशाल है, हम तो लाख में से हजार दे रहे हैं, तुम तो अपना सर्वस्व देने आए हो, तुम हमारे पूज्य हो ।" और मंदिर के जिर्णोद्धार में उसका नाम प्रथम लिखा गया, उसका दान सबसे बडा दान हुआ। कारण ? उसके लिए दान चेतना का विकास बना, अंदर का आल्हाद बना, सर्वस्व परित्याग की भावना बनी । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसे समर्पण में ही मानव जीवन की सच्ची धन्यता है। ऐसा ही उदाहरण अपने इतिहास में राणकपुर का है। इस महामंदिर में १४४४ स्तंभ है, लाख-लाख रूपये खर्चने पर भी एक स्तंभ का निर्माण नहीं हो सकता। इसका निर्माण करवाने वाले थे, धरणा शाह पोरवाल। जब किसीको विज्ञान की जानकारी नहीं थी, तब इसका निर्माण हुआ, सातपुड़ा पर्वत में यह मंदिर अपने आप में कला का बेजोड़ नमूना है। आज भी वहाँ के वातावरण में पवित्र परमाणुओं का अनुभव किया जा सकता है, ध्यान में आत्मा का आल्हाद सहज प्राप्त होता है। ऐसे पवित्र स्थलों की धूलि माथे पर चढ़ाने से चित्त में उदारता तथा हृदय में पवित्र भाव पैदा होते हैं। ऐसी बेमिसाल सुंदर कलाकृति, परंतु धरणा शाह का कहीं नामोनिशान नहीं, सिर्फ एक स्तंभ में धरणा शाह हाथ जोडकर खडे हैं। वह काल ऐसा था जब देने वाले थे, तो सामने ना कहने वाले भी ऐसे ही थे। दान तो प्रेम भक्ति का मधुर खेल है। दान भावना जगेगी, तभी समाज का उत्थान होगा, यह सुदाक्षिण्य भाव समर्पण भाव को जगाता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ लज्जा हमने अंतिम सद्गुण में देखा कि धार्मिक व्यक्ति की आत्मा में सुदाक्षिण्य भाव तथा आँखो में नैसर्गिक करूणा होती है। फिर आता है लज्जा गुण, अयोग्य कार्य करने के पहले उन्हें लाज आती है कि “यह काम तो मैं नहीं कर सकता।' और कभी ऐसा छोटासा अकार्य हो जाए तो, उसका भारी पश्चाताप होता है। लज्जा गुण धारक व्यक्ति सदाचार का ही सेवन करता है, सत्कार्य में ही प्रवृत्त रहता है। परंतु जिन्हें बुरी आदतें पड गई हैं शराब पीने की, सिगारेट वगैरह पीने की, उन्हें सुवासित भोजन के समय भी दुर्गंध युक्त पदार्थ ही पीने, खाने की इच्छा रहती है। दुराचारी को दुराचार किए बिना चैन नहीं पडता, सदाचारी को सदाचार बिना शांति नहीं, इसीलिए हमेशा ज्ञानी का सत्संग करना चाहिए ताकि हृदय में सदाचार का भाव बना रहे। मांसाहारी को मांसाहार प्रिय लगता है, शाकाहारी उसे पल भर के लिए देखना भी पसंद नहीं करता। ऐसा क्यों ? मांसाहारी क्रूर एवं दूषित वातावरण में रहता आ रहा है, जब कि शाकाहारी दया, कोमलता, संस्कारमय वातावरण में जीने वाला है, इसीलिए एक चिंतक ने कहा कि मेरा संग व संजोग अच्छे थे जिन्होंने मुझे बुरे कामों से दूर रखा। संयोगो का क्या असर होता है? एक दृष्टांत से देखते हैं। सुलस का पिता कसाई था, उसकी इच्छा न होते हुए भी उसके स्वजनों, स्नेहिययों ने Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ आग्रह किया कि वह कसाई का धंधा करे। परंतु उसे तो अभय कुमार की मैत्री का सहयोग मिला था, हृदय में करूणा का स्रोत बह रहा था, उसने यह धंधा स्वीकार नहीं किया। अभय कुमार के साथ बैठने उठने वाला व्यक्ति भला जीवों को कैसे मार सकता है? यह संगत का असर है। सुलस धंधा बंद करता है, सगे संबंधियों ने यह कहकर समझाया कि वो भी इस धंधे में भागीदार बनकर पाप को बाँट लेंगे। परंतु सुलस यह जानता था कि नफे में भागीदारी करने सब आते हैं, पाप में कोई नहीं, उसे पता था कि कहने वाला हट जाएगा, करने वाला फंस जाएगा। ऐसे समय विवेक रखना, पाप करते वक्त जागृत रहना जरूरी है। सुलस ने बहुत मना किया, पर कुटुम्बीजन नहीं माने, तब उसने एक युक्ति की, कुल्हाडी लेकर अपने पैर पर मारी। लहु की धारा बहने लगी, उसने सबसे कहा, “मेरी यह पीडा बाँट लो, दुख के भागीदार बनना चाहते हो तो।" उन्होंने कहा, “घाव तुम्हें हुआ है, तुमने ही किया है, अब पीडा तुम्हारी, हम तो ज्यादा से ज्यादा पट्टी बांध सकते हैं। तुम्हें ही सहन करना होगा।" तब सुलस ने कहा, “मैरे पाप में भागीदारी कैसे लोगे?'' इस तरह सुलस ने कुल्हाड़े के प्रयोग से सबको बोधपाठ दिया, “मेरे घाव में भागीदार नहीं बन सकते तो पाप में कैसे बनोगे?" अच्छे मित्र, अच्छी संगत, अच्छा वातावरण हमें पाप कर्मों से बचाकर हमारी मदद करते हैं। बुरे कामों से बचने के लिए अच्छे मित्र सहायक बनते हैं, इसी को लज्जा गुण कहते हैं। . पचास साल पहले लोग रास्ते पर बीड़ी पीने में शर्माते थे, अब तो मुंह में पान, सिगारेट रखकर, रास्तों में पिचकारियां मारते हुए नहीं शर्माते, मानों चारों और नादिरशाह घूम रहे हों। __जन्म के साथ किसी को कोई व्यसन नहीं होता, ये तो नासमझ, निर्बलता तथा अज्ञान है जो दुराचार की तरफ ले जाते हैं, आज व्यसन हमारे मालिक बन बैठे हैं, हम गुलाम। इन्सान को व्यसन मुक्त जीवन जीना चाहिए। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ थोडे समय पहले एक व्यक्ति मेरे पास आया कहने लगा “अट्ठम करना है, खाये बिना चलेगा परंतु सवेरे बिना दूध, शक्कर की थोड़ी काली चाय पी लूं तो चलेगा?'' यह तो बात हुई कि पूरा हाथी निकल गया, पूंछ अटक गई। खाना पीना छोड़ने को तैयार है, पर चाय का व्यसन उस पर हावी हो गया है। व्यसनों को छोड़ना प्रथम पुरुषार्थ है, कुछ लोग तो प्रवचन के दौरान भी तम्बाकू की डिब्बी एक दूसरे को देते हैं। यह जीवन की रूग्णता है। जो व्यक्ति व्यसन मुक्त होना चाहता है, उसे व्यसनों ने घेरा कैसे? हमें यह जानना चाहिए। जन्म से तो, थे नहीं, फिर ये आए कहाँ से? और यदि स्वीकारा है, तो यह भी स्वीकार करो कि त्याग देने की शक्ति भी है, ऐसा समझने वाला सदाचार की तरफ प्रयाण कर सकता है। ज्ञानी पुरूषों के वचन सुनने का हेतु यही है कि हमारे अन्दर परिवर्तन आए और विकास हों। इसके लिए प्रात:काल थोडी देर प्रार्थना में बैठना चाहिए, सुंदर विचार, ज्ञान पाठ आदि में पूरे दिन ताजगी रहेगी। मन रूपी भूमि को प्रार्थना रूपी जल से सींचने से चित्तवृक्ष सुंदर रहेगा। हो सके तो एक छोटी सी पुस्तिका साथ रखकर जब भी अवकाश मिले, उसे पढ़ना चाहिए। रात्रि में घर पर आओ तब शांति बनाए रखो, घर का प्रत्येक सदस्य यदि ऐसा करे तो जीवन सुखमय बन सकता है। आंतरिक लज्जा जीवन में कैसी सहायक बनती है उसका एक उदाहरण है- एक दिन विक्रम के पास चार समान अपराधियों को लाया गया, सबके गुनाह समान थे, परंतु सजा अलग अलग दी। पहले उनकी स्थिति, संयोग, संस्कार, लालन पालन की जानकारी हासिल कर ली। पहले को सिर्फ इतना ही कहा, "तुम्हारे जैसा खानदानी, संस्कारी व्यक्ति ऐसा करता है?' दूसरे को कहा, “तुम नालायक हो तुम्हें सो रूपिये का दंड।" तीसरे को कहा, “तुम्हारे जैसे लोग दूसरों को बिगाडते है, इसलिए Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ तुम्हें बारह महिनों के लिए देशनिकाल।" और चौथे को कहा, “तुम तो अधमता की पराकाष्टा तक पहुंचे हो, अतः तुम्हें गधे पर उल्टा बिठाकर मुंह काला करके पूरे गाँव में घूमाकर, गाँव के बाहर निकाला जाएगा।" सभा में एक समझदार व्यक्ति बैठा था, उसने पूछा, “गुनाह समान तो सजा अलग अलग क्यों?" राजा ने कहा, "इसका मर्म बाद में समझ आएगा, अभी दूत को चारों की जानकारी प्राप्त करने हेतु भेजते हैं, देखते हैं क्या समाचार लाते हैं?" दूत ने चारों का अपने आँखों देखा हाल सुनाया - पहला व्यक्ति घर जाकर दरवाजा बंधकर के खूब रोया, उसने कहा “अरे विक्रम ने मुझे ऐसा कहा, इससे अच्छा तो मुझे तलवार से मार दिया होता, तो कम कष्ट होता।" देखिए इसकी मानसिक स्थिति, केवल एक वाक्य का इतना गहरा असर हुआ कि "बारह महीनों तक किसी को मुँह न दिखाऊं।" ऐसा विचार किया, इसका कारण उसमें लज्जा गुण था। दूसरे को सौ रूपये का दंड किया था, वह लोगों से कह रहा था, “अरे सौ क्या हजार रूपये दंड किए होते तो भी मैं भर देता, राजा को तो इस तरह कमाई ही करनी है।" देखिए, इसकी लज्जा जाने लगी है। तीसरे को देश निकाल मिला था, वह दिन को गाँव के बाहर चला जाता, रात को वापस गाँव में आ जाता छुपके से। वह लोगों से कहता, “राजा का ऐसा हुकम कौन मानें?" देखिए उसमें बेशर्मी झलकती है। चौथे को उल्टे गधे पर बिठाकर गाँव में घुमाया, तब वह कह रहा था "अरे वाह क्या मजा आ रहा है ? नगारे बज रहे हैं, लोग सब देख रहे हैं, ऐसा मौका बारबार थोडे ही मिलता है।" उसकी पत्नी देखने आई तब उसने कहा "थोडा ठंडा पानी तो लाना, इतनी देर नगारे भले बजे।" देखी इसकी बेशर्मी ? इसमें से सार यह निकलता है कि ज्ञानी और लज्जावान व्यक्ति छोटी सी बात से बोध प्राप्त कर, ऊपर चढते हैं। हमें भी अपनी भूल बताने वाले पर क्रोध करने के बजाय, उसे अपना हितैषी मानना चाहिए। जीवन का हरपल कुछ प्राप्त करने के लिए है, उसे व्यर्थ गंवाईए मत। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदनबालाजी मृगावतीजी को केवल इतना ही कहती हैं कि, “आर्याओं को उपयोग की शून्यता शोभा नहीं देती।' मृगावती की आत्मा केवल इतने से शब्दों से जाग उठी, वे साधक थी, केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। जब मानसिक विकास बढ़ता है, फिर अयोग्य कार्य करने का मन ही नहीं होता, और कभी हो जाए तो पश्चाताप कर के, फिर ऐसा अकार्य करने - की प्रवृत्ति होती ही नहीं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल मंदिर के पथ पर धर्म रत्न प्रकरण में महापुरूष अपने को मंगल मंदिर तरफ ले जाने का प्रयत्न करते हैं। मंदिर पहुंचना प्रत्येक मनुष्य का ध्येय होना चाहिए। जीवन मात्र एक व्यथा, दुख, तडप बनकर रह गया है, उससे उबरने के लिए धार्मिक व्यक्ति के हृदय में झंकार जागृत होती है। विश्व के सभी जीवों को तारने का विचार, ऐसे करूणामय हृदय वाले ही कर सकते हैं। - मोक्ष का यह मंदिर बहुत ऊँचा है, यदि एक एक कदम भी उसकी और बढायेंगे, प्रयत्न करेंगे तो एक दिन इस मंगल मंदिर तक हम जरूर पहुंच जाएंगे। शुद्धि, शुद्धि को लाती है, अशुद्धि अशुद्धि को लाती है। हम प्रयत्न करेंगे तो बुरी आदतें स्वतः छूटती चली जाएंगी, यह कुदरत का नियम है। मंगल मंदिर तरफ जाने की यह एक भावना है, प्रस्थान है। - मानव जीवन का हेतु क्या है? हमें जो ढूंढ़ना है उसके लिए श्रवण, मनन और चिंतन उत्तम साधन है। घोर अंधेरा है, मार्ग कठिन है, पर श्रद्धा बल से धर्मजीवन की पगडंडी पर चल रहे हैं, तो हम अपने ध्येय के करीब पहुंच रहे हैं। आदमी की दृष्टि, विचार, आचार शुद्ध होने चाहिए। लज्जा रूपी दीवार से चारित्र्य, संयम रूपी पानी सुरक्षित रहता है। कोई भी अनुचित कार्य करने पर, आँखो पर भार बढ़ता है, तो समझना चाहिए अभी लज्जा बाकी है, आगे बढ़ने का अवसर है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दया का झरना धर्मी आत्मा का मन दया से आर्द्र तथा कोमल होना चाहिए, जैसा कि इस प्रार्थना में कहा है - “दीन, क्रूर ने धर्म विहोणा, देखी दिल मां दर्द रहे।" धार्मिक जड़ नहीं होता, धर्म तो जडता को दूर करता है। जब जीवन में धर्म आता है, ज्ञान आता है, इन्सान का हृदय दया का झरना बन जाता है। फिर तो जैसे निर्मल पानी में सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है, वैसा ही उसके मन में विश्व के सुख-दुख प्रतिबिम्बित होने लगते हैं। दया धर्म का मूल है, चाहें विश्व का कोई भी धर्म हों, जहाँ दया नहीं, वहाँ धर्म सम्भव ही नहीं। जो क्रूर एवं निष्ठुर हो, वह दूसरों के दुःख क्या महसूस करेगा? वह धार्मिक नहीं बन सकता। यदि इन्सान को ज्ञान नहीं है तो दया-क्रूरता के बीच का फर्क कैसे जानेगा? अज्ञानी व्यक्ति तो दया के नाम पर हिंसा करके, अपने आप को दयालु कहलाएगा, इसलिए जब दया का काम करने जाओ, तब ज्ञान का दीपक साथ में होना चाहिए। इन्सान थोडा सा जान लेता है तो ज्ञान का गर्व आ जाता है, अथवा ज्ञान की जड़ता आ जाती है। अंधेरे में गुड़ तो मीठा ही लगता है परंतु यह जानना जरूरी है कि कहीं उस पर छिपकली की लार तो नहीं गिरी है। यह विवेक है। १७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जानता नहीं और जानने का दंभ करे, उसे समझाना कठिन है, जब कि उसे समझाना आसान है, जो कबूल करे कि वह नहीं जानता। जो समझदार है, वह अपनी भूल पहचान लेता है और फिर उसे सुधारने का प्रयत्न करता है, विशेषज्ञ अर्थात् ज्ञानी की यह विशेषता है। परंतु अर्धज्ञानी, अपने आप को पंडित समझे तो फिर उसे तो ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते। ____ एक आदमी ने कुत्ते के काटने पर चौदह इंजेक्शन लिए, बच गया, फिर उसने सोचा किसी और को कुत्ता काटेगा तो? उसे दया आई और पचास हजार रूपये का दान देकर कहा “सब कुत्तों को जहर देकर मार डालो। ताकि किसी को काटे नहीं।" इन्सान को बचाने के लिए दया बताई सही, पर बिना विवेक की। इसमें उसे श्वान संहार का विचार नहीं आया। उसके द्वारा कराए गये हिंसा का विचार नहीं आया। अत ः ज्ञानियों ने फरमाया है कि धर्म, दया और दान के साथ ज्ञान प्रकाश की बहुत जरूरत है। ___प्रथम बार हिंसा का दृश्य देखकर प्रकंप जगता है, चक्कर आते हैं, परंतु बार-बार हिंसा की बातें, दृश्य देखकर करूणा कुंठित हो जाती है। एक दिन ऐसा था जब हिंसा की बात सुनकर हृदय द्रवित हो उठता था, आज ऐसी बेचैनी नहीं होती। हम हिंसा करते नहीं, परंतु अपरोक्ष रूप से हिंसा में भागीदार तो होते ही हैं। . बहुत से लोग कोमल चमड़े के पाकिट, जूत्ते, चप्पल इत्यादि पहनते हैं। क्या आपको मालूम है कि ये जिन्दा जानवरों की चमड़ी उतार कर, उससे बनाए जाते है। मुर्दा जानवर की खाल तो कठोर बन जाती है। __ अपने यहाँ भारत में हिंसा की बातें स्थूल रूप ले रही है, जब कि न्यूयॉर्क, लंदन इत्यादि देशो में शाकाहारी क्लब शुरू हो गये हैं। वो लोग अहिंसक चमड़े का ही उपयोग करते हैं। हम मन, वचन, कायासे अहिंसा की बातें करने वाले दिन भर कड़वी वाणी बोलकर, घर में कलह करते हैं, कई स्त्रियों को अग्निस्नान करना पड़ता है। ऐसा क्रूरता मय, दयाहीन जीवन जीने वाले लोगों के जीवन में धर्म क्या शोभा देगा? कितनी ही सासुएँ बहुओं को कडवे शब्द सुनाती रहती हैं, कई बार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो परिणाम भयंकर आता है, कई स्त्रिया आत्महत्या तक कर लेती हैं। और कई जगह पर बहुएँ भी सास को पीड़ा पहुंचाती हैं। फिर उन्हें जिन्दगी जीने योग्य नहीं लगती। ऐसी सभी स्त्रियां धार्मिक होने का दंभ करती हैं। शब्दों में शक्ति है, शब्दों को तोल-मोल कर बोलना चाहिए। किसी को कहने के लिए कोमल शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी को जब बहुत क्रोध आता, तब वो सिर्फ इतना ही बोलते "दुनिया पागल और पाजी हो गई है।" ऐसे शब्द बोलने चाहिए कि थोड़े से शब्दो में भाव व्यक्त हो जाए। पुराने समय में व्यक्ति जब गुनाह करता था, तब उसे सिर्फ हक्कार, मक्कार, धिक्कार, कहना ही उसकी सजा थी, शब्दों की कैसी महिमा थी? आज तो कठोर से कठोर शब्द सुनकर भी लोगों को शर्म महसूस नहीं होती। हम भाषा समिति वचन गुप्ति की बात करते हैं। वचन गुप्ति यानि विचारों, वचनों को म्यान में रखना। जैसे कि धनुष से निकला तीर वापस नहीं आता, वैसे ही बोले हुए शब्द वापस नहीं आते, इसलिए अनुपयुक्त शब्द नहीं बोलने चाहिए। बोलने में कम से कम शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, अधिक तथा अनुचित शब्द बोलकर कभी पछताना भी पडता है। हमारे शब्द सुखद, आनंददायी होने चाहिए, अहिंसक विचार, अहिंसक वाणी, अहिंसक प्रवृत्ति द्वारा ही विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है। कई लोग तो धर्मस्थानों, मंदिरो तथा मूर्ति के पास भी बैठने को योग्य स्थान न मिले तो क्रोधित हो जाते हैं, ऐसे लोग घर में कितना गुस्सा करते होंगे? इन्सान को प्रवृत्ति तो करनी ही पडती है, पर वह कैसी होनी चाहिए? मनुष्य किन प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहकर भी कर्मबन्ध नहीं करता है इसे ध्यान में रखने की आवश्यक्ता है। महापुरूषों ने कहा है कि जो ध्यानपूर्वक, करूणापूर्वक चलता है एवं बोलता है, वह सब क्रियायें करते हुए भी पाप बंघ नहीं करता। कुछ लोग खाते समय भी बोलते ही रहते हैं, एडवर्ड की बात है, खाते समय बहुत बोलता था, परंतु दूसरा कोई बीच में बोले तो गुस्सा हो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जाता। एक दिन उसकी डबल रोटी पर मुरब्बे में एक बड़ा कीड़ा था, उसे देखकर उनकी पोती, जो आठ वर्ष की थी, उन्हें कहने गई, पर उन्होंने उसे डाँटकर चुप कर दिया। बाद में दादा ने पूछा “तुम बीच में क्यों बोल रही थी।'' उसने कहा “आपकी रोटी पर कीड़ा था, आपने खा लिया।" दादा पछताये, अपनी भूल समझ में आई। जीवन के सभी काम ध्यानपूर्वक (उपयोग पूर्वक) करने चाहिए, ध्यानशन्यता कभी हैरान कर सकती है। जो व्यक्ति ध्यानपूर्वक, दयापूर्वक जीता है, उसे पश्चाताप करने का वक्त कम ही आता है। एक शेठ थे, निःसंतान थे। चाह प्रबल थी। किसी ने कहा “एक बकरे की बलि, देवी को चढ़ाओ, पुत्र जन्म होगा।" शेठने कहा, “में ऐसा नहीं कर सकता।" उस आदमी ने कहा, "मुझे ५०० रूपये दो, मैं यह काम कर दूंगा।" संसार की आसक्ति कैसी है? शेठ ने ऐसा किया। दैव योग से पुत्र जन्म हुआ। पुत्र एक वर्ष का हुआ, शेठ गुजर गये, मरकर बकरे बने। लडके ने हर वर्ष बकरे की बलि देने का क्रम चालू रखा। एक बकरा मंगवाया, जैसे ही वह दुकान के पास आया, उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ “यह मेरी दुकान, यह मेरा बेटा।" बकरा वहाँ खड़ा रह गया। इतनी देर में एक साधु आए, उन्होंने बकरे से कहा “पुत्र के लिए तुमने बकरे की बलि दी, तो आज तुझे बकरा बनकर मरने का समय आया है। आसक्ति के समय ध्यान नहीं रखा अब क्यों खींचतान कर रहे हो?" फिर तो साधु ने उसके पुत्र को सारी बात समझाई, बकरे को बचाया। इसीलिए कहा है कि आत्मा की अधोगति करने वाला एक भी काम नहीं करना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति को सच्चरित्र एवं दयालु होना चाहिए, मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसक भाववाही बनकर जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया के दो लोत दया के दो पहलू हैं, द्रव्य दया और भाव दया। किसी को चोट लगी हों, कोई गरीब हों, अंधा हों और मदद मांगे, हम सहायता करें, तो वह द्रव्य दया है। जिनके पास आत्म धर्म नामक धन नहीं है वह धन हीनों से भी अधिक दरिद्र है। जिस प्रकार धन न होने से कोई दरिद्र या निर्धन कहलाता है उसी प्रकार धर्म विहिन व्यक्ति भी धर्म रूपी धन से निर्धन है। भले ही उसके पास भौतिक धन का अखूट भण्डार क्यों न हो। "जब बाहर की आँख खुलती है तो जहान दिखता है, जब भीतर की आँख खुलती है तो भगवान दिखता है।" निर्धन को पैसे नहीं मिले तो वह शायद कम पाप करेगा, परंतु अधार्मिक के पास दृष्टि सही नहीं होगी तो वह अधिक पाप करेगा। धनिक यदि पाप करता है तो उसे रोकने वाला कोई नहीं, जब की मध्यम वर्गीय इन्सान निन्दा, टीका से डरकर मर्यादा में रहेगा। करोडपति-शराब पीए, परस्त्रीगमन करे, उसे कहने की हिम्मत कौन करेगा? क्यों कि लोग पैसे वालों की गल्तियां माफ कर देते हैं, इस तरह पैसे से पाप की छूट मिल जाती है। दया के कई प्रकार हैं, लूले लंगडे पर दया करने की अपेक्षा, जिनके जीवन पापों से भरे हैं, उन पर दया करना ज्यादा जरूरी है। दु:ख में से आदमी उबरकर उपर उठ सकता है, परंतु धन के कारण व्यक्ति के नीचे फिसलने के अवसर अधिक हैं, जैसे कि सीढ़ियां उतरते समय फिसलने का, १०१ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ चूकने का मोका ज्यादा होता है। पैसे, प्रतिष्ठा बढने पर जी हजूरिए, हाँजी! हाँजी! करते हैं, कोई दोष निर्देश नहीं करते। किसी शायर ने कहा है - “एक गलत कदम पडा था राहे शौक में, जिन्दगी तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही।" दुःख इन्सान को स्वर्ग तक ले जाता है, क्या आप जानते हैं ? देवलोक में ज्यादातर जीव कहाँ से आते हैं? पशुओं में से। बैलगाडी खेचनेवाला बैल मार खाते खाते, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी सहन करते, करते अकाम निर्जरा करके, देव बन जाता है। और इन्सान पुण्य भोगकर नीचे की गतियों में चला जाता है। भले हम देव न बनें, पर इन्सान तो बन ही सकते हैं, खीर-पूरी न मिले तो कोई बात नहीं, यदि खिचड़ी मिली है तो उसे क्यों खोते हों? जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मन्द पड़ गये हों वह, तथा दान की प्रवृत्ति वाला, फिर से मानव भव प्राप्त कर सकता है। पत्नी जैसे पति की राह देखती है, वैसे ही भक्त का हृदय दान देने के अवसर ढूंढता है। भगवान आए या न आए, भक्त को प्रतीक्षा करनी पडती है, जैसे जीरण शेठ को प्रभु महावीर को अपने घर बुलाकर पारणा कराने की तीव्र इच्छा जगी थी। रोज विनती करते हैं। मन, भावना के प्रेम रंग से रंग चुका है, हालां कि पारणा तो सुदर्शन शेठ के हाथों होता है, परंतु भावना की ऐसी उच्च श्रेणी पर आरूढ़ हो गये कि उनकी आत्मा बारहवें देव लोक तक पहुंच गई। धर्म कोई बाहर की वस्तु नहीं है, इसका संबंध भावों से हैं। “दान विना देव मले नहीं" इसमें दान तो गौण है, भाव की मुख्यता है, दान तो अंतर का उल्लास है। हमारे हृदय में राग ने घर कर लिया है। सगे-सम्बन्धी, नाते-रिश्तेदार आते है- तो लेने या छोडने जाना पड़ता है, परंतु साधर्मिक के लिए इतना कौन करता है? यश, प्रतिष्ठा की इच्छा बिना उल्लासपूर्वक दिया हुआ दान फलित होकर मनुष्य को दूसरे जन्म में भी मनुष्य बनाता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ गरीबों पर दया-द्रव्य दया। अधर्मीयों के प्रति दया-भाव दया। परंतु इन्सान स्वयं क्रोध, मान, माया, लोभ में फंसकर गलत राह पर जाता है और अपने पर दया आए तो वह है स्व-दया। हमें दूसरों पर दया आती है, क्या अपने पर कभी दया आती है, कि हमारी आत्मा का क्या होगा? हमें पहले अपने दोषों पर दया करनी चाहिए, फिर दूसरों के प्रति सच्ची दया प्रगट होगी। चंडकौशिक भगवान को डंसने आया, तब भगवान को उसके क्रोध पर दया आई, यह है पर-दया। ___ इन्सान अपने आसपास पाप की दीवार चुनकर स्वयं ही अंदर कैद हो रहा है। यदि स्वदया बराबर समझ में आ जाएगी तो भाव दया समझते देर नहीं लगेगी। जिस प्रकार हम अपने बेटे की गलतियों से दु:खी होते हुए भी उसका पक्ष लेकर आने वाले व्यक्ति के सम्मुख हम उसकी गलतियों, उसके दोषों पर आवरण डालने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य जनों के दोषों को भी उजागर न करके उसे ढंकने का प्रयत्न करना चाहिए। बल्कि उन दोषों के दुष्परिणामों से अवगत कराकर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। दूसरों को सुधारने के लिए माँ जैसे बनो, सौत जैसे नहीं। इससे हमारा स्तर नीचे गिरता है। दूसरों को सुधारने के लिए अंदर की उदारता अत्यंत आवश्यक है। __अधिकतर लोग धार्मिक होने का दंभ करते हैं, सचमुच धार्मिक बनना है तो धर्म रूपी सागरमें डुबकी मारकर, दर्शन, ज्ञान,चारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिए। अनेक जन्मों के बाद ऐसी अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं, उसमें यह पुरूषार्थ करने योग्य है। हम तो थोड़ा सा तप, त्याग करके मोक्ष की टिकट कटवाना चाहते है, परंतु कुदरत का कानून है, "जैसी करनी वैसी पार उतरनी।" कुदरत के वहाँ रिश्वत नहीं चलती। परिणाम, आचरण, भाव के अनुसार कर्मबंध होता है। __यह दर्शन हमें यह सिखाता है कि, भक्ति की ओर यदि प्रयाण करना है तो जीवन की गहराईयों तक जाना पड़ेगा। दुनिया के प्रति दया तो सामान्य दया है, वात्सल्य भाव से भरकर किसी को उसकी भूल बताकर भाव दस Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ करने वाले लोग कितने हैं? दूसरों का सहायक बनना है और हमारे भीतर सम्यग् दर्शन, पवित्र भाव न जगें तब तक जो बाह्य दया है, वह भाव दया नहीं बन सकती। हमने दया के दो पहलू - द्रव्य दया, और भाव दया पर विचार किया, परंतु हम अपने पर भी दया करते हैं कि, “मैं आज का करोडपति, कल कहीं भी फेंका जा सकता हूं।" आदमी के अंदर स्वदया और भाव दया दोनो हों तो ही वह धर्म का सच्चा अधिकारी है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व एकता का भाव हमने दया के दो पहलू स्वदया और परदया पर प्रकाश डाला, एक और दया संबंधी विचार पर चर्चा करेंगे, हम बोलते हैं- "दया धर्म का मूल है।' इसका अर्थ क्या है? अनेक धर्मों में कुछ न कुछ सिद्धांतो में, भेद दिखाई देता है, परंतु दया धर्म को सभी धर्म मानते हैं। __ प्रत्येक जीव दया से जीना चाहता है, मृत्यु परेशानी, क्रूरता किसी को भी पसंद नहीं, ऐसे ही जगत को भी यह सब पसंद नहीं। माला में मोती अलग होते हैं, पर धागा एक ही होता है, पिरोने के लिए। वैसे ही सब धर्मों में दया रूपी धागा समान ही है। विश्व एकता की भावना में दया की दृष्टि मुख्य है, एक मंत्र में हम सुनते हैं, “आत्मवत् सर्व भूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये।" दूसरों के दुखों का प्रतिबिम्ब हमारे हृदय में पड़ता है, तब इन विचारों का उद्गम होता है कि, जो मुझे पसंद नहीं, वह दूसरों को भी पसंद नहीं, जो मुझे प्रिय है, वही दूसरों को भी प्रिय है। ऐसे विचारों से ही विश्व एकता की भावना प्रगट होगी। स्वदया और पर दया ही विश्व एकता की जन्मदात्री है, विश्व और जिंदगी का संवाद इसी से जागृत होता है। सब जगह शुभ भावना रखते रखते हम दृष्टा बन सकते हैं, परंतु यह दर्शन केवल आँखो से नहीं आत्मा से होना चाहिए। हमें तो विश्व में संवेदना जगानी है, जैसे सितार के एक तार को स्पर्श ___ १०५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ करने से दूसरे तारों में भी झंकार पैदा होती है, वैसे ही आसपास के जीवों संग, सहानुभूति पूर्वक जीएंगे तो पूरे विश्व के संग तादात्म्य स्थापित होगा । मान लिजिए कि आपको किसी को गाली देने का मन हुआ, तो पहले यह गाली अपने नाम के साथ जोडकर देखिए, यदि आपको पसंद नहीं तो दूसरों को कैसे पसंद आएगी? उसे छोड़ दिजिए । शब्दों को पहले तोलिए, फिर बोलिए। ऐसे विचार, क्रिया विश्व के साथ अनुभूति, संवेदना के तार जोड़ेगी । एक बनजारे ने सुनार की दुकान पर जाकर कहा, "मुझे यह सोना बेचना है, क्या भाव लगाओगे ?" सुनार ने कहा “एक रूपये तोला ।” बनजारे ने सोचा “फिर तो मैं ही क्यों न खरीद लूं।" उसने सुनार से कहा, "मुझे १०० तोले सोना तोल दो, १०० रूपये का ।" तब सुनार बोला, "मैरे सोने का भाव तो १०० रूपये तोला है ।" हमें इस बात का आश्चर्य होगा कि लेने और देने के भाव में इतना अंतर ? परंतु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा ही चलता है । "मेरे प्राण ! सौ रूपये तोला, महंगा । दूसरे के प्राण ! एक रूपये तोला, सस्ता । मैं घाटे में न आऊं, चाहें सारी दुनिया घाटे में जाए ।" अपनी एक की सुख सुविधा के खातिर हम न करने योग्य काम करते हैं । एक आदमी को फूलों की शय्या पर सोने का शौक था, माली को रोज फूल लाने का हुक्म दे रखा था। अपने शौक की खातिर हजारों फूलों की जान लेना कहाँ तक उचित है ? छोटे से छोटे जंतु के प्रति भी हमारी दयालुता भरी संवेदना जगनी चाहिए। जब तक ऐसी आत्मीयता, आत्मसात नहीं होगी, दया धर्म की बातें केवल बातें ही रहेंगी । आत्मीयता यानि मेरी आत्मा जैसी ही सभी की आत्मा है, इतनी ही कीमती है । बंगाल के दुष्काल और जापान के भूकंप में अनेक लोगों की मृत्यु की तुलना में हमें एक छोटेसे फोड़े का दर्द अधिक महसूस होता है । जगत के दुखों से हमें अपने एक दांत का दर्द अधिक पीड़ाकारी लगता है। जब तक हमारी दृष्टि हमारे स्वार्थ तक ही सीमित रहेगी, अहिंसा भाव, विश्व मैत्री Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ भाव कहाँ से पनपेगा ? केवल खादी के वस्त्र धारण करने से कोई अहिंसक नहीं हो जाता, यदि ऐसा होता तो उसकी वाणी से मत्स्य उद्योग, पोल्ट्री उद्योग की बातें भला कैसे निकल सकती हैं ? दया और धर्म का अति निकट संबंध है, जहाँ दया का दीपक नहीं वहाँ धर्म का प्रकाश कैसे रह सकता है ? एक शेठ के यहाँ एक नौकर था, जिसने शेठ की बेटी को बड़ा किया था। नौकर गाँव गया, लडकी बीमार हुई और मर गई। शेठने नौकर को गाँव में समाचार भेज दिए लडकी की मौत के । आठ महीनों बाद नौकर लौटा, घर में आते ही नौकर रोने लगा । शेठ ने पूछा, "क्यों रोते हों ?" वह गद्गद् कंठ से बोला, “शेठ मुलगी गेली ।" शेठ ने सोचा नौकर की लडकी मर गई होगी, वे कहने लगे, " जो जन्मा है, वह तो जाएगा ही उसमें रोना क्या ? कितने साल की थी लडकी ?" तब नौकर ने सोचा, शेठ गलत समझ रहे हैं, उसने कहा “शेठ तुमची मूलगी ।" यह सुनकर शेठ को अपनी पुत्री की याद ताजा हो गई, जोर जोर से रोने लगे । सारांश यह है कि नौकर की बेटी मर गई, ऐसा समझा था तो कुछ नहीं, अपनी बेटी मरी, उसका इतना शोक । कैसा है यह मोह ? यहाँ पर हमें विश्व एकता का विचार करना है, सबके दुख को समान दर्जा देना है। विश्व एकता की भावना के उदय होते ही हमें अयोग्य वस्तुओं का उपयोग, जैसे कि हिंसक दवाईयां, चमडे की वस्तुऐं, रेशम, कस्तूरी, हाथीदांत, मोती वगैरह अरूचिकर लगने लगेगा | एक बड़े साधु के साथ एक छोटे साधु विहार कर रहे थे, रास्ते में एक पानी से भरा तालाब देखा, बाल्यवृत्ति जागृत हो उठी, वो अपने पात्र को नाव बनाकर पानी में तैराने लगे । बडे साधु ने देखा, उनसे कहा, "पानी में जीव होते हैं, हमें ऐसा नहीं करना चाहिए ।" बाल मुनि की आत्मा जागृत हो गई " आत्मवत् सर्व भूतेषु" समझने वाला, ऐसा करता है, तो फौरन ही पश्चाताप रूपी अग्नि से शुद्धि कर लेते हैं। इस मुनि का नाम था, " अईमुत्ता मुनि" पश्चाताप की धारा में बहते बहते केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई । कल जो बुरे से बुरा व्यक्ति था, आज वो मन परिवर्तन करके, भला Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आदमी बन सकता है, केवल आत्मा को जगाने का पुरूषार्थ करना है। दया और अहिंसा एक सिक्के के दो पहलू है एक विधेयात्मक दूसरा निषेधात्मक । यदि हमें जो कुछ पसंद न हों तो उसे दूसरों के बारे में भी न विचारें, न बोलें, न करें, तो ही विश्व एकता का संवेदनामय और संवादमय संगीत प्रगट होगा । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ माध्यस्थ आज हम ग्यारहवें गुण पर विचार करेंगे, धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन कौन कर सकता है ? जिसमें माध्यस्थ और सौम्यदृष्टि हों। इसका अर्थ है जिसके मन के द्वार सदा खुले हों, जिसे किसी भी, धर्म प्रति पूर्वाग्रह या दुराग्रह न हों, सत्य के नये प्रभात का स्वागत करने के लिए जो सदा तैयार हों। माध्यस्थ भाव के साथ सौम्य प्रकृति होनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति ही उलझनों को शांति से सुलझा सकता है, सौम्यता न हों तो द्वेष आ सकता है। किसी बात का पक्षपात भी नहीं होना चाहिए, तो ही धर्म जैसी अतिविशिष्ट बात का विचार किया जा सकता है। अतिराग भी नहीं, तिरस्कार भी नहीं, जीवन की सामान्य बातों के लिए मन, बुद्धि की स्वस्थता अनिवार्य है। सत्य का दर्शन करना है तो, बुद्धि माध्यस्थ भाववाली और दृष्टि द्वेष रहित होनी चाहिए। गुरू के पास दो शिष्य गये, गुरू ने सबको तीन बातें कहीं - लोकप्रिय बनना, मीठा खाना और सुख से सोना। एक शिष्य प्रज्ञ था उसने अपना रास्ता पा लिया। दूसरा सौम्य दृष्टि हीन था, उसने गुरू के वचनों को पकड़ लिया। मंत्रतंत्र तथा वैद्यकीय कार्य शुरू किया और लोकप्रिय होने लगा। भिक्षा में रोटी के बदले गुलाबजामुन, मैसुर, मिठाईयां लाने लगा, रात में आठ बजे से सुबह आठ बजे तक सोने लगा। वह समझता था गुरू के वचनों का पालन १०९ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कर रहा है। उसने केवल गुरू के शब्द पकड़े थे, मर्म नहीं जाना था। आज हम केवल शब्दों को पकड़ते हैं, अर्थ पर ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि जो महापुरुष विश्व में शांति, समाधान का साम्राज्य स्थापित करने आए थे हमने उनके नाम पर आज अनेक पंथ सम्प्रदाय आदि के झगड़े पैदा कर लिए हैं। एक कहावत है, "भाषा ने शुं वलगे भूर, जे रणमां जीते ते शूर।" इसका भावार्थ हैं शब्दों को नहीं भाषा के भाव को पहचानो। यहां माध्यस्थ भाव चाहिए। एक काव्य पंक्ति लो, "राम तारा राज्य मां दीवा नथी अंधारू छे।" इसका एक व्यक्ति अर्थ करता है दीपक नहीं है, यानि राज्य में अंधेरा है, तो राम उसे निकाल देता है। परंतु “राम तेरे राज्य में दीपक नहीं है, इसलिए अंधेरा है, ऐसा समझे तो भाव बदल जाएंगे।" हमें तो भाषा के विराम और विचार का ख्याल करते रहना है, नहीं तो अनेक बार धर्मसूत्रों का पठन करने पर भी अर्थ न समझें तो जीवन में प्रकाश नहीं आ सकता। इसिलिए कहा गया है कि, शब्दों को ग्रहण करने के साथ उसकी उपासना करो, उसके दर्शन करो, भाव में एकाकार हुए बिना मधुरता नहीं प्रगटेगी। शिष्य ने तीन मंत्रो का गलत उपयोग किया तो अंत में बुरा हाल हुआ। खाकर बीमार पड़ा, सोकर प्रमादी बना। कारण? उसमें माध्यस्थपूर्ण सच्चा ज्ञान, विज्ञान, चेतना प्रगट नहीं हुए थे। एक बार उसे अपना प्रज्ञ गुरुबन्धु मिला, उसने जाना कि इसने तो कोरे शब्दों को पकड़ा है, कंठस्थ किए हैं मंत्रों को, पर भाव भूला है। प्रज्ञ शिष्य ने उसे मंत्रो का सच्चा भाव बताया - मीठा खाना यानि एक वक्त खाना, तप करके खाना, सच्ची भूख लगे तब खाना। तप के पारणे में सूखी रोटी भी मीठी बन जाती है। चीन का एक तत्त्वचिंतक अमेरिकी डॉक्टरों की परिषद में गया। डॉक्टरों ने पूछा, “आपके वहाँ के डॉक्टर कैसे हैं? अपना अनुभव बताईये।" तत्त्वचिंतक ने कह। “हाँ एक बार मैं बिमार पड़ा, डॉक्टर बुलाया, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ उसने एक के दो रोग कर दिए। दूसरे डॉक्टर को बुलाया, उसने एक रोग और बढा दिया। फिर तीसरे डॉक्टर को बुलाया वह गाँव में नहीं था, एक सप्ताह बाद आया, तब तक तो मेरे सारे रोग मिट चुके थे।" आज के रोगों के लिए, क्या यह बात सच नहीं है? कितने ही रोग क्या डॉक्टरों से नहीं बढ़े? कुछ रोग घटे भी होंगे, पर बढ़े कितने? हमारे रोगों का एक कारण- भोजन अधिक खाना तो है ही, साथ ही चटपटा, मसालेदार, तीखे व्यंजन खाना भी है। सच तो यह है कि क्षुधा लगने पर सादा भोजन भी मीठा लगता है। गुरु का दूसरा उपदेश था- लोकप्रियता यानि निःस्पृहृता, जिसे दुनिया से कुछ लेने की इच्छा ही नहीं, वह अवश्य लोकप्रिय बनता है। ऐसी लोकप्रियता भाषणों से, मीठी बातें करने से नहीं मिलती, ना ही मंत्रतंत्र करने से मिलती है। यह तो निस्पृहि लोगों को ही मिलती है। जिन्हें हमेशां दूसरों से कुछ लेने की ही अपेक्षा रहती है, वे तो छिपकली जैसे हैं, जो सदा लेने का ही विचार करती है। जहाँ तक संभव हो हमें हमेशां अपने काम स्वयं करने चाहिए। किसी से अपेक्षा नहीं रखेंगे तो लोग स्वयं सहायता करने आएंगे, इसी का नाम लोकप्रियता है। निःस्पृहता के लिए कहा है कि "सहज मिले सो दूध बराबर, मांगे मिले सो पानी, कहत कबीर वह रक्त बराबर, जिसमें खिंचातानी।" __सहज ही जो कुछ मिले, वही कीमती है, मांगने से अपना पानी उतर जाता है। हमें कम से कम वस्तुओं से अपना काम चलाना सीखना चाहिए। संपत्ति के दास बनने की बजाय दिल की संपत्ति के वैभव का अनुभव करना चाहिए, इसी से सच्चा गौरव आता है। रोटी, कपड़ा और मकान इत्यादि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं हैं। किन्तु बहुत परिग्रह जीवन में अधोगति का सूचक है, क्यों कि फिर उनकी सुरक्षा के लिए हमारे जीवन में बंधन आता है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ - किसी चीज की इच्छा करें, और प्राप्त न हों तो दुख होता है, इस तरह हम स्वयं इच्छा को बुलाते हैं, फिर उसका भाई, दुःख पीछे पीछे आता है। इससे अच्छा लोग दें, और हम न लें, तो ऐसी निस्पृहता से लोकप्रियता बढ़ती है, और इच्छा विजय का आनंद भी प्राप्त होता है। गुरु का तीसरा संदेश था, “सुखे सुवू' इसका अर्थ है, आत्मा में विचरना और मन में आने वाले विचारों को रोकना। जब शरीर थके, तभी शरीर को सोने देना, ऐसा इन्सान सोता है, पर उठने पर स्वस्थ हो जाता है। उसे नींद में स्वप्न बेचैनी आदि नहीं होते। सुख से सोना, यानि आत्मलीनता में मग्न, भय रहित होना ताकि आराम से सो सके। जिसका मन अभय है, वह जमीन पर भी आराम से सो सकता है। फुटपाथ पर सोने वाला गहरी नींद में सोता है, एक धनवान को ऐसी नींद नहीं आती, कारण? एक मन भयमुक्त तथा श्रम का साधक है, जब कि, दुसरे का मन भययुक्त तथा श्रमरहित है। इन तीनों उपदेश का अर्थ, प्रज्ञ शिष्य तो समझ गया, क्यों कि वह माध्यस्थ भाव वाला, सौम्य दृष्टि वाला, तथा पूर्वाग्रह रहित था। उसकी दृष्टि द्वेष रहित थी, इसलिए उसने दूसरे शिष्य के साथ झगड़ा नहीं किया, बल्कि उस पर दया उमड़ी। इसलिए दूसरे शिष्यने भी उसके विचारों को स्वीकार किया। ___हमें भी शब्दों की पकड़ न करके उस में से हित भावार्थ को समझना चाहिए “गंगा मां झूपडूं" कहते हैं, इसका अर्थ गंगा के पानी बीच झोंपडा नहीं, अपितु गंगा के किनारे झोंपडा। धर्म दर्शन के सच्चे स्वरूप को समझने के लिए बुद्धि में सौम्यता तथा माध्यस्थ भाव होना चाहिए। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० माध्यस्थ भाव का माधुर्य माध्यस्थ, एवं सौम्य बुद्धि वाले का स्वभाव जड़ नहीं होता, राग, द्वेष की तीव्रता नहीं होती, सरलता से वस्तु के भावों को ग्रहण कर लेता है। जिसमें ऐसी दृष्टि नहीं वह अपनी गलत बात को मनवाने का आग्रही होता है, स्वयं को सच्चा तथा धार्मिक मानता है। ___परंतु ऐसा इन्सान भूल रहा है, कि किसी वस्तु को आकार देना हों तो उसे नर्म बनाकर सांचे में ढालना पड़ता है। आर्द्र, नरम, कोमल वस्तु ही योग्य आकार ग्रहण कर सकती है, सूखी और कठोर तो टूट जाएगी। जिसके जीवन में माध्यस्थ भाव नहीं, वह व्यक्ति मिथ्याभाव में से बाहर ही नहीं निकल पाएगा। वह एक ही पहलू को पकड़ कर बैठ जाता है दूसरों की बात सुनने को तैयार ही नहीं होता, और अंत में सत्य से वंचित रहकर जिंदगी बिताता है। बात बात पर उग्र होने वाला, जरा सा निमित्त पाकर आवेश में आने वाला व्यक्ति सौम्यता गुण से रहित है। कुत्ता भी निमित्त पाकर या अन्जान को देखकर ही भौंकता है, बिना निमित्त शांत रहता है। वैसे ही इन्सान भी बिना निमित्त शांत रहकर “मैं गुस्सा नहीं करता'' ऐसा आडंबर करता है, फिर उसमें और कुत्ते में फर्क ही क्या है? सामने वाले को क्रोध करने पर भी यदि तुम शांत रहोगे, तो तुम्हारा काम बन जाएगा, जैसे गर्म लोहे को ठोकते समय हथौड़ा ठंडा ही रहता है। यदि वह गर्म हो जाए तो प्रथम तो हाथों को ही जला डालेगा। और यदि ११३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ हाथ न भी जले तो, हथोड़ा गर्म लोहे के साथ-साथ स्वयं भी टेढ़ा-मेढ़ा हो जाएगा। अशांतिपूर्ण अनेक क्रियाओं से, शांति पूर्ण एक क्रिया का महत्त्व, कहीं अधिक है। धर्म की अनेक क्रियायें जैसे कि सेवापूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी छोटा सा निमित्त पाकर क्रोधित हो जाने से, कितना नुकसान होता है? अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी हजारों मण रूई को जला डालती है, वैसे ही क्रोधरूपी अग्नि समतारूपी रूई को जला डालती है। हमें हमेशा यह ध्यान रहना चाहिए कि जीवन के प्रत्येक प्रसंग में, बुरे या अच्छे दोनों समय मानसिक संतुलन कैसे बनाए रखना है? एक पहाड़ी पर एक साधु रहते थे, एक यात्री ने उनसे कहा कि, उसे यात्रा करने जाना है और उसकी सोने की मोहरें वो संभालें। साधु के बहुत मना करने पर भी, वो नहीं माना, तब साधु ने कहा कि पास में ही एक गड्डा खोदकर, अन्दर डाल दे, यात्री ऐसा करके निर्भय होकर चला गया। एक वर्ष बाद यात्री ने अपनी मोहरों की थैली मांगी। साधु ने कहा, "जहाँ तुमने रखी थी, वहीं पर होगी।" जमीन खोदकर थैली निकाली और साधु की खूब प्रशंसा करने लगा। इतनी स्तुती करने पर भी साधु को जरा भी हर्ष या खुशी नहीं हुई। हम तो जरा सी अनुकूलता में फूले नहीं समाते और प्रतिकूलता में आकुल, व्याकुल हो जाते हैं। याद रखना चाहिए, कि जोवन में सभी दिन, एक सरीखे नहीं रहते, संयोग - वियोग तो आते ही रहते हैं। हमें मन को शांत रखकर समतामय रहना है। मन जब आवेश में आए, मन को वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। थैली लेकर यात्री घर आया और नहाने चला गया। स्त्री खुश थी, लड्डू बनाने का सोचकर थैली में से एक मोहर निकाली और आवश्यक सामग्री खरीदकर भोजन तैयार किया। यात्री नहाकर आया, और अपनी मोहरें गिनने पर एक कम पाई। बस फिर क्या था? सोचा “साधु ने निकाली है, चुपचाप निकाल ली और साधु होने का ढोंग करता है। अभी जाकर साधु की खबर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ लेता हूं।'' आवेश में दौड़ा साधु के पास, कुछ सुनने को तैयार ही नहीं। साधु शिष्यों के साथ बैठे थे। वहाँ आकर चिल्लाया, “चोर पाखंडी, रूक जा, तेरी खबर लेता हूं।" जो भी मन में आया वही बोलने लगा, आवेश में दृष्टिभ्रम या मतिभ्रम हो जाता है इन्सान। बुरे से बुरे शब्द सुनाएँ साधु को। “मेरी एक सोने की मोहर तूने चुराई है, वापस कर दे, वरना पूरे गाँव में तुझे बदनाम कर दूंगा।' साधु शांत रहे, परंतु उसने पूरे गाँव में साधु को बदनाम कर दिया। घर आकर स्त्री को पूरी बात बताई कि, किस तरह एक महोर चोरी करने पर साधु को उसने बेईज्जत किया है। स्त्रीने कहा, "यह आपने क्या किया?'' फिर पूरी बात की। वह हैरान रह गया, खाये बिना ही साधु के पास जाकर, उनके पैरों में गिरकर माफी मांगी। साधु से पूछा, “मैंने आपकी इतनी बेईज्जती, निंदा की आपको बुरा तो नहीं लगा?" साधुने चुटकी भर धूल जमीन पर से ली और नीचे डालते हुए कहा, "तुम्हारी निंदा और स्तुति मेरे लिए धूल समान है।" साधु तो चंदन जैसे शीतल थे, समता रखी तो जीत उनकी हुई। यह उदाहरण हमें यह सिखाता है, कि घर और बाहर हमें शांत रहना चाहिए, साधु की तरह बुद्धि की माध्यस्थता तथा दृष्टि में सौम्यता रखनी चाहिए। ऐसी आत्मा ही धर्म आराधना के योग्य है। सच्चा धार्मिक वही है, जिसे सद्गुण स्वर्ण समान तथा दुर्गुण बिजली के तार समान लगते हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणानुराग आज हम बारहवें सद्गुण गुणानुराग का स्वाध्याय करेंगे। हमने अनादि काल से दूसरों के दोष ही देखे हैं, गुण देखना तो हमने सीखा ही नहीं, इसीलिए कागदृष्टि सरल है, हंसदृष्टि लाना कठिन है। गुणानुरागी इन्सान दूसरों के गुण देखने का प्रयत्न करता है, गुणी का बहुमान करता है, प्रशंसा करता है। एक कुशल व्यक्ति चाहें तो पत्थरों में से सच्चे रत्न ढूंढ ही लेता है, वैसे ही गुणानुरागी व्यक्ति दूसरों के गुण ग्रहण करके स्वयं भी गुणों का भंडार बन जाता है, इसे हंसदृष्टि कहते हैं। एक बार इन्द्रसभा में चर्चा चली कि श्रीकृष्ण गुणवानों की कद्र करनेवाले, गुणानुरागी है। यह सुनकर एक ईर्ष्यालु देव कुत्ते का रूप धारण करके बीच राह पर खड़ा था। खुजली से उसके शरीर का बुरा हाल था, लटकते हुए कान, दुर्गंध मारती काया। श्रीकृष्ण वहाँ से गुजर रहे थे, दूसरे वहाँ से गुजरने वाले तो मुंह फेर लेते थे, या मुंह पर कपड़ा रख कर गुजरते थे। मगर श्रीकृष्ण तो गुणानुरागी थे, उन्होंने उसके दांत देखकर कहा, “इसके दांत कितने सुंदर है? जैसे दाडम की कली।" यह सुनकर श्वान के रूप में आया हुआ देव, उनके चरणों में गिर पड़ा, कहने लगा, “हे भगवन्! श्वान के दुर्गुण देखने वाले तो बहुत थे, मगर अच्छाई देखने वाले तो केवल आप ही निकले। में आपको वंदन करता हूं।" हमारी इस छोटी सी जिन्दगी का एक चौथाई भाग खाने में और एक चौथाई भाग सोने में व्यतीत होता है, दूसरे आठ घंटे कामधंधे ११६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ में चले जाते हैं। थोडा सा बचा हुआ समय दूसरों के दोष देखने में तथा अपना रोना रोने में खत्म कर देते है तो फिर अपनी आत्मा का क्या? दूसरों की बातें, न याद रखने योग्य बातों को याद रखने में इतना समय गवायेंगे तो आत्मा को कब याद करेंगे? इसे सुधारने का यह भी एक उपाय है कि हम गुणानुरागी बनें। जहाँ, जहाँ गुणवानों के गुण देखें, हम भी उन गुणों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करें। जिस प्रकार भ्रमर सुगन्ध युक्त पराग की खोज में विचरता है उसी प्रकार हमें भी गुणों रूपी गौचरी करनी चाहिए, ताकि फालतू बातें हमारे दिमाग में आए ही नहीं। इस के लिए न केवल गुणों के प्रशंसक बल्कि गुणों के प्रति राग भी हृदय में होना चाहिए। जिसके प्रति राग हों, जैसे कि पिता की दाढ़ी खींचने पर भी बच्चे पर प्यार आता है, वैसे ही गुणानुरागी बनने के लिए हमारा पूर्ण प्रयत्न होना चाहिए। व्यापारी व्यापार के लिए बाजार में दौडते हैं, हमें भी इसी तरह व्यक्ति तथा दुनिया का राग छोड़कर सद्गुण प्राप्ति के लिए गुणवानों के पीछे दौड़ना चाहिए। उनसे जितने सद्गुण प्राप्त हो सकें उतने लूटने चाहिए, अपना जीवन भंडार भरना चाहिए। हीरे की चमक उसके भीतर ही होती है, मोती में भी उसका पानी रहता है। ठीक वैसे ही हमें भी गुणवानों के अंदर बसे हुए गुणों के दर्शन करके, उनके जैसी महानता अपने भीतर भी प्रगट करनी चाहिए। काशी में संस्कृत का अभ्यास करके दो पंडित एक गाँव से आए, एक ने न्याय का, दूसरे ने व्याकरण का अभ्यास किया था। एक शेठ ने उन्हें खाने का न्यौता दिया। व्याकरण का पंडित समझता है "न्याय पढ़ने वाले रीछ जैसे होते हैं।" न्याय शास्त्री समझता है "व्याकरण पढने वाले पिशाच जैसे होते हैं।" दोनों को एक दूसरे की विद्या के प्रति सम्मान नहीं था, दोनों पढ़कर पंडित बने, मगर एक दूसरे की दृष्टि को समझने का प्रयत्न नहीं किया। दोनों एक दूसरे के पूरक, प्रशंसक बने होते तो गुणों की प्राप्ति हुई होती, दोनों के जीवन में, परंतु वहाँ गुणानुरागी दृष्टि का अभाव था। समाज में अलग अलग क्षेत्रों में लोगों के अलग अलग काम के क्षेत्र हैं। नाई, धोबी, दर्जी, सुनार सबका समाज में समान स्थान है, सभी समाज Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ में उपयोगी हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। यदि ऐसा न हों तो एक दूसरे के विरोधी बन जाएंगे। दोनो पंडित शेठ के यहां खाना खाने गये, शेठने दोनों को अलग अलग कमरे में बिठाया, दोनों के मन में पूर्वाग्रह थे, दोनों चाहते थे कि उन्हें दूसरे से अधिक सन्मान मिले । न्यायशास्त्रीने शेठ से कहा- “शेठ! व्याकरणशास्त्री को न्याय का बिल्कुल ज्ञान नहीं, वह गधा है।" ऐसा कहकर अपने न्याय का प्रदर्शन किया। फिर बारी आई व्याकरणशास्त्री की, वह बोला "न्यायशास्त्री तो बैल जैसा है, उसे व्याकरण का तनिक भी ज्ञान नहीं, कहाँ षष्ठी और कहाँ सप्तमी का प्रयोग करना है, उसे मालूम ही नहीं।" ऐसा कहकर अपनी भाषा का प्रदर्शन किया। शेठ समझ गये ये दोनों पोथे पंडित हैं, अन्दर से जले हुए हैं, जीवन में शून्यता है। पंडित और ऐसे? संस्कारी इन्सान ऐसे होते हैं ? विद्या, शास्त्र, चारित्र्य वगैराह जीवन में नहीं पचा सकते, तो उनके शब्दों में से भी दुर्गंध आती है। उन्होंने तय किया इन राह भूले हुए पंडितो को सही मार्ग बताने का काम वो करेंगे। दोनों को खाना खाने बिठाया, पहले चांदी की थाली में एक को भूसा परोसा, दूसरे को घास परोसी। पंडित तो यह देखकर क्रोध में लाल पीले हो गये, जोर से चिल्लाए, “हमारा ऐसा घोर अपमान?'' शेठने कहा, “गर्म मत होईये, यदि मैं आपके जैसे पंडितों का कहना नहीं मानूं तो कैसे चले ? जैसा आपने कहा वैसा ही मैंने किया। गधे के पास भूसा और बैल के पास घास परौसी, मेरे समझने में कोई भूल हुई क्या?" पंडित शर्मा गये। शेठने उन्हें कहा कि, “शास्त्रों का अध्ययन किया है, मगर दृष्टि खुली नहीं है। इसीलिए मैंने यह ज्ञान आपको दिया है कि, दूसरों को नीचा दिखाने वाला कभी उपर नहीं चढ़ सकता।" शेठ की बात सुनकर, दोनों ने परस्पर एक दूसरे से माफी मांगी, इस तरह शेठ ने दोनों को सन्मान से सुधारा। ___ इस संसार में, दोष तो किसमें नहीं होते? परंतु दूसरों की त्रुटियों को न देखते हुए, यदि गुण ही देखे जाएं तो पूरा विश्व शान्तिमय बन सकता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सद्गुणों की उपासना दाष दृष्टि हमारा कुस्वभाव है, कोई वस्तु ढलान की तरफ बहती है, उसमें कोई नवीनता नहीं है, ऊंचाईयों पर चढ़ना ही मुश्किल है। दुनिया में आदमी को अधम बनाने वाली तो दोषदृष्टि ही है, जब कि गुणदृष्टि जीवन को उन्नत बनाती है। हम जानते हैं कि गाँव का कचरा उठाने वाला व्यक्ति भी, कचरे को अपने घर में न रखकर कहीं पर डालता ही है। फिर हम, लोगों की दोषरूपी गंदगी को अपने भीतर बटोर कर क्यों जीते हैं ? जिसमें ऐसी वृत्ति होती है, वह व्यक्ति, ऐसी बातें जहां चलती हों वहां पहुंच ही जाता है, दोष ढूंढने के लिए। इसीलिए महापुरूष हमें गुणानुरागी बनने का उपदेश देते हैं, प्रत्येक घर में बगीचे नहीं होते, वैसे ही सर्वत्र सद्गुण भी नहीं होते। एक जगह कहा है कि "निंदा न करजो पारकी, न रहवाय तो करजो आपकी।" दूसरों की निन्दा से अच्छा है, अपने दोषों की निन्दा करना, इससे हमारा कुछ भला होगा। धोबी तो पैसे लेकर दूसरों के गन्दे कपड़े धोता है, परंतु हम तो बिना पैसे लिए, अपनी जीभ मैली करते हैं, दूसरों के दोष बोलकर। हमें अपने को सुधारना है तो निरर्थक बातें न करके हमेशा अच्छी, भली बातें, काम की बातें करनी चाहिए। ११९ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शब्द की मार असर जोरदार होती है, क्रोध भरे एक शब्द से ही हमारी आँखे लाल हो जाती हैं, प्रेमभरे एक शब्द से मुँह पर मुस्कान आ जाती है, जैसे सुंदर वाद्य के तार को स्पर्श करने से सुर झंकृत हो जाते हैं, वैसे ही शब्द के स्पर्श से ज्ञानतंतु भी सक्रीय हो जाते हैं। हथौड़े से कुछ ठोकना हों तो हाथ पर से घड़ी खोल देते हैं, यह सोचकर कि कहीं बिगड़ न जाए। लेकिन हम अपने अमूल्य दिमाग को संतुलित रखने के लिए ध्यान नहीं देते। __हमें अपने दिमाग, मन को श्वेत वस्त्र जैसा रखना चाहिए, ताकि दाग पडते ही फौरन ख्याल आ जाए, और दाग लग भी जाए किसी दुर्विचार से, तो जल्दी ही धो डालना चाहिए, ताकि छाप न छोडे। मनरूपी स्लेट पर व्यर्थ की कोई बात अंकित न हों जाएं उसके लिए जागृति रखनी चाहिए। हमेशां अपने से ऊंचे लोगों के साथ ही संगत करनी चाहिए, ताकि हम कुछ अच्छा सीख सकें। बुरी संगत से, व्यसनी की संगत से हमारे में भी व्यसन प्रवेश कर जाएंगे, और निर्व्यसनी की संगत से व्यसन मुक्ति भी हो सकती है। लहसुन दुर्गंध देती है, चंदन सुगंध देता है, ठीक वैसे ही संग का रंग भी लगता है। हमें यदि कुछ अच्छा मिला है जीवन में, तो दूसरों को भी सिखाएँ ऐसी भावना होनी चाहिए। गटर का पानी भी गंगाजल के साथ मिलकर गंगाजल बन जाता है। ___ कुछ लोग कहते हैं कि, “शत्रु के गुण गाओ, और गुरु के दोष भी हों तो प्रगट करो।" परंतु यह ठीक नहीं है। निर्गुणी गुरु की उपेक्षा करनी चाहिए, अपने दोष गाने से, उसकी बुराईयां दूर नहीं हो जाती, सतत निंदा से ज्ञान तथा चारित्र्य मलिन होते हैं। हमारा कार्य तो यह है कि गुण सबके लो, दोष किसी के भी मत लो। हमारा सत्य भी हितकारी, मितकारी होना चाहिए। जो व्यक्ति अपने बुजुर्गों की निन्दा करता है, उसके हृदय में गुरू के प्रति सन्मान भाव कहाँ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ से जागृत होगा? दूसरों के दोषों को प्रगट करना, समझदार आदमी का काम नहीं, हो सके तो उसे ही करूणाभाव से कहना चाहिए, और यदि अपनी बात न मानें तो समता भाव धारण करना चाहिए। बुराईयां दूर करने के लिए, किसी की सहायता नहीं लेने वाला, शिखर की चोटी पर खड़े वृक्ष की भांति, पवन में स्वयं ही अपना शत्रु है। "मार्ग भूलेला जीवन पथिक ने, मार्ग चिंधवा ऊभो रहूं, करे उपेक्षा ए मारगनी, तो ये समता चित्त धरूं।" गुणानुरागी बनने के लिए, यह सद्गुण अत्यंत सूक्ष्म है। एकलव्यने श्री द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर, उन्हें गुरूपद पर स्थापित कर, अपना श्रद्धा दीपक जलाकर, भक्तिपूर्वक अभ्यास किया तो श्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर सका। जैसे इत्र को कपड़े पर लगाने से सुगंध फैलती हैं, वैसे ही गुणवान के संसर्ग से अपना चित्त भी सौरभयुक्त हो जाता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U सत्कथा बारहवें सोपान उपर चढ़ा हुआ व्यक्ति, यदि गुणानुरागी है, तो वह तेरहवें गुण सत्कथा में सहज ही प्रवेश कर सकता है। सत्कथा यानि, अच्छी कथा कहने वाला, जिससे कलह, कंकास, दुःख की व्यथा कम हो जाए। आज मातृभावना से दूर हुई अपनी मानव जाति, केवल रूस और अमेरिका में ही नहीं, दुनिया में हर जगह प्रांतवाद और राष्ट्रवाद के टुकडों में बट रही है। व्यक्ति अपना ही भला सोचने में लगा हुआ है, उससे दृष्टिभेद, विचारभेद, मतभेद और मनभेद बढ़ रहे हैं। देश कथा और प्रांत कथा की तरह आज स्त्री कथा भी बहुत प्रचलित हुई है, इस कथा में डूबे इन्सान को दूसरा कुछ भान ही नहीं रहता। स्त्रीयों के अल्प कपड़ों में चित्र, उनकी चर्चा आदि खूब व्यापक बने हैं। Beauty contest में देह का प्रदर्शन तो दूसरी तरफ स्त्री की निंदा करनेवाले वर्ग की भी कमी नहीं है। पुराने समय की कहावत है, “चार मले चोटला तो भांगे घरना ओटला'' परंतु आज इसे बदलने की जरूरत है, “चार मले चोटली, तो तोडी नाखे रोटली।" बार बार कमरे में धुंआ करने के फलस्वरूप दीवारों पर उसका असर आ ही जाता है, वैसे ही आज स्त्रीकथा से लोगों के मानस विकृत हो गये हैं। जिससे अच्छे विचारों को दिमाग में आने के लिए स्थान ही नहीं रह गया है। १२२ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ इसीलिए हमें सत्कथा का गुण आत्मसात् करना है, दूसरों से जब भी करें, अच्छी ही बात करें, तो उसका असर जरूर होता है, इससे जीवन परिवर्तन हो सकता है। जहाँ संस्कारी लोग होते हैं वहाँ उनकी संताने भी संस्कारी ही होती हैं। शंकराचार्य दिग्विजय करने निकले हैं, वे कुमार भट्ट को जीतना चाहते हैं। पनिहारियों से वे कुमार भट्ट का घर कहाँ है ? पूछते हैं। पनिहारियां जवाब देती हैं कि, जिसके घर के बाहर बैठे हुए तोता-मैना तत्त्वज्ञान की चर्चा कर रहे हों, वही कुमार भट्ट का घर हैं। जिस घर के वातावरण में तोता-मैना शास्त्र ज्ञान की चर्चा करते हों, वहाँ के मानव कैसे होंगे? ऐसे वातावरण का प्रभाव केवल घर के लोगों पर ही नहीं, बल्कि नौकरों तथा पशु-पक्षियों पर भी पड़ता है। एक गाँव में एक औरत ने अट्ठम (तेला) किया, तो उसके यहाँ रहने वाली गाय की बछडीने भी अट्ठम किया, उसकी मालकिन नहीं खाए, तो वह कैसे खाए ? वैसे भी वो मालकिन के खाने के बाद ही खाती थी। फिर दोनो ने पारणा साथ-साथ किया, वातावरण का कैसा असर! पशुओं पर वातावरण के असर का एक दूसरा प्रसंग देखते हैं, “हिज मास्टर्स वॉईस'' H.M.V. के ग्रामोफोन पर कुत्ते का चित्र है। उसका मालिक जब वाद्य बजाने बैठता, वह सामने बैठ जाता। शेठ जब खाना खाते वह भी टेबल के पास बैठकर खाना खाता, वह शेठ से इतना घुलामिला था कि मानो उसका समझदार मित्र हो। कुछ समय बाद शेठ की मृत्यु हो गई, अब कुत्ते को संगीत सुनाई नहीं देता, न ही मालिक दिखाई देते। उसने खाना पीना छोड़ दिया, उदास होकर पड़ा रहता, घर के लोगों ने बहुत उपाय किए, उसने खाना नहीं लिया। फिर एक जन को विचार आया कि शेठ का रिकॉर्ड चालू किया जाए, ऐसा किया। शेठ की आवाज सुनते ही कुत्ता हर्षित होकर नाचने लगा, आनंद के आंसू बहाने लगा। फिर तो वह रोज रिकॉर्ड सुनता तभी खाना खाता, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्वान की भावनाएँ कैसी ? "हिज मास्टर्स वॉईस" की रिकॉर्ड पर देखिए चित्र में, कि कुत्ता अपने मालिक की आवाज कितनी एकाग्रता से सुनता है। इसीलिए हमेशा अच्छी कथाएँ कहनी और सुननी चाहिए, इससे गन्दे और घटिया साहित्य स्वत: छूट जाएंगे। वैसे जो लोग इन चार कथाओं में रत रहते हैं, उनके मन ऐसे कलुषित हो जाते हैं । जिस प्रकार धुएं से काली पडी चिमनी में दीपक का प्रकाश धुंधला जाता है, वैसे ही गन्दी और घटिया कथाएं कहने और सुनने वालों के हृदय में ज्ञान और विवेक रूपी प्रकाश प्रस्फुटित नहीं हो पाता और उनका जीवन अन्धकारमय हो जाता है। जो विवेकी हैं, वह इस लोक, परलोक का विचार करके जीता है, जो सत् असत् का विचार करता है, उसके जीवन में पछताने का वक्त नहीं आता, क्यों कि वह अपने तन और मन को अस्वस्थ करने जैसा 'कुछ करता ही नहीं । धर्म क्या है ? धर्म यानि विवेक का सार, जो प्रवृत्ति विवेक रहित हों वह धर्म कैसे बन सकती है ? एक बार कश्मीरी और मद्रासी दो व्यक्ति बम्बई में मिले। दोनों में मैत्री हुई, मद्रासी होशियार था, जब कि कश्मीरी लगाववाला, उदार परंतु विवेकहीन था, लगाव के साथ विवेक भी होना चाहिए। जाते समय दोनों ने अपने ठिकाने एक दूसरे को दिए, अपने घर आने का निमंत्रण दिया फिर चले गये । गर्मीयां आई, तब कश्मीरी मद्रास गया उसने भावपूर्वक उसका सत्कार किया, बहुत गर्मी थी, नहाने के लिए ठंडा पानी, बारीक वस्त्र दिए। भोजन में श्रीखंड दिया, पास बैठकर पंखे से प्रेमपूर्वक हवा डाली, कश्मीरी बहुत खुश हुआ । फिर सर्दियां आई, मद्रासी कश्मीर गया, कश्मीरी व्यक्ति लगाव वाला था, अतः उसने सब कुछ मद्रासी की तरह ही किया । नहाने के लिए ठंडा पानी, भोजन में श्रीखंड, बारीक वस्त्र आदि दिए उपर से पंखे से हवा देने लगा। मद्रासी ठंड से कंपने लगा, खाते खाते कश्मीरीने पूछा, " आपकी क्या Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ सेवा करूं?'' तब वो कांपते कांपते मन ही मन बोला, “अब तो लकडी जलानी ही बाकी है।'' देखिए, दोनों की सेवा एक जैसी थी, मगर काल देश, परिस्थिति को ध्यान में लेकर करनी चाहिए, इतना विवेक उसमें नहीं था। धर्म का आचरण भी देश व काल के अनुसार करना चाहिए, नहीं तो उसकी भी हंसी उडाते हैं लोग। एक समय में धार्मिक जूलूस धर्म प्रभावना के लिए निकलते थे, आज तो वहीं पर काले धन का प्रदर्शन होता है। एक पुराना मंदिर होता है, उसी के पास नये मंदिर का निर्माण किया जाता है, पर पुराने मंदिर का जिर्णोद्धार करवाने का विवेक जागृत नहीं होता। आज राजस्थान में कितने ही मंदिर जीर्ण अवस्था में हैं। हमें काल, समय का विवेक रखना जरूरी हैं, बिना विचार पूर्वक की गयी प्रवृत्ति से धर्म के नाम पर अधर्म हो जाने का भय रहता है। धर्म यानि विवेक का सार, विवेकी इन्सान ही खरे, खोटे का फैसला कर सकता है। पुराना है इसलिए अच्छा है, ऐसी बात नहीं। अच्छा है, इसलिए अच्छा है, ऐसा स्वीकार होना चाहिए। सत्कथा चाहें जितनी लम्बी हों, विवेकी उसमें से सार ग्रहण कर लेता है, गलत को छोडकर सही ग्रहण कर लेता है। श्रीपाल की कथा सुनकर, यह नहीं कहता कि श्रीपाल ने नौ पत्नीयां की तो मैं दो रखू, तो क्या गलत है? महाभारत पढ़कर कोई स्त्री तर्क नहीं करती कि द्रौपदी जैसी महासती ने पाँच पति किए तो मैं भी दो-तीन करूं तो क्या बुराई है? या फिर कोई जुआरी ऐसा कहे कि धर्मराज युधिष्ठिर ने तो पत्नी को दाँव पर लगाया था, फिर मैं जुआ खेलूं तो क्या बुरा है? इस तरह यदि विवेक नहीं रखा और हर कथा में से न लेने योग्य बातें ग्रहण करेगा तो संघर्ष ही पैदा होगा। अत: हर जगह विवेक अत्यावश्यक है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखंड जीवन - हमने देखा कि धार्मिक व्यक्ति अच्छी कथा कहने वाला होता है, इसीलिए उसे 'सत्कथा' कहा है। लोगों के जीवन में गुप्त और उजागर दो हिस्से हो गये हैं। मन में कुछ, मुंह में कुछ। कहना कुछ और करना कुछ। ऐसा करने से लोगों के आंतरिक जीवन कलुषित हो जाते हैं। दोहरी जीवन जीने वालों को जीवन में हमेशां दो विभाग रखने पड़ते हैं। सही जिंदगी में “एगो वा परिसहो वा' अकेले हो या परिषद में, समूह में, विभाग जैसा कुछ नहीं, जीवन तो सरल होना चाहिए। जिस तरह एकांत में रहते हो, वैसे ही समाज में बर्तो, बोलो, विचार करो जब तक हम ऐसा जीवन नहीं जियेंगे, हमारा मन ऊंचा नहीं उठेगा। मन यदि खराब होगा तो जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंदो के पड़ते ही, फौरन भाप बनकर उड़ जाती है, वैसे ही धर्म के अमृत बिन्दु ऐसे मन पर पड़ते ही जल जाएंगे। हमारा पहला कर्तव्य यह है कि समाज को सुंदर बनाने से पहले अपने मन को सुंदर व स्वस्थ बनाएं। अन्दर कुछ, बाहर कुछ, ये दंभ की दिवारें जीवन में अंतराय रूप बनती हैं। कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए, ज्ञानियों के छोटे वाक्यो में धर्म का मर्म समाया होता है, उन पर हमें चिंतन करना चाहिए। दीपक की ज्योत जब, दूसरी ज्योत में मिलती है, तो बिना विरोध के १२६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ दूसरे में मिल जाती है, और प्रकाश भी बढता है। यदि अपने जीवन में कोई ऐसी ज्योति न मिले जिससे तादत्म्य स्थापित हो सके तो अन्य अच्छे लोगों के सदाचरण का अनुकरण करने या हमेशां अच्छी बातों का चिन्तन मनन करके अपनी आत्मज्योति को और प्रखर बना सकते है। तेजोदीप्त कर सकते हैं। आखिर कब तक हम दूसरों द्वारा टीका-निन्दा किए जाने के भय में जीते रहेंगे? इस लिए अन्दर बाहर के विभाग नहीं होने चाहिए। निर्भय बनने के लिए विचार, वाणी एवं करनी की एकरूपता जरूरी है। जीवन में यदि विषमता रूपी गांठ है तो धर्मरूपी धागे में सुई बीच में ही अटक जाएगी, जीवन में धर्म की प्रगति रूक जाएगी। हमारी मंजिल हमें तय करनी चाहिए, जीवन में ध्येय होगा तो जिन्दगी जीने लायक लगेगी। आज कई लोगों के पास जीने का कोई उदेश्य नहीं है, इसलिए जीवन दुःखद लगता है। आखिर जीवन में आनंद क्यों नही रहा? इन्सान इतना छोटा क्यों हो गया है? खाने, पीने, रहने, पहनने के साधन हमें मिलने के बावजूद भी हमारा जीवन विषाद से भारी क्यों बन रहा है ? जीवन में से प्रसन्नता तो जैसे नेस्तनाबूत ही हो गई है। यह प्रश्न विचारणीय है। जरा सोचिए कि जीवन के पचास वर्षों में हमने क्या प्राप्त किया? क्या बची हुई जिंदगी भी यूं ही जीनी है ? अमूल्य मानव भव यूं ही बीत रहा है, बाल्यकाल, यौवन गये, अब वृद्धावस्था आ गई है, अब तो वक्त आया है, अपने आप से मुलाकात करने का। निश्चित होकर अंत:करण के आनंद की अनुभूति करनी है। वृद्धावस्था तो थोड़ी देर का आराम है। यौवन का अहम् और कामनाओं का . भार छोडकर वृद्धत्व का आनंद उठाना चाहिए। वृद्धावस्था यानि अनुभव और विचारों की मधुरता को और अधिक बढ़ाने की अवस्था। इन्द्रियां शान्त हो जाती हैं, जीवन की कलुषितता चली जाती है, तथा अनुभवों द्वारा जीवन को प्रकाश मिलता है, यह ऐसी अवस्था है। बाल्यकाल में धूल में खेलने में, खिलौनों में मन रहता है, यौवनावस्था में काम में, भोगविलास तथा राग के साधनो की प्राप्ति का प्रयास रहता है। हए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ परंतु वृद्धावस्था में ये भाव शान्त हो जाते हैं, शान्त, निर्मल भावों द्वारा प्रभु के संग मन का मिलन करना है, आत्मा का विचार करना है। लोगों के साथ सत्कथा करना है, और ऐसे करते करते, जैसे पवन के झोंकों से फूल नीचे गिर जाते हैं, वैसे ही आँखे बंद हो जाती हैं । हाँ आज परिस्थिति बदल गई है, बुढापे में भी काम करना पडता है, हाँ जरूरी हों तो काम करो, परंतु उसके पीछे मत भागो । जो सहज मिले, स्वीकारो परंतु उसके पीछे बेचैन मत बनो। हम तो जिंदगी में जीवन ढूंढने निकले हैं, यही हमारा जीवन ध्येय है। मानव जीवन केवल घर में पड़े रहने के लिए नहीं मिला है, परंतु सच्चा मानव जीवन जीने के लिए मिला है। बिल में रहनेवाले सर्प की तरह लोभी तथा क्रोध से क्रूर बना हुआ जीवन नहीं जीना है, अपितु सद्गुणों से प्रकाशित सत्कथ जीवन जीना है । तभी मानव जीवन सार्थक बनेगा । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ सुपक्ष - सत्कथा से इन्सान सुपक्षवान बनता है। पक्ष के दो अर्थ हैं, पक्ष यानि तरफ या करवट तथा पक्ष यानि पंख। धर्मी व्यक्ति यानि सज्जन, स्नेही, इनका पक्ष अच्छा होता है, सत्कथा करने वालों का पक्ष अच्छा ही होता है न। जैसे शराबी का पक्ष शराबी, इसका कौन विश्वास करे? हल्के का पक्ष हल्का। दस शराबी मित्र साथ में शराब पीते हैं, परंतु उनमें से एक मित्र कोई बात कहे तो यही कहेगा कि शराबी का विश्वास कौन करेगा? कुपक्ष वाला मित्र समय आने पर काम नहीं आएगा, सुपक्ष वाला मित्र तुम्हारी बात सुनेगा, मुसीबत समझेगा, तुम्हारे प्रति अनुराग जगेगा, और सहायता करने तो तैयार होगा। दुर्गुणी तो केवल नुकसान करने में ही साथ देंगे, खराब आदमी का विश्वास आदमी भी नहीं करेगा। सद्गुणि के सभी प्रशंसक बनेंगे, यहाँ तक कि शत्रु भी मन में तो प्रशंसा ही करता है, सद्गुण का यह महत्त्व हैं। सुपक्षवाला, अनुकूल स्वजन प्राप्त करता है, क्यों कि धर्मी के लिए सबके मन में सम्मान रहता है, उसका साथ देने को सब तैयार रहते हैं। ऐसे निर्व्यसनी व्यक्ति को सभी अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं। उसका तप भी सामने वाले के मन में भाव जगाता है, प्रतिकुलताएं अनुकूलताएं बन जाती हैं, जीवन का समग्र वातावरण अनुकूल बन जाता है। १२९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० एक बहुत ही सज्जन आदमी था, बडा सदाचारी था, एक बार प्रवास में जाते हुए उसके पाँव कट गये वह पंगु बन गया। उसकी औरत उसे अच्छी तरह जानती थी कि वह कैसा सज्जन व सदाचारी है ? उसने कहा कि उसका सब काम वह करेगी। वह औरत सवेरे घर का काम निपटा कर, खेत में काम करने चली जाती, फिर शाम को घर आकर काम करती। पति ने सोचा उसकी औरत कितना काम करती है? थोडा काम उसे कर लेना चाहिए, अब वह एक जगह बैठकर एक समय का खाना बनाकर रखने लगा, दोनों एक दूसरे के पूरक बने। - उसने गाँव के लोगों से भी कहा, “मैं और तो कोई सेवा नहीं कर सकता, परंतु कोई साधु, संत, जैन यति आए तो मेरे घर भेजने का पुण्य कमाना।'' फिर जो भी संत आते वो सब उस सज्जन के घर जाते, वो प्रेम से सबको रोटी और छास देता। वो कहता, “मैं घर में बैठा बैठा खाऊं, उससे अच्छा साधु, संतो, आगन्तुकों की सेवा करके, थोडा दान देकर खाऊं तो क्या बुरा है? ऐसा दान देकर मैं अपना जीवन धन्य बनाऊंगा।" ऐसा व्यक्ति करोडपति की तुलना में अधिक सुखी है। कारण यह है कि वह परिश्रम करता है, साधु संतो की सेवा करता है, भक्ति करके खाता है। फिर संतोष और आनंद से रात्रि व्यतीत करता है। जिंदगी का मापदंड पैसा, धन, सत्ता और अधिकार ही नहीं है, परंतु यह बात कब समझ में आएगी? अच्छी बातें तो अभी सुनी और सीढ़ियां उतरते ही भूल जाते हैं, दुनिया की बातों का इतना गहरा असर हमारे मनमस्तिष्क पर हो रहा है कि अच्छी बातें भी अधिक समय याद नहीं रहती। अतः सुपक्ष के कुटुंब में सभी सदस्य धर्मशील होते हैं, दो में एक धर्मी व दूसरा अधर्मी हों तो कलह होता है। पति यदि मांसाहारी है तो पत्नी को अनिच्छा से भी देर-सवेर अपनाना ही पड़ता है। इस तरह दुराचार जल्दी आ जाता है, सदाचार को आने में समय लगता है। पान के सौ पत्तों में से एक भी पत्ता यदि सड़ा हुआ हों तो वह सभी में दाग लगता है। उपाध्याय यशोविजयजीने कहा है - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __१३१ “हीन तणो जे संग न त्यजे, तेहनो गुण नवि रहे, जेम जलधिजलमां भल्यु गंगा, नीर लूणपणुं लहे।" धर्मशील का जीवन सुपक्षवाला होना चाहिए। बुरे और खोटे कर्मों के प्रति सावधान रहते हुए, “ऐसा करना मुझे शोभा नहीं देता।" यह विचार वह सदा करता ही रहता है। सुपक्ष में अनुकूलता, धर्मशीलता और साथ में सदाचार ये तीन गुण रहते हैं। सुपक्ष का दूसरा अर्थ है अच्छे पंखवाला, पंख अच्छे हो तो गगन में अनंत तक उडा जा सकता है। यदि आत्मा रूपी पक्षी को मुक्ति रूपी गगन की अनन्त ऊँचाईयों तक उड़ान भरनी है तो उसके पंखो का सुन्दर और सुदृढ होना आवश्यक है। यह पंख धर्म से युक्त होने पर ही उड़ान में समर्थ एवं सहायक हो सकते हैं। सदाचार से पूर्ण मानव रूपी पक्षी ही मोक्ष की और प्रयाण कर सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। संयोग और स्वजन अनुकूल हों, मन धर्मशील हो, और सब सदाचार से पूर्ण हो तो संसाररूपी घौसला सुन्दर बन सकता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में सुपक्षता विश्व में कहने पूछने वाले बहुत मिल जाते हैं, परंतु धर्म क्षेत्र में उत्साह देने वाले लोग बहुत कम मिलते हैं। बहुत से लोग तो नाटक और सिनेमा घरों की तरह धर्मस्थानों को भी मनोरंजन का साधन मानते हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि, आदमी के विचार ऐसे क्यों हो गये? व्यक्ति में राग इतना बढ़ गया है कि वैराग्य को भूल ही जाता है। धर्म का मूल्यांकन किये बिना उसके प्रति रूचि जगना मुश्किल है, इसीलिए धर्म को सच्चे अर्थ में समझना जरूरी है। धर्म के यथार्थ और व्यावहारिक स्वरूप को यदि हमने समझ लिया तो निश्चित ही दुःखों, संकटों एवं अन्य दुर्गुणों से उबरने में सफल हो सकेंगे। धर्म को समझना एक बात है, और उसका आचरण दूसरी बात है। मेघकुमार ने भगवान महावीर का प्रवचन सुना, जो अंतर में उतर गया तब उनकी माँ को कोई आपत्ति नहीं थी। परंतु उपदेश को अमल में लाने की जब बात आई तब माँ को लगा कि अब लडका हाथ से गया। इसका कारण था कि माँ अपने पुत्र को धर्मकथा सुनने देने को तैयार थी, परंतु वह सुनकर साधु बन जाए, यह उन्हें मंजूर नहीं था। इस तरह धर्म आचरण का आडम्बर करने में सर्व सम्मत होते हैं, परंतु आंतरिक धर्म के दर्शन से लोगों को धक्का लगता है। सच्चा कार्य तो धर्म के सच्चे मूल्यांकनों को समझकर उसका आचरण करना है। १३२ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ जब पक्ष का, घर का वातावरण निरूत्साही होता है, तब प्रगति रूंध जाती है। यह तो जिनके भाग्य अच्छे होते हैं या जिनके स्वजन, परिजन अनुकूल होते है वे ही पुण्य के प्रकाश को प्राप्त कर सकते हैं। जो धर्मशील होते हैं उनकी प्रगति में अक्सर दूसरे पूरक बनते हैं। बहुत बार, स्पर्धा के कारण भी प्रगति होती है। स्वस्थ जीवन की स्पर्धा मानव को ऊंचे सोपानों तक पहुंचने में पंखरूप बनती है। आनंद वस्तु में है या मन में? घर में मिष्टान बनाया हों, परंतु घर में कलह हो जाए तो ऐसे वातावरण में मिष्टान भी अच्छा नहीं लगता। इसके विपरीत यदि घर में खुशियों का वातावरण हो तो सूखी रोटी और कढ़ी भी मीठे लगते हैं। आनंद अशांति में नहीं, आनंद तो तृप्ति भरी शांति में निहित है। आज कई ऐसे नेता हैं जिनके घर में कलह की होली जलती है, और वो दूसरों को ज्ञान प्रदान करने निलकते हैं। घर की आग बुझाये बिना, देश का भला करने जो निकले है, वे जहाँ जाएंगे, आग ही लगायेंगे। यदि तुम धार्मिक बनना चाहते हो तो सुपक्ष तैयार करो, ताकि कल यदि तुम चले भी जाओ तो, तुम्हारे विचारों, तुम्हारे संतानो तथा स्वजनों द्वारा तुम जिवित रहो, लोग तुम्हें याद करें। बालक के लिए संस्कृत में “आत्मज' शब्द प्रयोग होता है, आत्मा के संस्कार से जो जन्मा है, वह आत्मज। कल का कार्य करने वाला, पुत्र यानि इच्छाओं तथा मनोरथों का वारिस इन्सान के रक्त और प्यार का सर्जन, . उसमें लगाव, भावना व अनुभूति हैं। माता पिता के हृदय उनके बालकों मे रहते हैं, पिता पुत्र को कहता है कि, “हमारी उर्मियां हमने तुम्हारे में उंडेली है, हमारे अपूर्ण उत्तम कार्यो को तुम्हें पूरा करना है।" इसका एक सुंदर उदाहरण है। एक वृद्ध का बेटा घर का छप्पर ठीक कर रहा था, खाने का समय हुआ, पिता खाने के लिए बुलाता है, पर वह नहीं आता, काम में व्यस्त है। अब बापने एक युक्ति Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ की, कि बेटे के छोटे बेटे अर्थात् अपने पोते को लाकर धूप में बिठा दिया। अपने बेटे को धूप में बैठा देखकर, स्वयं में बाप का भाव जाग्रत हुआ, फौरन ही कूद कर नीचे आ गया। बच्चे को छाती से लगाते हुए पूछा, “ऐसा क्यों किया?" पिताने कहा, “मुझे तुम्हारे लिए कैसा प्रेम है, यह तुम इसके बिना कैसे समझते?'' तुमने खाना नहीं खाया तो मुझे कैसा महसूस हो रहा है? यह तुम अपने पुत्र के दृष्टांत से समझ जाओगे। विचारों के जो अधूरे तंत्र, पिता छोड़कर जाते हैं, उन्हें पूरा करना पुत्र का आनंद है। पुत्र नहीं करेगा तो कौन करेगा? माँ बाप प्रेम की वर्षा जो बालकों पर करते हैं, उसका ऋण तो कभी नहीं चुकाया जा सकता। तुम कहोगे कि भाग्य से मिला, परंतु निमित्त तो वे हैं न। जो माँ बाप धर्म से चलित हुए हो, आध्यात्मिक जीवन में अज्ञान हों और तुम उन्हें सच्चे, सही मार्ग की ओर ले जाओ, उसके लिए उत्तम साधन उपलब्ध कराओ, तो थोडा सा आंशिक उपकार अदा किया, ऐसा कह सकते हैं। ऐसे पुत्र, स्वजन हों, वे लोग सुपक्ष बाले कहलाते है, ऐसे सुपक्ष के पंख प्राप्त होने पर, अपने स्वधाम पहुंचने में भी आनंद आता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ दीर्घ दर्शिता धर्म रत्न के इन सद्गुणों को सोपान कहना ज्यादा उचित है, क्यों कि गुण व्यक्ति को आगे बढ़ाता है और सोपान उपर ले जाता है। हमने ऐसे चौदह सोपानो पर पूर्व में विचार कर लिया है। कल हमने सुपक्ष पर विचार किया था, इस शब्द में कैसी कविता है? पक्ष यानि कुटुम्ब और पक्ष यानि पंख। मोर के पंख होते हैं, यदि वे कट जाएं, पीछे बिखर जाएं तो मोर की सुंदरता नष्ट हो जाएगी, वह नृत्य नहीं कर सकेगा, प्रसन्नता नहीं प्रगट कर सकेगा। उसका सारा सौन्दर्य तिरोहित हो जाएगा। वैसे ही हमारे आसपास के स्वजन अच्छे होंगे तो ही हम सुंदर लगेंगे। पुत्र भला हों तो, उससे उसके माँ-बाप पहचाने जाते हैं। देवता का पुत्र यदि राक्षस जैसा हों तो पिता की इज्जत मिट्टी में मिला देगा। इसीलिए कहा है कि कुपुत्र का पिता होने से तो नि:संतान रहना अच्छा है। वस्तुपाल, बिना पुत्र के बाप थे, फिर भी समाज के पिता बन गये। आबू देलवाडा के भव्य जिनालयों का निर्माण करवा कर अमर बन गये। जिसमें पोषक तत्त्व हों, वह सच्चा पिता। जरा वस्तुपाल के जीवन पर नजर डालिए। उनके द्वारा सर्जित देलवाड़ा के मंदिर ने गौरव दिया, संस्कृति का पोषण किया। थोड़े समय पहले, एक अंग्रेज दंपत्ति, वहां पर छत की सुंदर कारीगरी देखने आए, वो सोकर ऊपर नजर रखते हुए, इस सुंदर कलाकृति १३५ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ का रसपान कर रहे थे । यदि खडे खडे ऊपर दृष्टि डालकर देखते तो गर्दन अकड़ जाती, इसलिए उन्होंने यह तरकीब आजमाई। उस समय मेरे मन में यह ख्याल आया, कि वस्तुपाल कैसा होंशियार है, कि उसने अंग्रेजो को भी कला के सम्मान हेतु लंबा होने पर मजबूर कर दिया। यही कारण है कि वह पुत्र बिना का होकर भी पोषक पिता बना, आज सदियां बीत जाने के बाद भी, हम उनकी संतान बनने का गौरव लेकर उन्हें याद करते हैं । सुपक्षता के बाद हम अब पंदरहवें सोपान 'दीर्घदर्शिता' पर आए हैं। जो काम अच्छा नहीं, उसका परिणाम अच्छा नहीं, जो काम अच्छा है, उसका परिणाम भी अच्छा आएगा । दीर्घ दृष्टि अपनाकर इन्सान दूर की सोचकर, परिणाम का विचार कर, काम करेगा, साथ ही साथ परिणाम में अनासक्ति का ही भाव रखेगा । “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" यह सापेक्ष वाक्य है। काम करो मगर, फल की इच्छा मत करो। आज तो काम से पहले लोगों को परिणाम चाहिए, स्वार्थी होकर जो आना पाई का हिसाब गिनता है, वह अच्छा काम नहीं कर सकता । इन्सान का धर्म है अच्छा काम, सोच विचार कर करना, उसमें भी दीर्घ दृष्टि तथा उदार दिल रखना चाहिए, क्यों कि परिणाम कुछ भी आ सकता है। इन दोनों गुणों का संकलन हों, तब काम सार्थक बनता है। पचहत्तर वर्ष के एक बूढे को आम का पेड़ लगाते हुए देखकर किसी ने पूछा, “तुम तो बूढे हो गये हो, अब यह आम का पेड़ कब उगेगा, और तुम आम कब खाओगे ? " तब उसने जैसे श्रम का गीत गाते हुए कहा "बीते हुए कल ने मुझे आज यह दिया है, तो मैं भी कुछ कल के लिए देना जाऊं।" सच तो यह है कि जब से तुमने आम बोया, तबसे ही सूक्ष्म फल मिलन की शुरूआत तो हो ही गई है, क्यों कि उसमें दूसरों को छाया मिले, फल मिले ऐसा शुभ हेतु निहित है । वृद्धने अपना कृतज्ञता का ति रखने के लिए, यह कार्य दीर्घदर्शिता पूर्वक किया। कहा गया Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ है कि 'बहु लाभ अने अल्प क्लेश' काम ऐसा करो जिसमें लाभ अधिक हों, क्लेश कम हों । श्रम का संबंध देह से है, क्लेश का संबंध मन से है । लाभ अधिक लेना, काम कम करना, यह आदमी को कामचोर बनाता है, यह एक प्रकार की चोरी है। यहां अल्प क्लेश यानि अल्प श्रम नहीं श्रम तो करना ही चाहिए। साधक के लिए क्षमा-श्रमण नामक ये दो शब्द प्रयोग किए गये हैं। आत्मा की शुद्धि के लिए, मन की मुक्ति के लिए, प्रेम से जो सहन करे, वह क्षमा श्रमण कहलाते हैं । क्षमा श्रमण पना अपने में होना अनिवार्य है, श्रम के बिना जीवन में मिठास नहीं रहती। रसोईये की रसोई और औरत के हाथ का खाना, दोनों में फर्क यही है कि, पत्नी हाथ से बनाए हुए खाने में प्रेम की उर्मियां भी मिश्रित होती है । अतः खाना स्वादिष्ट लगता है । परिश्रम करके बनाए हुए खाने में, भूख भी बराबर लगती है। ऐसा ही पैसे के लिए समझना चाहिए, प्रस्वेद गिरा कर कमाया हुआ धन, सच्चा धन होता है। वह फालतू खर्च नहीं करेगा। जिसका पेट भरा हों उसे भूख का ख्याल नहीं आ सकता, वह भाषण, कथन कर सकता है, अनुभूति नहीं कर सकता । गरीबी मन की वस्तु है, निर्धनता दुनिया की वस्तु है । जिसमें नैतिक हिम्मत नहीं, वह मन का गरीब है, अत: निर्धनता भले आए, परंतु मन की गरीबी नहीं आनी चाहिए। इसलिए जगत में धन के साधन होने के बावजूद भी ऊंचे स्थान पर आरूढ होने वाले बहुत कम लोग हैं। "संतोष थी जीवन गुजरे, ऐटलुं तुं मने आपजे, घर घर गरीबी छे छतां, दिलमां अमीरी राखजे ।" आदमी यदि मे जगीर है तो कम साधन मिलने पर भी, मन से उन्नत रह सकता है । एक भिखारी था, दिन भर भीख मांग कर खाता था। उसे दूसरा भिखारी मिला, वह अधिक गरीब था, वह पहले भिखारी जैसा भीख मांगने में कुशल नहीं था। दूसरे का दुख देखकर, पहले भिखारीने अपने सारे पैसे उसे दे दिए, उसने देखा कि उसे पैसे की जरूरत अधिक थी। हालांकि Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ वह भी भिखारी ही था, परंतु दिल का अमीर था, अमीरी, गरीबी इन्सान के हृदय में रहती है। ग्रंथकार फरमाते हैं कि प्रवृत्ति ऐसी करो जिसमें "बहु लाभम् अल्प क्लेशम्।" क्लेश यानि उद्वेग निकलता आए, ऐसा काम नहीं करना चाहिए। प्रवृत्ति आदमी के मन को स्वस्थ करने के लिए है, यदि समाधि टूटती हों, तो पच्चक्खाण छुड़ाकर भी पारणा करवाने में पाप नहीं है। "सब्ब समाहि वत्तिया गारेणं' पच्चक्खाण में भी यह आगार रखा है। पच्चक्खाण समाधि के लिए है, मात्र बाह्य पच्चक्खाण ही रह जाए और अंतर समाधि टूट जाए, इसका क्या अर्थ है? प्रवृत्ति, क्लेश हीन तथा सुंदर हों, ऐसी होनी चाहिए,तो ही विकास सभंव है। हमारे प्रत्येक काम में चिंतन होना चाहिए, चिंतन बिना हमारा जीवन श्रेष्ठ नहीं बन सकता। दीर्घदृष्टि रखने वाला इस लोक तथा परलोक दोनों को सुंदर बनाता है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वस्तु के हार्द के दर्शन धार्मिक व्यक्ति का कोई भी कदम जल्दबाजी का नहीं होता, उसके कार्य में छिछेरापन तथा आवेग का भी अभाव होता है। कहीं, कभी आवेग आ भी जाता है तो धार्मिक व्यक्ति विवेक से काम लेता है। दीर्घचिंतन रहित तथा आवेग में किए हुए कार्य का परिणाम, अधिकतर अच्छा नहीं आता। मानव मात्र को सब सुंदर ही अच्छा लगता है, घर भी व्यवस्थित, स्वच्छ हों तो ही मन प्रसन्न रहता है। मैली, कुचैली तथा बेढंग की कोई भी वस्तु भला किसे पसंद आती है? बोलने में भी शब्दों की रचना व्यवस्थित हों तो सामने वाले का हृदय परिवर्तन हो सकता है। “A thing of beauty is a joy forever" दुनिया में सुंदर वस्तु तथा सुंदर वाणी सबको पसंद है, आनंददायक है। जो हमें प्रिय है, वही दूसरों को भी प्रिय है, जो हमें अच्छा नहीं लगता वह किसी को भी अच्छा नहीं लगता। संस्कारी, सभ्य व्यक्ति सबको अच्छा लगता हैं, हम यही चाहते हैं । कि सारा जगत अच्छा बने, परंतु पहले हमें अच्छा बनना चाहिए, तभी हमें अच्छे की प्राप्ति हो सकेगी। लोग तो चाहते है, साधु सद्गुणी होने चाहिए, वो महेनत करें और उन्हें बिना श्रम किए ही सब प्राप्त हो जाए। यह तो ऐसी बात हुई कि कोई १३९ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अपने लिए जाप करे, और फल हमें मिल जाए। ऐसा तो कैसे हो सकता है ? आज ब्राह्मण जाप करते हैं और शेठ लोगों से पैसे ले लेते है, धर्म में भी धोखा घडी प्रवेश कर गई है। “As you sow, so shall you reap” जैसा बोओ वैसा काटो, कुछ करोगे ही नहीं तो पाओगे कैसे ? लोभ, आसक्ति के त्याग बिना सद्गुण यूं ही प्राप्त नहीं हो जाते, कोई भी वस्तु ऐसे ही नहीं मिल जाती। फिर भगवान क्या मुफ्त में ही माल दे देंगे ? आत्मिक विकास के लिए, सद्गुण प्राप्ति के लिए त्याग और तप अनिवार्य है । मानव अपने जीवन में प्राप्त किया हुआ सब कुछ खर्च कर डालें तो कोई मना नहीं करेगा। परंतु हमारा कल बिगड न जाए, यह देखना है । जीवन के अंत में जहाँ जाना है, उसके लिए कोई तैयारी नहीं । जो मिला है वह केवल भोग के लिए ही नहीं, त्याग के लिए भी है। जिसे परलोक का भय नहीं, सुंदर परिणाम का विचार नहीं, वह धर्म, समाज और स्वयं का नुकसान करता है। विचारक, सत्यवादी, अपरिग्रही होता है । कम परिग्रही व्यक्ति कभी समाज का खून नहीं चूसता, वह समझता है कि आखिर इस देह को तो अग्नि में जलना ही है, अत: इसके पोषण के साथ इससे जितना हो सके, अच्छा काम निकलवा लेता है। जो जाग्रत है, वह आत्मा को मलिन नहीं होने देता । भौतिक जगत में तो कहते हैं, “आ लोक मीठा, तो परलोक कोणे दीठा ।" जितना हो सके भोग लो प्राप्त कर लो, इस तरह हमने देखा कि, भोगी को राग होता है, विचारक को त्याग होता है। काल का विचार सब करते है, और करना भी चाहिए । विद्यार्थी कल का पाठ तैयार करता है। कुमारावस्था में जवानी का और जवानी में बुढापे का विचार व्यक्ति करता है, वैसे ही दीर्घ दृष्टि वाले इन्सान को अगले जन्म का विचार भी अवश्य करना चाहिए । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ राजगृही के धन्ना शेठ के चार बेटे हैं, जब वह वृद्ध हुआ तो उसे विचार आया “करोडों के सुख साधन छोडकर अंत में तो जाना है। पुरूष तो बाह्य प्रवृत्तियों में मग्न रहता है, परंतु स्त्री यानि घर, घर में स्त्री अच्छी तो कुटुम्ब अच्छा, इसीलिए कहा है कि, “गृहिणी गृहमुच्यते'' गृहिणी संस्कारी, पवित्र व्यवस्थित, सौम्य हों तो घर को स्वर्ग बना सकती है। शेठ ने सोचा पुत्रवधुएं अच्छी होंगी तो पुत्र भी व्यवस्थित, अच्छे बन जाएंगे। शेठ ने परीक्षा लेने का विचार किया, चारों बहुओं को कहा, “अब हम वृद्ध हो गये हैं, इसलिए यात्रा करने जा रहे है, लो डांगर (चावल) के पाँच पाँच दाने, इन्हें संभाल कर रखना, यही जीवन की पूंजी है।'' पहली बहु को लगा, “साठे बुद्धि नाठी' लगती है, साठ साल की उम्र में बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, यह सोचकर उन पाँच दानों को कचरे में फेंक दिया। दूसरी ने वृद्धों का प्रसाद समझकर मुँह में रखे, पाँच दाने। तीसरी ने सोचा ससुर है तो अनुभवी, संभल कर रखने को कहा है, तो इसके पीछे कोई राज होगा, इसलिए एक डिब्बी में दाने रखकर, तिजोरी में रख ली। चौथी बड़ी बुद्धिमान थी, उसने अपने भाई को पाँच दाने दे दिए और कहा, "इन्हें अच्छी, उपजाऊ जमीन में बो देना।" भाई ने ऐसा ही किया, फसल में ५०० दाने आए, दूसरे वर्ष पचास हजार दाने आए और तीसरे वर्ष तो पूरा कोठार भर गया। यात्रा से लौटने पर ससुरने दाने वापस मांगे, पहली ने कहा, "मैंने तो फेंक दिए, उसको रखने में क्या फायदा था? चाहिए तो नये ला दूं।" ससुरने कहा, “तुम्हारा नाम उज्जिका, अब से तुम्हें घर का कचरा निकालना है, घर को साफ रखना है, यह तुम्हारा काम है।" दूसरी ने कहा, "मैंने तो दाने खा लिए।'' उसको भक्षिका नाम दिया गया और रसोईघर सम्हालने को कहा। तीसरी ने कहा, "मैंने तीजौरी में सम्हाल कर रखे हैं।" वापस लाकर दिए। ससुरने कहा, "तुमने इनकी सुरक्षा की है, तुम्हारा नाम रक्षिका। घर की तिजौरी की चाबियां तुम्हे रखनी हैं, घर के सारे जेवर, जवाहरात तुम्हें सम्हालने हैं।'' चौथी ने कहा, “मैंने तो मेरे पीहर भेजे है, ऐसे नहीं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आएंगे, बैल-गाडियों में भरकर मंगाने होगे।" वृद्धने प्रसन्न होकर कहा, "तुमने वृद्धि की है, तुम्हारा नाम रोहिणी है। कुटुम्ब का सारा संचालन तुम्हें करना होगा।" इस तरह सबके गुणों के अनुसार, व्यवस्था कर दी गई। शेठ ने देखा कि चौथी बहु ने दीर्घदृष्टि का उपयोग करके कैसा सुंदर परिणाम दिखाया है? काम तो सब करते हैं, परंतु विचार करके काम करने से परिणाम अच्छा आता है। डॉक्टर भी इतना विवेक तो रखता ही है कि, बडों और बच्चों के इंजेक्शन की सुई अलग अलग रखता है। शेठ की चार बहुएँ अज्जिका, भक्षिका, रक्षिका तथा रोहिणी, सबकी विशिष्टता जीवन में दिखाई देती थी, परंतु रोहिणी की प्रज्ञा की तीव्रता कुछ अलग ही थी, उसने अपने कार्य से कुल का गौरव भी बढाया। इसी तरह जीवन में थोडा भी मिले तो उसको विकसित करके, सबका हित हों, इस तरह उपयोग करना चाहिए। ऐसा करने से सबका भला ही होता है। अपने जीवन में पाँच व्रतों के विकास और वृद्धि के लिए दीर्घ दृष्टि रखना धर्मीजीवन में अत्यावश्यक है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंद्रहवां सद्गुण हमने देखा “दीर्घदर्शिता " ऐसी दृष्टि से तत्क्षण लाभ नहीं, परंतु भविष्य में लाभ होता है । दीर्घदृष्टि व्यक्ति तुच्छ लाभ की खातिर कल के उज्जवल प्रभात को नहीं बिगाड़ता । यदि थोड़ा बहुत सहन करने का वक्त आए तो सहन भी कर लेता है । ३९ अब सोलहवाँ सद्गुण है विशेषज्ञ “विशेषज्ञ मनुष्य ।" एसे व्यक्ति के सामने जो वस्तु आती है, उसके गुण, दोष पहचान सकता है। विशेषज्ञ कभी समग्र व्यक्ति का विरोध नहीं करता, वह सोचता है कि एक, दो दुर्गुणों के साथ, दूसरे अन्य सद्गुण भी होंगे। जैसे सुनार सोने की शुद्धता देखता है, वैसे ही वह सामने वाले की विशिष्टता स्वीकार करता है । वह व्यक्ति का नहीं उसके दुर्गुणों का विरोध करता है, उसके गुण दोषों की समीक्षा करता है । जो व्यक्ति के एक आध दुर्गुण को देखकर, उस व्यक्ति का ही विरोध करता है, वह जीवन में कभी उत्कर्ष नहीं साध सकता। आज किसी एक बात पर मतभेद होने पर भी संस्थाऐं, संप्रदाय आदि बटने लगे हैं, अन्य निन्नानवे बातों में यदि एक-मत हों तो इतनी बातों मे तो साथ मिलकर काम करना चाहिए । से विशेषज्ञ हंस के पास पानी मिश्रति दूध रखने से वह अपनी विशिष्ट शक्ति पी लेता है, पानी छोड़ देता है। हमें भी हंस जैसी विशिष्ट विवेक दृष्टि रखकर जहाँ से जो अच्छा मिले, ग्रहण कर लेना चाहिए, यदि हम अच्छा दूध १४३ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ग्रहण करने की दृष्टि नहीं रखेंगे तो जगत में से कितना कुछ अच्छा चला जाएगा। अच्छा लेना चाहिए और यदि समझ न आए तो जिन्होंने समझा है, उनका अनुसरण नम्रतापूर्वक करना चाहिए । हरिभद्र भट्ट यानि मेवाड के समर्थ विद्वान, उन्होंने एक नियम रखा कि अच्छा जहां से मिले ग्रहण करना, और यदि समझ में न आए तो पूछना, और यदि वो उनकी शंका का समाधान कर दें तो उन्हें गुरू मानकर, उनके शिष्य बन जाना। एक बार उनके कानों में आवाज आई " चक्री दो चक्री " ऐसी कुछ गाथा रट रही थी, एक साध्वीजी । उन्हें अर्थ समझ नहीं आया, तो उनके पास जाकर विनम्रता से पूछा शिष्य बनकर । आज तो कई लोगों को कुछ नहीं आता, तब भी जानने का दंभ करते हैं, और गुरू बनकर सीखने बैठ जाते हैं। ऐसे लोगों को विद्या नहीं आती, और आ भी जाए तो वो काम नहीं आती। विनय से प्राप्त विद्या ही संजीवनी बन सकती है। दुनिया की सभी वस्तुऐं मारक बन सकती हैं, केवल विद्या ही तारक बन सकती है, विद्या ही इन्सान को सद्गति दिला सकती है, विद्यारूपी नौका से तो हम भवसागर तैर सकते हैं। विद्या प्राप्ति के लिए शिष्य बनना जरूरी है, अपने में विनय तथा नम्रता होने चाहिए । दत्तात्रेय ने ज्ञान की खातिर एक कुत्ते को गुरू माना था, उनके चौबीस गुरूओं में एक कुत्ता था, जिससे उन्होंने वफादारी का गुण सीखा। दूसरा गुरू हंस था, जिससे विवेक सीखा, बगुला तीसरा गुरू, जिससे ध्यान की एकाग्रता सीखी। लक्ष्य प्राप्ति के लिए सावधानी का गुण कौओ से सीखे, इन्होंने सृष्टि के कईं प्राणियों को गुरू बनाया और उनके पास से कुछ न कुछ सीखा । हम तो ज्ञानी को भी गुरू नहीं बना सकते, तो क्या सीखेंगे ? आज तो हम निर्गुणी बन रहे हैं। आज गुरू जैसा तत्त्व ही कहाँ रहा है ? जो व्यक्ति स्वयं को पंडित मानता है, वह दूसरों के पास से क्या सीख सकता है ? आत्मा के उत्कर्ष के लिए तो बालक जैसा निर्दोष बन जाना चाहिए । हरिभद्र बालक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ जैसे बनकर साध्वीजी के पास गये, उन्होंने इस विद्वान को अपने गुरू के पास भेजा । गुरू भी षड्दर्शन के ज्ञाता थे, उन्होंने हरिभद्र भट्ट को प्रतिबोध किया, जीवन का रहस्य बताया, वो झुक पड़े और दीक्षा अंगीकार की । फिर तो महान शासन प्रभावक आचार्य हरिभद्रसूरि के नाम से ख्याति प्राप्त कि, परंतु उन साध्वीजी के उपकार को नहीं भूले, क्यों कि वो उनके जीवन के मार्गदर्शक बने थे। इसीलिए उन्होंने जितने भी ग्रंथो की रचना की उसमें अंत में 'याकिनिसुत' यानि याकिनि के पुत्र के रूप में स्वयं की पहचान दी है। ऐसे समर्थ आचार्य भी साध्वी को गुरु मानते हैं। एक बार उनसे किसीने पूछा, “तुम कपिल के भक्त थे, महावीर के भक्त कैसे बने?” उन्होंने जवाब दिया, “मुझे महावीर का पक्षपात नहीं, कपिल पर द्वेष नहीं, जिनका वचन मुक्तिपूर्ण था, उसका वचन मैंने स्वीकार किया है।" आज तो व्यक्ति को जो अच्छा लगता है उस पर राग जो न अच्छे लगे उस पर द्वेष करता है। सच तो यह है कि राग रूपी खाई और द्वेष रूपी पर्वत के बीच रास्ता निकालकर, माध्यस्थ भाव अपनाना है । जिनके वचन, शास्त्र जीवन और अनुभव हमारी बुद्धि में ठहरते हों, अच्छे लगते हों उनका स्वीकार करना चाहिए। हर बात भली भांति सोच समझकर जीवन में उतारनी चाहिए। पूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण वगैरह सबके सच्चे मूल्य, अर्थ, भाव समझकर यदि बोलें जाएं तो फिर नींद के झोंके नहीं आएंगे। भगवान की वाणी आगम अत्यंत सरल, सुंदर हैं, परंतु हम उन्हें समझने का प्रयत्न ही नहीं करते। जीवन का परम सत्य, सरल है, इसीलिए कहा है कि “जो मुझे समझ में आता है, उसे मैं स्वीकार करता हूं।" जिसे विशेषज्ञ बनना है उसे पक्षपात की भावना से रहित होकर वस्तु के गुणधर्म को जानना चाहिए, ऐसा व्यक्ति ही धार्मिक बनने के योग्य है । विशेषज्ञता जब आती है, तब व्यक्ति को मताग्रह, दुराग्रह, पक्षपात वगैराह नहीं रहते । गुण का अंगीकार यानि जीवन में उल्लास व प्रकाश का विस्तार । विशेषज्ञता, धर्म के शिखर पर पहुंचने की सीढ़ि है, विशालता का गुण भी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ इसके साथ ही आ जाता है। अंडे में रहने वाले पक्षी के लिए दुनिया अंडे जितनी है, फिर बाहर आने पर घौसलें जितनी, तथा पंख और आँखे मिलने पर वह अनन्त आकाश में विचरता है। हमारे दिमाग के आसपास, बुद्धि तथा आँखों के पास जो मिथ्या आवरण आए हुए हैं वे जब टूटेंगे तब जगत के पदार्थों की अनंतता समझ में आएगी। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० वृन्दानुगामी जो विशेषज्ञ होता है, वही खट्टे-मीठे यानि कि खोटे खरे का भेद समझने का विवेक रखता है। इसके लिए बुद्धि को कसने की जरूरत हैं, गडरिए प्रवाह में बहने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। किसी भी बात को सुनकर उस पर प्रज्ञा से मनन, निदिध्यासन, व्याख्या करो। ऐसी बुद्धिवाला व्यक्ति दुनिया में से विशिष्ट तत्त्वों की खोज कर, अच्छी वस्तु को ग्रहण कर लेगा। कचरे में पड़ी हुई गिन्नी को हम फेंक नहीं देते, वैसे ही खराब में से भी अच्छे को ग्रहण करने की योग्यता उसमें होती है। जब प्रज्ञा, विशेषज्ञता खिलती है, तब अच्छे बुरे का विवेक स्वयं आ जाता है। गलत है तो पुरानी वस्तु, बात का भी त्याग करो, और अच्छा हों तो अर्वाचीन को भी ग्रहण करो, जो अविच्छिन्न है, उसका स्वीकार करो। वृद्धानुगामी बनना यह इसके बाद का सदगुण है, जिन्होंने मार्ग देखा है, और उस पर चले हैं, वोही राह दिखा सकते हैं। उनकी प्रेरणा, अनुभवों से हम काफी कुछ लाभ उठा सकते हैं। जो दुख सुख रूपी गड्डे, खाईयों से गुजरे हों वे ही सच्चे पथ पदर्शक बन सकते हैं। कई लोगों का कहना है कि उन्हें वृद्धों के अनुभव की जरूरत नहीं, स्वयं अनुभव करना चाहते हैं। मगर क्या जहर या अफीम का अनुभव किया जाता है? ऐसा करने से हानि की संभावना है। इसीलिए कहा गया है, । २४७ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ " महाजनो येन गतः स पन्था: " महाजन यानि जिनमें विशिष्ट तत्त्व के गुण भरे हैं, उनके बताए पथ पर चलो तो मुसीबतों से बच सकोगे। हाँ वृद्धत्व का संबंध मात्र जीर्ण-शीर्ण हो चुके शरीर से नहीं है बल्कि सूझबूझ से है । एक राजा की सभा में एक शेठ आया, राजा ने उसकी उम्र पूछी, पुत्र कितने, संपत्ति कितनी ? पूछा। शेठ ने कहा, “मेरी उम्र दस वर्ष, पुत्र कितने ? मुझे पत्ता नहीं, और संपत्ति चालीस हजार की ।" लोग उसे जानते थे अतः सुनकर हैरानी हुई, राजाने इन तीनों बातों को स्पष्ट करने को कहा। शेठ के कहने का आशय अलग था। जब से इन्द्रियों को जीतने की शुरूआत की, आत्मबुद्धि जगी, उस समय से उम्र गिनने की शुरूआत की । जब से जीवन में धर्मबीज पड़े, चिंतन, मनन, त्याग, संयम का प्रवेश हुआ तब से ही सही अर्थ में जिन्दगी की शुरूआत हुई । जीवन के जो वर्ष आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि में गये उनकी क्या गिनती ? वे व्यर्थ गये । अब ऐसा धार्मिक व्यक्ति आहार में आसक्त न बने, नींद को चिंतन से जीते, भय के समय अभय रहे, भोग को योग से जीते। परिग्रह को संतोष से पुष्ट करे, इस तरह इन पाँचो को जीता, वहां से धर्म की शुरूआत हुई । बाह्य चारित्र ही काफी नहीं, जब सम्यक्त्व आता है, अन्दर से परिवर्तन आता है। जब तक प्रदर्शन की भावना है, स्वदर्शन नहीं मिलता। ये दोनों साथ नहीं रह सकते। या तो प्रदर्शन करो या स्वदर्शन की और मुड़ो । जो अंतर दृष्टि रखने वाला है, जिसकी बुद्धि परिपक्व है, बातों में मिठास है, कटुता नहीं, जैसे पके हुए आम का स्वाद सब को मीठा लगता है, वैसे ही जिसके विचार सुनकर आनंद जगे, वही वृद्ध है। नीतिवचन में कहा भी गया है- ज्ञानेन वृद्धः स वृद्ध ! आज वृद्धों में उपरोक्त गुण बहुत कम दिखाई देते हैं। उम्र के साथ कटुता बढ़ती है। सही बात तो यह है कि जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने के बाद, उन्हें शांति के सरोवर और वात्सल्य का झरना बन जाना चाहिए, प्रसन्नता से वातावरण हल्का बनाना चाहिए । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ ___केवल तप, उपवास ही नहीं, साथ-साथ सहनशक्ति बढाकर भक्ति के साथ काया को कष्ट आए तो उसे भी सहन करना है, सहने का दूसरा नाम है तप। यह तप किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। कच्चे घडे में पानी भरने से घड़ा टूट जाएगा, पानी भी बह जाएगा, परंतु उसे अग्नि में पकाने पर वह पानी भरने योग्य बन जाएगा। वैसे ही तप रूपी ताप सहन करके आत्मा में सहनशीलता की योग्यता बढ़ानी चाहिए, जिससे अमृत भरा जा सके। ऐसी योग्यता के लिए तप की खास जरूरत है, ताकि कडवे धूंट भी पी सके। छः बाह्य छः अभ्यंतर तप से व्यक्ति जब गुजरता है, उसमें पूर्णता आती है। अभ्यंतर तप- प्रायश्चित, विनय, वैय्यावच्च, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग तथा बाह्य तप-अनशन, उणोदरी, वृतिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता से तप स्वाभाविक बनते हैं। व्यक्ति इस प्रकार तप की उपासना द्वारा तपोवृद्ध, ज्ञान की उपासना से ज्ञानवृद्ध तथा चारित्र की उपासना द्वारा चारित्र्य वृद्ध बनता है। जनक राजा एक बार स्वप्न में देखता है कि वह हार गया है, भिखारी बन गया है। अनाज मांगकर पेट भरता है, थोडा शाम के लिए रख छोडता है। वहां लड़ते-लडते दो व्यक्ति आते है, अनाज धूल में मिल जाता है, अब उसे शाम को खाने की चिंता होती है। तभी निंद खुलती है, देखता है कि राज महल में पलंग पर सोया है, और नोकर हाँ जी, हाँ जी कर रहे हैं। दूसरे दिन राजसभा में विद्वानो से पूछते है कि, “एतत् सत्यं वा तत् सत्यम्?'' यह सच है कि वह सच है ? किसीने जवाब नहीं दिया, उन सबको कैद किया। उसी समय वहाँ महान, विद्वान अष्टावक्र सभा में आते हैं, उनके आठों अंग टेढे है, यह देखकर पूरी सभा हँस पडती है, उन सब को देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे। यह देखकर राजाने पूछा, “हम सब तो तुम्हारे टेढे मेढे अंगो को देखकर हसे, परंतु आप क्यों हँसे'' उन्होंने जवाब दिया, “यहां सब चमार इकडे हुए है, और आप चमारों के राजा हो, परंतु जनक विदेही के नाम से जाने जाते हो, यह जानकर मुझे हंसी आई।" Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राजा ने कहा, “आप हमें चमार कहने वाले कौन होते हो?" उन्होंने कहा, मैंने आपको चमार इसलिए कहा क्यों कि सबने मेरी चमड़ी देखी, और हंसने लगे अंदर बसी हुई ज्ञान ज्योत, दिव्य आत्मा को देखने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया। चमड़ा कौन देखता है? चमार न। आज हम भी लोगों के बाह्य रूपरंग देखते हैं, परंतु यदि भीतर बसी हुई आत्मा को पहचानने का प्रयत्न नहीं करेंगे, तो आत्मज्ञान कहाँ से प्रगट होगा? एक छोटी सी चींटी को देखकर हमें ऐसी संवेदना जगती है ? कि उसे भी सुख प्रिय है, मीठा भाता है, शांति की छाया अच्छी लगती है, उसके भीतर भी हमारे जैसी ही आत्मा का निवास है। सभी प्राणियों के प्रति समभाव जाग्रत होता है। अत: बाह्य आकार को न देखकर भीतर की सुंदरता के दर्शन करना सीखना चाहिए। चलिए, हम नरनारी के रूप के पीछे बसी आत्मा के दर्शन करें "नर नारी ना रूपमां हाड, चाम ने मांस, शुं ऐने ज सुंदर कहो, जेमां दुर्गंध खास।" एक्सरे में जैसे शरीर के अन्दर के अंगो का प्रतिबिम्ब पडता है, वैसे ही हमें भी देह के पीछे बसी आत्मा के दर्शन करने हैं। - जनक राजा समझ गये कि इसके अंगोपांग टेढे मेढे हैं उम्र छोटी है, परंतु ज्ञान में वयोवृद्ध है। जनक ने वह प्रश्न पूछा “एतत् सत्यम् वा तत् सत्यम्" दोनों में से सच क्या है ? ऐसे प्रश्नों का उत्तर संस्कृत, प्राकृत या शास्त्र पठन से नहीं मिल सकता। यह तो जिसके अंतरद्वार खुल जाते हैं, आंतरिक खजाना प्राप्त होता है वही दे सकता है। शास्त्रों को बराबर समझे, शास्त्र तो वो सीढ़ि है जो आचरण से उपर चढाए, और अहं से नीचे गिराए। दोनों ही सम्भव है। उपर चढ़ने का काम अनुभव और अभ्यास की साधना से स्वयं करना है। अष्टावक्र ज्ञानवृद्ध थे, प्रश्न का जवाब दिया, “तदापि असत्यम् एतदपि असत्यम्।" यह भी असत्य है स्वप्न भी असत्य है। आँख बंध हों तो वह Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ गलत तथा आँख खुली हों तो यह गलत, दोनों स्वप्न जैसे ही सार हीन है । हमने इस ज्ञान को समझा नहीं, सब वस्तुओं में लिप्त होकर जी रहे हैं, स्वप्न में भी प्रिय वस्तु का वियोग होने पर, हम रोने लगते हैं । ज्ञानदशा से समझें तो जीवन भी एक स्वप्न ही है । जगने पर जैसे स्वप्न असत्य लगता है, वैसे ही आत्मजागृति आने पर संसार भी स्वप्नवत् असार लगने लगता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव की कसौटी वृद्धो को अनुसरण करने से हम कई विपत्तियों में से बच सकते हैं। वृद्ध यानि ज्ञान में वृद्ध । इसीलिए बर्नार्ड शॉ ने कहा कि यदि वर्षों के साथ ज्ञान का संबंध होता तो, लंदन के पत्थरों को अधिक ज्ञानी गिनना चाहिए। ४१ शास्त्रो में चार प्रकार के वृद्ध बताए हैं। ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध, चारित्रवृद्ध, वयोवृद्ध । तप त्याग द्वारा सुंदर जीवन जिए वो तपोवृद्ध, उसका पूरे समाज पर प्रभाव पडता है, उनके आने पर सब उन्हें आदर-सत्कार देते हैं, शांति वातावरण फेलता है। का चारित्र्य वृद्धि यानि आराधना, निष्कलंक जीवन, सेवाभावी, दुसरों के दुःख देखकर संवेदना के आंसू आँखो में आए, दूसरों के पाप देखकर व्यथा अनुभव करे, ऐसा व्यक्ति पुण्यरूपी चारित्र्य से देदिप्यमान होता है । वयोवृद्ध यानि जीवन फल की परिपक्वता से जिनका जीवन मधुर बना हों, ऐसे लोगों के नेतृत्व से समाज सुखी बनता है । केवल सफेद बाल वाला ही वृद्ध नहीं कहलाता बल्कि जो तपोवृद्ध और श्रुतवृद्ध हो, जिन्होंने खूब श्रवण किया है, बहुश्रुत Well read पुस्तक पंडित और बहुश्रुत में अंतर है। पुस्तक पंडित ने 'बहुत पढा होता है, बहुश्रुत ने बहुत सुना होता है । पढनेवाला कुर्सी पर बैठकर बहुत पढ़ सकता है, परंतु बहुश्रुत को सुनने के लिए त्याग करना पडता है। शिष्यभाव से उपासना १५२ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ करनी पड़ती है। आज पोथी पंडित बहुत मिलेंगे उनके पास, मात्र थोथे शब्दों का संचय होता है, श्रवण साधना की पूंजी नहीं। __ श्रवण द्वारा श्रुत आता है, आगम श्रुत हैं। ये लिखे नहीं गये थे, भगवान महावीर के पास से गौतम, सुधर्मा स्वामि, सुधर्मा स्वामि से जंबूस्वामिने श्रुतज्ञान श्रवण द्वारा धारण किया था। यह श्रुतज्ञान उपासना, संयम, त्याग और तप द्वारा आता है, जिसमें यह ज्ञान उत्पन्न हो जाए उसका जीवन परिवर्तन हो जाता है, ऐसा होने पर जीवन में त्याग का सूर्य उदय होता है और अज्ञानरूपी अमावस्या का अंधकार विलीन हो जाता है। ___ श्रवणसाधक गुरु के पास सुनने आते हैं, गुरु को शीश नमाते हैं, इससे अहंकार कम होता है। श्री हरिभद्रसुरिजी ने फरमाया कि साधु सेवा से तीन फायदे होते हैं। संतो के हृदय से निकले हुए उपदेश श्रवण का लाभ, धर्म आचरण करने वाले व्यक्ति के दर्शन तथा विनय बताने के लिए उत्तम स्थान की प्राप्ति। जो मुक्त होते हैं, वे ही मुक्ति में सहायक बन सकते हैं, वे ही राग में से बाहर निकालते हैं और मानवता रूपी स्वर्ण प्रगट करते हैं। आज अखबार वाले तथा पैसे के लिए कथा पढने वाले लोग भी धर्म की बातें करते हैं, परंतु यह तो जैसे हजामत करनेवाला जवाहरात की बात करे, ऐसी बात लगती है। अनाधिकार की बातें शोभा नहीं देती, इसके लिए अधिकार चाहिए, योग्यता और पात्रता चाहिए। सिर तो मंदिर, गुरु तथा बुजुर्गों के सामने झुकना चाहिए, विनयपूर्वक झुकना आएगा तो बाद में आने वाली पीढ़ी भी ऐसा करेगी। ___भक्ति और विनय पूर्वक श्रुत यानि श्रवण। सर्दियों में अग्नि के बारे में लिखा हुआ काव्य पढ़ो तो सर्दी दूर नहीं होगी, परंतु अग्नि के पास जाकर बैठने से उष्मा आएगी। मात्र पोथी पठन तो अग्नि के बारे में लिखे हुए काव्य की तरह है, परंतु जिनके पास चारित्र्य है, उनके पास जाओ तो प्यार, ज्ञान रूपी उष्मा प्राप्त होगी। मन पर एक अमिट छाप छोडेगी, इसीलिए पुस्तकों से अधिक संतो का संपर्क- श्रवण वांछनिय है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पुराने समय में गुरुकुल हुआ करते थे, गुरुचरणों में बैठकर, शिष्य ज्ञान प्राप्त करते, जिससे जीवन में पूर्णता, परिपक्वता आती थी। गुरु परीक्षा लेते, कि शिष्य में ज्ञान कितना उतरा है? यह रीति थी, ज्ञानवृद्ध गुरुओं से जीवन का ज्ञान प्राप्त करने की। ऐसे ज्ञानवृद्ध यम, नियम के साधक होते हैं। आँख, नाक, कान सबका स्वभाव विषयों के प्रति लालायित होने का है, परंतु वे इन्द्रियों पर संयम रखते हैं। यह सब जीवन में आता है, तब से उम्र की गिनती गिनी जाती है। उस शेठ के जीवन में पिछले दस वर्षों से ही तप, श्रुत, एकाग्रता, विवेक, ज्ञान, चारित्र्य आदि गुण आंशिक रूप से प्रगट हुए थे। - राजा का दूसरा प्रश्न था, "कितनी पूंजी है?" शेठ लखपति थे, परंतु उन्होंने चालीस हजार की कहा, क्यों कि उतना पैसा ही सद्कार्यो में खर्च किया था। इकट्ठा करके छोड़ जाने वाले तो असंख्य लोग होते हैं परंतु अपने हाथों, प्रेम से सत्कार्यो में व्यय करने वाले विरले ही होते हैं। जो करो भावपूर्वक करो, फूल पूजा हृदय का भाव है, उसके ढेर लगाने की जरूरत नहीं। एक फूल चढाओ परंतु भाव से, अर्पणता के आह्लाद से तो काफी है। पाँच कोडी के ही फूल थे, किन्तु भगवान को चढ़ाते हुए कुमारपाल की आँखो से हर्ष के आंसू आए थे। व्यय किया हुआ, खरा पैसा वही है, जिसके व्यय के बाद आनंद आए। बीज अच्छा होगा तो फसल अच्छी होगी। जब भी दो प्रसन्नतापूर्वक दो। आज तक हमने चींटी की भांति, बिल में इकट्ठा ही किया है, और पाप करके दुर्गति को पहुंचे हैं। हम जानते हैं कि इकट्ठा किया हुआ यहीं रह जाएगा फिर भी क्या हमें अब भी चींटी जैसा जीवन ही जीना है? राजाने शेठ से तीसरा प्रश्न पूछा था, “बेटे कितने?" माँ बाप को अंतिम समय जो शांति दे, सेवा करे, कान में भगवान का नाम सुनाए, शांति से विदा करे, वही सच्चे पुत्र कहलाने योग्य हैं। श्वान भी अन्न, दूध के लिए मालिक के पीछे घूमता है, इसी प्रकार Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ धन के लिए पिता के पीछे घूमने वाले मतलबी पुत्रों की कमी नहीं है, दुनिया में। सच्चा पुत्र तो वही है, जो माँ-बाप के पास कुछ भी न हों तो भी यह समझे कि उनके उस पर अनन्त उपकार हैं। माँ-बाप की अंतिम इच्छाऐं पूरी करे, समाधि मरण में निमित्त बने । हमने देखा कि जिनमें ये छ: विशेषण हों, वे ही वृद्ध समझे जाते हैं। ऐसे वृद्ध जो पापाचार की प्रवृत्ति न करे, जीवन का श्रेष्ठ अनुभव हों, ज्ञान, तप से भरा जीवन हों, ऐसे वृद्ध समाज के नेता हों तो समाज का कल्याण हो सकता है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सब धर्मों का मूल दया है, तो सब गुणों का मूल विनय है । विनय है तो दूसरे गुण स्वत: आएंगे, विनम्रता विहीन, किए, कराए सभी कार्यों पर पानी फिर जाता है । इसीलिए हम बच्चों को सबसे पहले विनय सीखाते हैं। विनय यानि सीधा पात्र, अविनय यानि उल्टा पात्र, सीधे पात्र में ही वस्तु ग्रहण की जा सकती है, उल्टे में नहीं । जिनमें गुरूजनों गुणीजनों के प्रति पूज्यभाव नहीं वो उनके पास से क्या सीख सकते हैं ? विनय जो विनयशील हैं, वह सहर्ष स्वीकार करेगा कुछ दो तो, जब कि अविनयी ग्रहण किया हुआ भी नीचे गिरा देगा, यानि ग्रहण नहीं करेगा । रेत में घी, गुड डालकर लड्डु नहीं बनाए जा सकते, लड्डु तो आटे में घी, गुड डालकर ही बनते हैं। अविनय हों तो रेत, गुड के लड्डु जैसी हालत होती है । अपनी वाणी और क्रिया में विनय अत्यावश्यक है, यदि हमारे में यह गुण होगा तो हमारे बालक भी सीखेंगे । एक औरत अपनी सास को मिट्टी के टूटे हुए बर्तन में खाना देती थी । उसके बेटे की शादी हुई, बहु आई, उसने देखा कि सास क्या करती है ? उसने उन बर्तनों को रोज साफ करके इकट्ठा करना शुरू किया, उपर कोठे में उन टूटे हुए बर्तनों का ढेर लगा था। सासने बहु से पूछा, " अपने घर में इतने सुंदर बर्तन हैं इन टूटे-फूटे मिट्टी के बर्तनों का ढेर क्यों लगाया है ?" १५६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ बहु का जवाब उचित था, उसने कहा, “ माताजी आप अपनी सास को इसमें खाना खिलाती है, जब आप बूढ़ी, बिमार होंगी तब मैं आपको इन में खाना दूंगी, ताकि मुझे नये मिट्टी के बर्तन खरीदने न पडे । " सास समझ गई । हम यदि दूसरों को मान, सन्मान, विनय नहीं देते तो हमें भी अपेक्षा रखने का क्या अधिकार है ? आज हमारे बच्चों के लालन-पालन तथा उन्हें संस्कारवान बनाने में कुछ कमियां रह गई हैं, हम ऐसा तो सोचते हैं । परंतु क्या कमियां रह गई हैं, उसे नहीं खोजते। सही बात यह है कि, विद्यार्थियों को जब विनय सिखाया ही नहीं, तो आज गुरू के प्रति उनके हृदय में आदरभाव कहाँ से आएगा ? जहाँ माँ - बाप ही गुरू के लिए मास्टर आदि छिछोरे शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो फिर पुत्र में विनयशीलता कहाँ से आएगी ? एक समय ऐसा था, जब माँ-बाप घर से ही बालकों को बड़ों का आदर सम्मान करना आदि विनय के गुण सिखाते थे, माता, पिता, गुरु, अतिथि को देव समान गिनना सिखाते थे, क्यों कि उस समय ऐसे ही समझा जाता था, तो आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही मान सन्मान देती थी। और आज ? ज्ञानी गुरुओं के पास से विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ एक शब्द भी जीवन में उतरता था तो गुणरूपी वृक्ष खिल उठता था । दुनिया में सर्व गुणों का मूल विनय ही है, विनय गुण जितना आत्मसात करेंगे ग्रहण की हुयी विद्या में एक नया रंग भरता जाएगा। सफेद कपड़े पर जैसे कोई भी रंग जल्दी ही चढ़ जाता है वैसे ही विनयशील व्यक्ति के मन पर विद्या का रंग जल्दी चढ सकता है। फूलशाल नामक एक छोटा लडका था, पिता से उसने तीन बातें सीखी थी | सन्मान देना, विनय रखना और बडों के वचनों का पालन करना । इन तीनों बातों का पालन वह आजीवन करेगा, ऐसा उसने तय किया । एक बार वह सरपंच के पास, पिता के साथ गया, पिताने उनको नमन किया। फूलशाल को लगा कि उसके पिता जिसे नमन कर रहे है, वे कोई महान व्यक्ति होने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ चाहिए, उसने भी नमन किया। उनके पास रहने की इच्छा दर्शाई, कि उसे वेतन नहीं चाहिए. सिर्फ अपने पास रखे। सिर्फ सेवा करने दें। सरपंच खुश हो गया, लडके को अपने पास रखा, उनके पास वह उन तीन वचनों का पालन करते हुए रहने लगा। एक बार सरपंच राज्य के महामंत्री के पास कर की रकम भरने गया तो फूलशाल भी साथ गया। सरपंच ने मंत्री को नमन किया, फूलशाल को लगा कि सरपंच से तो मंत्री महान लगते हैं। उसने सोचा इनकी सेवा मांगू। उसने जाकर कहा, “मंत्रीजी, मुझे आपके पास रहकर आज्ञांकित, नम्र एवं सेवाभावी बनना है, मुझे आपके पास रखिए, सेवा का मौका दिजिए।" व्यक्ति के रूप रंग से अधिक उसका काम प्यारा लगता है, केवल सुंदर होने से कोई सन्मान नहीं देता, अपने कर्मों से व्यक्ति मान-सन्मान पाता है। जो लोकप्रिय बने हैं, वे देश, गाँव, दूसरों के लिए कुछ सत्कार्य कर गये है, इसीलिए लोगों के हृदय में उनके लिए स्थान है। चंदन की सुगंध उसके घिसने पर ही फैलती है, वैसे ही जो दूसरों की सेवा में स्वयं तत्पर रहता है, उस की ही सुगंध समाज में फैलती है। ___लडका अपने सेवा कार्य से, विनय से मंत्री को भी प्यारा लगने लगा। मंत्री राजा के पास गये, वो भी साथ गया, उसके जीवन में एक ही धुन लगी थी कि उन तीनों बातों को जीवन में उतारना है। मंत्रीने राजा को नमन किया, फूलशालने समझा मंत्री ने राजा को नमन किया है, तो इसका मतलब है, राजा मंत्री से महान है, मुझे अब राजा की सेवा करनी चाहिए। __इन्सान यदि फूलशाल की तरह एक ही बात को पकडकर रखे तो देखिए, वह कहाँ तक पहुंच सकता है? वटवृक्ष के एक छोटे से बीज से अत्याधिक विशाल वृक्ष बन सकता है जो हजारों लोगों को शांति, छांव देता है। अपने जीवन में भी गुणरूपी बीज को भूमि, पानी, हवा अच्छे मिल जाएं तो खूब फलता-फूलता है, पूरा जीवन गुणों से सुवासित बन जाता है। इसलिए हमें भी व्यर्थ की बातों को छोड़कर किसी एक सद्गुण को अपना लेना चाहिए। आज लोगों को कई बातों का आंशिक ज्ञान होता है Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ “Jack of all and master of none.” इसका कुछ अर्थ नहीं, एक विषय में भी पूर्णता हांसिल करना, विशेष महत्त्व रखता है। जब हम एक ही सद्गुण को आत्मसात करने का प्रयत्न करेंगे, तब वह हमारे साथ एकाकार हो जाएगा। अभयकुमार की बुद्धि, बाहुबलि का बल, कैवल्या का सौभाग्य, आज ढाई हजार वर्ष बीत जाने के बाद भी लोग चौपड़ों में याद करके लिखते हैं। इसका कारण है वे उन, उन गुणों में पूर्ण थे। सद्गुण हमारे जीवन में कैसे व्यापक बनें? इसके लिए प्रयत्न करना है। हर वर्ष यदि एक गुण भी अपनाएं तो २५-३० वर्षों में कितने सद्गुण जीवन में आ जाएंगे? पर हमारे जन्मदिन पर हम ऐसा कोई विचार करते हैं क्या? हमारे जीवन की शक्तियां बिखर कर समाप्त न हो जाएं, उसके लिए हमें सावधान होकर उन शक्तियों का संचय करके, उनका सदुपयोग करना है। बडो की सेवा, सम्मान तथा उनके हितकारी वचनों का पालन, इन तीन बातों पर अमल करता हुआ फूलशाल राजा श्रेणिक के पास पहुंच गया। कैसा आज्ञांकित ? कैसा सन्मान देने वाला? कैसा वचन पालन करने वाला? उसके विचार, वाणी, व्यवहार में जैसे विनयभाव ही झलकता है। श्रेणिक का तो ऐसा प्रिय पात्र बन गया, कि अब उसको फूलशाल के बिना मानों चैन ही नहीं पड़ता। कहा गया है कि "कोयल किसको देत है, कौआ किसका लेत? एक वचन के कारण, जग अपना कर लेत।" कौआ किसी का कुछ लेता नहीं, कोयल किसी को कुछ देती नहीं, फिर भी कोयल के मधुर कंठ के कारण दुनिया उसे पसंद करती है। हम विनय तथा व्यवहार से जगत को प्रेमबंधन में बांध सकते हैं। एक बार श्रेणिक भगवान महावीर को नंदन कसो गये, उनके चरणों में गिर पडे। श्रेणिक महाराज से भी ये भगवान महान दिखते हैं,वह तो दौड गया भगवान के पास, और ढाल व तलवार उनके पास रख दिए, और बोला, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० "मेरा निर्णय है, मेरा यह संकल्प है कि आपकी सेवा करूं, मुझे स्वीकार कीजिए, मैं यह ढाल, तलवार लेकर आपका रक्षक बनकर खडा रहूंगा।" भगवान ने कहा, “तलवार और ढाल क्या रक्षा करेंगे? सच्ची रक्षा तो दया और अहिंसा करेंगे।' फूलशाल में विनय के साथ सन्मान भाव भी था, विनय बाह्य भाव है, सन्मान अंतर का भाव है। आज्ञा पालन आगे बढ़ने का, भव सागर तिरने का मार्ग है। विनयके साथ सन्मान भाव आवश्यक है, इनके साथ ही आज्ञापालन का गुण, ये तीनों जरूरी हैं। ऐसा विनयवंत आत्मा ही गुणवान आत्मा को देखकर नाच उठती है, जैसे मेघ को देखकर मोर नाचता है। फूलशाल की विनय भावना में भगवान के लिए जो सन्मान था, वह अमृत बन गया। फूलशाल ने उसी समय भगवान की बात सुनकर ढाल, तलवार रखकर ऋजोहरण ग्रहण किया और मुनि बन गये। फूलशाल के जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि हमारे से जो उम्र में, गुण में, तप में, आराधना में, ज्ञान में जो महान है, उन्हें सन्मान देना चाहिए। हम जो देंगे, वही हमें वापस मिलेगा। बड़ा तो वह कहलाता है जो छोटो को भी सम्मान दे। . व्यक्ति के बोलने से उसका अंतःकरण दिख जाता है, एक व्यक्ति अंधे को अंधा कहता है, दूसरा प्रज्ञाचक्षु कहता है, बात एक ही है, परंतु दूसरा शब्द कितना सुंदर है? हम भाषा समिति की बात करते हैं, भाषा समिति यानि क्या? शब्दों को तोलमोलकर व्यवस्थित ढंग से बोलना। शब्दों से ही हमारी लायकात, योग्यता जानी जाती है। फूलशाल की कथा से हमने यह जाना, कि विनय गुण मोक्ष का द्वार है। विनय से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र और चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ कृतज्ञता मनुष्य जीवन सद्गुणों के विकास का सुंदर धाम है। जिस तरह भौतिक जीवन को स्वस्थ रखने के लिए आहार पानी की आवश्यकता होती है, वैसे ही आत्मा की दृष्टि हेतु सद्गुणों की जरूरत होती है। जीवन का हर दिन मंगल दिन है, हर घडी सुंदर पर्व है। हर दिन को आराधनामय बनाना चाहिए। मन पवित्र, शांत, निर्मल रहे तो प्राप्त ज्ञान की धारा से, जीवन महोत्सव बन सकता है। हमें कृतघ्न नहीं कृतज्ञ बनना है। किसी के किए हुए छोटे से छोटे कार्य, उपकार को याद करके प्रतिदान चुकाना चाहिए। इसका आदर्श पाठ हमें धरती माता सिखाती है, एक दाने को वह अनंत गुणा करके हमें वापस देती है। परंतु मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो जितना दो, खा जाता है, इन्सान की ऐसी स्वार्थ वृत्ति बन गई है कि सब मैं ले लूं और मेरा लेने वालों का बुरा हो। कुदरत ने हमें पाँच इन्द्रियां बक्शी हैं, इन पंच भूतों का हमें ऋणी होना चाहिए, परंतु उनका बदला चुकाने के लिए, हम क्या करते हैं ? सच्चा कृतज्ञ तो वही है जो दूसरों के उपकारों का बदला चुकाने के लिए मौके का इंतजार करे। हमारे उपर पंचभूतों का, माता-पिता, गुरुजनों का तथा समाज का १६१ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महान उपकार है, जिनकी सहायता से हमारा उत्कर्ष हुआ है। गुरु कौन? जो पाँच इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, ब्रह्मचर्य की नौ (वाड) मर्यादाओं का पालन करते हों। पंच महाव्रत धारी हों, पंचाचार का पालन करने में समर्थ हों, पंच समिति, तीन गुप्ति के पालक हों, इन छत्तीस गुणों के धारक हों, वैही सच्चे गुरु कहलाने योग्य हैं। __ प्रभु महावीरने गुरु की ऐसी व्याख्या इसलिए की, कि साधक सच्चे गुरु को पाकर अपना जीवन सार्थक कर सके। जो वस्तु कीमती होती है, उसकी नकल बहुत जल्दी होती है। हीरे, मोती तथा सोने की नकल खूब होती है, वैसे ही गुरुपद भी मूल्यवान है। यह स्थान प्राप्त करने के लिए, कोई विश्वविद्यालय की परीक्षा नहीं देनी पडती, अत: इसके लिए भी प्रतिस्पर्धा होती है। कुछ स्थानों पर तो कपडे, वेश परिवर्तन करके, नाम बदलकर, एकआध स्वार्थी साथी खोजकर गुरू बनकर बैठ जाते हैं। इसीलिए हमें यहां सावधान किया जाता है कि जैसे सोने को कसौटी पर परख कर खरीदा जाता है, वैसे ही गुरु को भी उपरोक्त गुणों की कसौटी पर परख लेना चाहिए। जो इन गुणों पर खरे होंगे वे ही हमारे जीवन के तारणहार, पथप्रदर्शक बन सकते हैं। गुरु का उपकार अनन्त है, हमें अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की राह बताकर, निस्वार्थ भाव से वात्सल्य की वर्षा करते हैं, सदुपदेश द्वारा हमारा जीवन उज्जवल बनाते हैं। गुरु का जीवन वृक्ष तथा नदी जैसा है। वृक्ष के पास जो आता है वृक्ष उसे फल देता है, छाया देता है, नदी सबको पानी देती है, सबकी प्यास बुझाती है। इनके यहां कोई भेदभाव नहीं, चाहें स्त्री हों, पुरुष हों, हरिजन हों या ब्राह्मण हों। ___ गुरू तथा ज्ञानियों का काम हमें, हमारी आत्मा को शान्ति देना है। उपाध्याय यशोविजयजी ने फरमाया है कि, "तुझे विषाद के कुंए से बाहर निकाला, सम्यक्त्व प्रदान किया, ऐसे गुरु का ऋण, उनके उपकार का बदला, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ कैसे चुका पाएगा? गुरू का उपकार ऐसा है, जिसका अनेक भवों तक बदला नहीं चुकाया जा सकता।" दुनिया में इन्सान अकेला आया है, और अकेला ही जाएगा, उसके सत्कार्य तथा परोपकार से प्राप्त पुण्य के सिवाय कुछ साथ जाने वाला नहीं है। अज्ञानी को यह ज्ञान देने वाले गुरु है, इस ज्ञान के बदले में प्रेम के सिवाय, उन्हें हम क्या दे सकते हैं? बहुत लोग पूछते हैं कि क्रोध, मान, माया, लोभ छूटते नहीं, गुरु याद आते नहीं। इसका उपाय यह है कि ये कषाय क्यों आते हैं? खोजो इसका कारण, और सद्गुणों का बल बढाओ। ऊपर चढते हुए लोगों को नजर के समक्ष रखो, उनका अनुकरण करो गिरते हुओं का नहीं, तभी विकास संभव होगा। गुरु के पास भी डॉक्टर की तरह अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि है, जिससे वो हमारे अंदर के भावों को, स्थिति को समझ जाते हैं। प्राज्ञ पुरुष हमारे भीतर छुपे हुए तत्त्वों की तरफ संकेत करते हैं। हृदय में कैसे क्रोध के तिनके जल रहे हैं? मान की पहाडियां, मायारूपी झाडियां तथा लोभ के कैसे गहरे गड्ढे खुदे हुए हैं? इनमें उलझने के कारण ही इन्सान सत्यरूपी, धर्मरूपी तत्त्व का दर्शन नहीं कर सकता। इसका ख्याल तो अपना आत्म निरिक्षण करने पर ही आ सकता है। जैन दर्शन यानि आंतरिक संशोधन की संस्कृति के दर्शन, परंतु आज तो हम छिछेरी, छोटी बातें तथा संप्रदायों की प्रसिद्धि में पड़े हुए हैं। ____ अपना सच्चा मार्ग यानि आत्मा के आरोहण का मार्ग, इसलिए भगवान ने कहा, “हे जीव तूने बाहर का सब कुछ किया, परंतु आंतरिक संशोधन का कार्य नहीं किया, इसलिए हैरान, परेशान हैं, अब इसके पीछे पड जा।" अब हम वीतराग भगवान के साथ मंदिर में बात करते हैं, “तुम ऐसे शांत और मैं ऐसा क्रोधी? तुम ज्ञान की पूर्ण ज्योत और में अज्ञान से भरा काला कोयला? तुम्हें जगत पूजता है, तो भी निराभिमानी और मुझे कोई Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नहीं पूछता, फिर भी मैं अभिमानी?" ऐसा क्यों भगवान? आपने केवल्य ज्ञान पाया, तो मुझे क्यों नहीं मिलता? भगवान की और अपनी तुलना करें तो अंदर का तत्त्व प्रगट हों, गुणों के प्रति आदर प्रगट हों। कभी किसीने इस दुनिया में हमारे लिए कुछ अच्छा किया हो तो उसके प्रति कृतज्ञता प्रगट हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ उपकार चतुष्टक व्यक्ति यदि दूसरे सभी गुणों से शोभायमान हो, परंतु उसमें यदि कृतज्ञता रूपी सद्गुण का अभाव है। व्यक्ति अपने जीवन में धर्म का दिखावा तो करता है, परंतु अपने ऊपर उपकार करने वालों को याद नहीं रखता। पुराने समय में दूसरों के उपकारों का बदला चुकाने का इन्सान इंतजार करता था, कि कब मौका मिले और वह प्रत्युपकार करे। हम बुरा करने में हिचकिचाते हैं, क्यों कि हम पर हमारी संस्कृति, गुरु, धर्म, माता-पिता, समाज आदि के उपकार हैं, अतः बुरा कर्म करते हुए क्षोभ होता है। हम में यदि मानवता का जरा भी प्रकाश है और किसी कारणवश जीवन में कभी पशुता जगती भी है, तब उस प्रकाश के कारण, अंदर से एक आवाज आती है, “मैं ठीक नहीं कर रहा हूं।" और फिर हम बुरे कार्य करने से रूक जाते हैं। इस प्रकार चेतना प्रबुद्ध होने पर पाप खटकते हैं, भूल कर भी भूल हो जाए तो पश्चाताप जाग्रत होता हैं, यही कारण है कि हम कई बार बुरा करने से रूक जाते हैं। माता पिता, पेट पर पट्टे बांधकर अर्थात भूखे रहकर, बच्चों को अच्छा खिलाते हैं। ठंडी, गर्मी सहन करके उनका रक्षण करते हैं। हमेशा बच्चों के सुख की ही कामना करते हैं, मानों उनके लिए ही जी रहे हों। कैसा अपूर्व उपकार है उनका? १६५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ तीसरा उपकार है समाज का । हमारे उत्कर्ष में समाज का बहुत बडा हाथ है, हममें बुद्धिमत्ता भरी है, परंतु समाज की सहायता उसमें परोक्ष रूप से निहित है। यदि हम अपने पैसो का उपयोग अपने मौजशौक के लिए ही करते हैं, तो फिर समाज भी हमारे लिए कुछ क्यों करेगा? पुंजीवाद के सामने साम्यतावाद यूं ही नहीं आया है, हम उसे लाए हैं। पहले धनवान समाज को कुछ अर्पण करते तो समाज उन्हें अग्रिम पंक्ति में बिठाता, आज यदि अपने ही मौजशौक पूरे करने में धनिक लोग लगे हुए हैं, तो फिर ऐसे लोगों की समाज भी क्यों परवाह करे ? जब हमने दुनियां में कदम रखा था, हम रो रहे थे, जगत हँस रहा था, अब हमें ऐसा प्रेममय, करूणामय जीवन जीना चाहिए कि, जब हम यहां से विदा हों तो हम हँसे और जग रोये । संत कबीर ने कहा भी है “जब हम आए जगत में, जग हंसे हम रोए। ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए ।। " भले लोगों का वियोग सबके लिए दुःखदायी होता है, परंतु उनके देह के लिए नहीं, उनकी उदारता, महानता के लिए उन्हें याद किया जाता है। -- यह कृतज्ञता गुण े में चार बातें सिखाता है, किसी ने अपने पर उपकार किया हो तो कभी भूलना नहीं। किसी पर हमने उपकार किया हो तो, उसे याद नहीं करना । किसी ने हम पर अपकार किया हों तो उसे माफ कर देना । और हमसे किसी पर अपकार हो गया हों तो उससे माफी जरूर मांग लेनी चाहिए। धर्म का बीज जागृति में है, उपकारों की प्रेमभरी यादों में है । एक वृद्धा यात्रा करने निकली, रास्ते में एक कुत्ते ने उसका भोजन खा लिया। वहाँ एक बनजारा आया और खाना खाने लगा, उसने उस वृद्धा को भी खाना खिलाया, बनजारे में मानवता थी, दोनों ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। जब दोनों जाने लगे, उस औरत ने कहा, "इस अन्न का ऋण मैं कब, कैसे चुकाऊंगी? खाकर खुश होना यह मेरा गौरव नहीं है, गौरव तो खिलाने में है ।" बनजारे ने कहा, “आपने मेरा अन्न खाकर मुझ पर उपकार किया है, अन्न सफल हुआ है।" उस महिला ने जाते हुए कहा, " मेरा नाम Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ गजरा है, कभी काम पडे तो मुझे याद करना, मैं उस गाँव की रहनेवाली हूं, याद करोगे तो उपकार होगा।" इस बात को दस वर्ष बीत गये, रोज वृद्धा विचार करती है, “मैं उस बनजारे का ऋण कैसे चुकाउंगी?" ऐसी उपकार वृत्ति में ही महिला का मन जुडा हुआ था। ऐसी सुंदर भावनाओं में ही कभी कभी सुंदर चिंतन ऊभर कर आता है। हमारे में ये क्षमताऐं पड़ी हुई हैं, मगर चिंतन की दिशा बदल गई है। ईर्ष्या रूपी क्षय रोग घर कर गया है। कोई अन्जान यदि करोडपति बन जाता है तो हमें इर्ष्या नहीं होती, परंतु अपना सगा भाई करोडपति बन जाए, तो हम इर्ष्या की आग में झुलस जाएंगे। व्यक्ति को कीर्ति और प्रशंसा प्यारी है, परंतु यह तो पानी पर लिखे अक्षर के समान है, हमारा जीवन ही पानी के बुलबुले जैसा है, काल प्रवाह में इसका क्या स्थान है ? आत्म समाधि के लिए तो उज्जवल कार्यो के सिवाय यहां क्या रहने वाला है? बहुतो को ऐसी भूख जगती है कीर्ति पाने के लिए कि किसी का नाम मिटाकर, वहां मेरा नाम लिख दूं। परंतु वह भूल रहा है कि आज वो किसी का नाम मिटाएगा, कल कोई उसका नाम मिटा देगा। संसार का यही नियम है, मगर अफसोस कि अभिमान, गर्व, अहंकार में सब मस्त है, ऐसा विचार कौन करता है? दस वर्ष बीत गये, एक बार बनजारे को राजाने पकड़ लिया, वह निर्दोष था, उस गाँव में उसे कोई पहचानता नहीं था। राजा ने पूछा, “तुम्हें यहां .. कोई पहचानता है ? तुम्हारे निर्दोष होने का सबूत दो।" बनजारे को वो वृद्धा . याद आई। उसने राजा से कहा, “महाराज मैं निर्दोष हूं, परदेशी हूं, यह माल मेंरा ही है, विश्वास किजिए, हाँ इस गाँव में एक गजरा नामक वृद्धा रहती है, वह मुझे पहचानती है।" वृद्धा तो राह देख रही थी, दौडकर गई, निर्दोष बनजारे को छुडवाया, अपने यहां बुलाकर सत्कार से भोजन कराया, और बोली, “आज का दिन धन्य है, मेरे उपकारी का सत्कार करने का मुझे मौका मिला है।" सिर्फ अन्न खाया था, उसकी खातिर वृद्धा ने इतना खतरा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मोल लिया, इसका नाम ही कृतज्ञता है। आज तो मुसीबत में पडे किसी को देखकर लोग मुँह चुराकर निकल जाते हैं, मुँह फेर लेते हैं। जीवन सुधारने के लिए, प्रगति पंथ पर प्रयाण करने के लिए, इन सब बातों की उपयोगिता आवश्यक है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ वृतज्ञता का संदेश व्यक्ति के अंदर सोए पड़े हुए सद्गुण जैसे जैसे खिलते हैं, आंतरिक शक्ति बढ़ती है। धक्का लगने से बालक गिर सकता है, युवा नहीं गिरेगा जल्दी, ऐसे ही सद्गुणों से अलंकृत जिसका यौवनकाल है, वह दुर्गुणों रूपी धक्के से नहीं गिरेगा। सजाग रहेगा। सुगंधित तेल का पड़ा हुआ एक बून्द जिस तरह पानी की पूरी बाल्टी को सुगंधमय बना देता है, वैसे ही एकआध सद्गुण भी यदि जीवन में विकसित हो जाएं तो पूरा जीवन उस सद्गुण रूपी फूल से महक उठेगा। सज्जन लोग ऐसे ही पानी जैसे होते हैं जो सद्गुण रूपी सुगंध को व्यापक बनाते हैं। दुर्गुण गर्म तेल की भांति होते हैं, जिसमें पानी गिरे, तो वह भी जल जाता है। एक नाई था, उसे ऐसी विद्या प्राप्त हुई थी कि किसी भी वस्तु को बिना सहारे हवा में स्थिर रख सकता था। एक साधु को पत्ता चला तो उसने वह विद्या नाई से सीख ली। परंतु अब साधु दूसरों को कहने लगा कि यह विद्या उसने स्वयं हिमालय में जाकर, साधना करके प्राप्त की है। नाई को गुरु कहना उसके लिए शर्मनाक था। झुठ बोलने का अंजाम यह हुआ कि आकाश में स्थिर उसकी तुंबडी उसके सिर पर पडी, और सिर फूट गया। सद्गुणों से रहित मानव जीवन शून्य है। कालचक्र के माप से मापा जाए, तो सो वर्ष का आयुष्य एक बिन्दु के समान भी नहीं है। ऐसा किमती १६९ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जीवन परायों की निन्दा-टीका में गुजार दें, यह कितनी दुःखद बात है? दूसरों में सद्गुण देखने से वे गुण हमारे भीतर भी आते हैं। इतनी जिन्दगी बीत गई बुराईयां खोजते खोजते। अब थोड़ी जिन्दगी बची है, उसमें सद्गुणों का संचय करना ही आत्मा के लिए हितकर होगा। यदि हमने किसी पर उपकार किया है, तो याद ही नहीं करना चाहिए, याद करने से इसका महत्त्व समाप्त हो जाता है, सामने वाले को दीनता का अनुभव होता है, हमारे मन में अभिमान पैदा होता है। क्रोध को जीतना सरल है, मान पचाना मुश्किल है। चंदन घिसने पर सुगंध देता है, पानी तृषा शान्त करता है, पेड़ सबको शीतल छाया देता है। हमें भी ऐसा ही, बिना कुछ कहे, दूसरों का उपकारी बनना है। दायाँ हाथ दान दे और बाँये हाथ को पता न चले, यही सच्चा दान है। जमीन के अन्दर डाला हुआ बीज चुपचाप उगकर बाहर आता है, वैसे ही गुप्त दान ही फलदायी बनता है। दान देकर हमें हल्कापन महसूस करना है, दान के पैसे अदा करने के बाद तिजौरी का खाली स्थान वापस भरने के लिए, उसके पीछे नहीं पड़ना चाहिए। दान देते समय हमारे भाव उत्तम होने चाहिए, उदारतापूर्वक देना चाहिए, कभी भी दिए हुए दान की चर्चा नहीं होनी चाहिए। सच्चा धर्म तो यह है कि जिसने हमारा बुरा किया हों, उस पर भी उपकार करो। हमें तो चंदन जैसा बनना है, उसे कुल्हाड़ी से काटा जाए तो भी सुगंध ही फैलाता है। __इन्सान और पशु में अंतर है, पशु अकेला अकेला दूसरे भूखे पशुओं का विचार किए बिना खा सकता हैं, परंतु इन्सान ऐसा नहीं कर सकता। आसपास के लोग भूखे हों तो उन्हें उसमें से कुछ देना चाहिए, ऐसा विचार तो आना ही चाहिए। “परिहितनिरता" में से। धार्मिक व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश मिला है, उसे यह एहसास है कि उसके सुख के पीछे, कितने अज्ञान व्यक्तियों के हाथ, हृदय का श्रम Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ तथा पसीना बहा है। किसी ने मकान बांधा है, किसीने कपडे बुने हैं, किसी ने अनाज उगाया हैं, तो किसी ने विद्या, विज्ञान द्वारा अविष्कार, खोज करके हमें साधन सुविधाएं जुटाई हैं। If I have seen further, it is by standing upon the shoulders of giants. हम जो कुछ देखते है, जानते हैं, वह अनेकानेक लोगों की साधना का परिणाम है। मानव हितेच्छुओं ने अपने गहन चिंतन द्वारा विश्व का परिक्षण निरीक्षण करके, विकास गामी बनाया है। परंतु इन मौलिक सिद्धियों के बीच भी इन्सान आज दु:खी और द्वैषी है, इसका कारण है अज्ञान एवं स्वार्थ। केवल परहित की भावना जाग्रत होने पर ही उसे यह एहसास होता है, कि परोपकार में ही स्वोपकार निहित है। दूसरों को सुगंध देने पर हमें सुगंध, दूसरों के पास दीपक जलाने से हमें प्रकाश स्वत: ही मिल जाते हैं। जिन्हें ज्ञानी का या गुणों का समागम नहीं मिला, ऐसे कई लोग कामचोर बन जाते हैं, दूसरों से अधिक से अधिक काम लेना। उनको चूस लेना, ऐसा उनका लक्ष्य बन जाता है। मंदिर में भी उसके लिए चंदन कोई घीस कर दे, अगरबत्ती जलाकर दे, किराये का पुजारी मंदिर को स्वच्छ रखे, सब काम पुजारी करे और सेवा पूजा का लाभ उसे चाहिए। ऐसी पूजा से कितना लाभ मिल सकता है ? ऐसा इन्सान रात दिन सेवा करने वाले नौकर को सोने के लिए एक गद्दा भी न दे, और स्वयं एअरकंडिशन में मुलायम गद्दे पर आराम से सो जाए, एसी स्वार्थांधता के पीछे अंधा इन्सान, यदि स्वयं के धार्मिक होने का दावा करे तो यह सिवाय ढोंग के और कुछ नहीं है। विद्यासागर एक बार नौकर को न भेजकर, गर्मियों में स्वयं ही जाकर अपना काम कर आए, साइकिल पर। पत्नी ने कहा, “ऐसी धूप में तुम क्यों गये? नौकर किस लिए है?" उन्होंने कहा, "अरे नौकर को पैदल चलकर जाना पडता, मैं साईकिल पर जाकर दस मिनट में काम कर आया। नौकर में भी तो अपने जैसी ही आत्मा है ना?" "परहित निरता" का भाव जगता है, तब सबकी आत्मा समान दिखती है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परहित निरतः 'पपरहितनिरतः' यह बीसवां सद्गुण है, और यह अत्यंत उपयोगी है। परोपकार ही स्वोपकार है, यह मानकर आनंद उठाना चाहिए। परोपकार करके उसके बदले में कुछ प्राप्त करने की चाह यदि रखते हैं, और समाज प्रशंसा नहीं करता, सत्कार नहीं देता तब लगता है समाज को कद्र नहीं है। परंतु ऐसी भावना रखे बिना ही व्यक्ति को निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करनी चाहिए। धर्म तथा जीवन दर्शन को समझने वाला व्यक्ति, दूसरों की सेवा लेना या अपना कष्ट दूसरों पर डालना पसंद ही नहीं करता। अपना बोझ दूसरों पर लादकर, या अपना काम दूसरों से करवा कर, मुक्त होने की भावना, यह एक मानसिक रोग है, जो आज समाज में व्यापक बनता जा रहा है। जहाँ तक हम इन सब बातों का विश्लेषण नहीं करेंगे, जीवन दर्शन हाथ नहीं लगेगा। अणु का विश्लेषण किया जाए तो नयी शक्ति हाथ लगेगी। इसी प्रकार आज हमें अपने धर्म और कर्म का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। उत्कृष्ट जीवनदर्शन हाथ लगेगा। इस जगत में, दूसरों का ऋण, कम से कम अपने उपर चढे, ऐसा विवेक रखना चाहिए, क्यों कि कर्मराजा का ब्याज, सब ब्याजों से अधिक है। अत : जितना जल्दी हो सके दूसरों के ऋण से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। मुफ्त में किसी का न लें, ऐसी दृष्टि रखनी चाहिए, बिना १७२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ हक का लेंगे तो अपने हाथ से चला ही जाएगा, टिकेगा नहीं। अंकगिनती करने वाला यंत्र जड है, परंतु वह गल्ती नहीं करता, इन्सान गल्ती कर बैठता है, वैसे ही कर्म भी जड है, योग्य परिणाम देने की पद्धति जड पदार्थों की व्यवस्था में भी है। हम जैसे जैसे स्वर्ण इकट्ठा करने की लालसा बढ़ाते है, वह बढ़ती ही जाती है। देह की देखभाल में इन्सान अपना कितना कीमती समय बरबाद कर देता है। सगे संबंधी, विशाल जनसमुदाय को इकट्ठा करना अच्छा लगता है, परंतु इन्सान यह भूल जाता है कि वह जन्मा भी अकेला था और जाएगा भी अकेला ही। ___इन्सान को सोने के लिए दो गज जमीन, खाने के लिए मुट्ठीभर अनाज, पहनने को दो जोड़ी वस्त्रो की जरूरत होती है। फिर भी वह कपड़े और अलंकारों के संग्रह से पूरी अलमारियां भर कर रखता है। सद्गुणी व्यक्ति के भीतर, प्रलोभनों तथा मानवता के बीच संघर्ष चलता है, परंतु वह ऐसे प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके आगे कूच करता है। तब ऐसा परहितनिरत : मनुष्य अपने आसपास वालों की सबकी भलाई सोचकर, समाज कल्याण में सहायक बनता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ समष्टि की भक्ति में मुक्ति जब व्यक्ति में कृतज्ञता गुण का विकास होता है, तब वह परहित में मग्न हो जाता है। ‘परहितनिरतः' गुण उसकी प्रकृतिरूप बन जाता है, जैसे खाना पीना सोना प्रकृति है, वैसे ही सद्गुण हमारी प्रकृति बन जानी चाहिए। ऐसा व्यक्ति दूसरों का भला किए बिना रह ही नहीं सकता, यदि किसी का भला न हो सके तो, उसके मुंह पर शून्यता, उदासी छा जाती है, कि उसका वह दिन निष्फल गया। जिस कार्य को करने से हमारा मुँह नीचा हो जाए, ऐसा कार्य करना ही क्यों चाहिए? यदि जीवन में जरूरतें कम कर दी जाएं तो ऐसी स्थिति का सर्जन नहीं होगा। बढती हुई जरूरतें ही हमें वस्तुओं का गुलाम बनाती है। यदि स्वतंत्र जीवन जीना है, तो जरूरतें कम किजिए। किसी के प्रति तिरस्कार की भावना न रखें, किसी की गुलामी न स्वीकार करें तो मृत्यु शैय्या पर भी हम शांति का अनुभव कर सकते हैं। मुक्ति तो भक्ति की दासी है,भक्ति गुण जीवन में आ गया तो मुक्ति तो उसके पीछे दौडकर आएगी। सिर्फ अपने लिए ही नहीं, सबके हित के लिए जीना, इसी में जीवन की सार्थकता है। १७४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ लुब्ध लक्ष हमारे अंतकरण में तिमिर की जो पर्ते जमा हो गई हैं, उन्हें दूर हटाने के लिए महातेज की आवश्यकता है। इस तेज की झांकी का अनुभव करना, जीवन का मुख्य हेतु है, इसी का नाम है लब्धलक्ष। जीवन में अनेकानेक वस्तुओं की प्राप्ति का ध्येय, अभिलाषा बनी रहती है, परंतु हमारे जीवन का पूर्ण ध्येय क्या है? इसकी खबर हमें स्वयं नहीं होती। आज स्थिति ऐसी है कि जिसे छोड़कर जाना है, उसके पीछे मानव पागल बना है, परंतु जो साथ आने वाला है, ऐसा महातेज विस्मृत हुआ है, उसका हमें दुख नहीं है। दुनिया में आज लोग साधनों को ही साध्य मान बैठे है, क्या यह पागलपन नहीं? इसीलिए आज साधन ही साध्य बन गये हैं। सुबह से शाम तक हम संग्रह करने में जुटे हुए हैं, परंतु ख्याल रहे कि यह हमारा जीवन लक्ष्य नहीं है। यह जो निरर्थक बातों में समय व्यर्थ करना, हमारी आदत बन गई है, इसका त्याग जीवन की गहराईयों तक जाकर जीवन के रहस्यों को प्राप्त करना, इस जीवन का ध्येय होना चाहिए, यह हम भूल ही गये हैं। जिन्दगी जीने की खातिर जी लेना, आयुष्य पूर्ण होने को आए तब डॉक्टर की दवाईयां खा लेना, ऐसा यंत्रवत जीवन, यदि अधिक जी भी लें तो भी क्या फायदा? हा हा १७५ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ दूसरों की अर्थहीन बातें सुनने में, हम पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं । दुनिया में कितने अरब लोग है ? क्या आप जानते है ? यदि हम सबकी बातें सुनेंगे तो धर्म करने के लिए समय कहाँ से लाएंगे ? इसलिए भगवान महावीर ने कहा है, "पहले तू अपने आप को जान, यदि एक अपने को जान लिया तो सबको जान जाएगा ।" जो मिट्टी को जानता है, वह मिट्टी के बर्तनों को भी जानता है। जो गेहूं के आटे को जानता है, वह रोटी, व आटे से बनने वाली सभी चीजों को जानता है । द्रव्य के रूप, नाम बदलते हैं, परंतु मूलभूत वस्तु तो वही रहती है। अपनी आत्मा को पहचानने वाला, सब आत्माओं को पहचान लेगा । विचार श्रेणी बदलती है, सत्य नहीं बदलता, हमें तो पुराने तथा नये का समन्वय ही करना है। काल के प्रवाह में मूलभूत सत्य कभी धुंधला नहीं पडता, उस पर काल का जंग कभी नहीं चढ़ सकता, न चढेगा। जगत मात्र परिवर्तनशील है, रूप, रंग, नाम भिन्न दिखते हैं, परंतु अंदर बसी हुई आत्मा तो वही है, हमें उसके दर्शन करने हैं, यही हमारा लक्ष्य है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय दृष्टि इस धर्मरूपी रत्न प्राप्ति के लिए, हमें इक्कीस गुणों को अपने जीवन में विकसित करने हैं। धर्मरत्न को पाने वाला धार्मिक, गुणवान होना जरूरी है। अयोग्य व्यक्ति अपने आप को धार्मिक कहलाता है, तो धर्म शब्द को लज्जित करता है। लब्धलक्ष - योग्यता की पराकाष्ठा यानि धार्मिक आत्मा। प्रथम धार्मिक कहलाना और फिर योग्यता प्राप्त करना मुश्किल है, धार्मिक कहलाने के लिए पहले गुण समपन्न होना जरूरी है। जो पहले बताए गये बीस गुणों को समझ गया है, जीवन में आचरण करता है, वही लब्ध-लक्ष है। मानव जीवन का हेतु क्या है ? हेय, ज्ञेय, उपादेय, छोडने लायक, जानने लायक और आचरण करने लायक। अच्छी लगने वाली बात, व्यक्ति या वस्तु भी यदि छोडने लायक हों तो उसे छोडना सीखना चाहिए। माँ को बेटी बहुत प्रिय होते हुए भी उसे ससुराल विदा करती है, क्यों कि वह जानती है कि उसका योग्य स्थान ससुराल ही है। ___ कुटुंब पोषण के लिए अर्थसिद्धि करनी पडती है, मगर अनर्थ सिद्धि का तो त्याग ही करना चाहिए। अर्थ सिद्धि यानि नीति, मर्यादा में रहकर अर्थप्राप्ति करना और अनर्थ सिद्धि यानि न्याय नीति को ध्यान में न रखते हुए, किसी भी प्रकार से अर्थ प्राप्ति करना, उसके पीछे ही जीवन बिताना। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ धर्म और नीति का नाश करके व्यवसाय करना, उचित नहीं है, यह बात इन्सान जैसे भूल ही गया है। व्यक्ति आज पैसे के सामने भगवान को भी छोटा गिनता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में आज व्यक्ति अर्थ और काम के पीछे पडा है, इसी में रचा पचा रहता है। जिन्दगी का अमूल्य समय इसमें गवांकर भी, उसे भोगने का भी समय नहीं मिल पाता, क्यों कि जीवन जीने का उसके पास, कोई ध्येय ही नहीं । प्रति वर्ष जीवन का एक वर्ष कम हो रहा है, हम मृत्यु के निकट जा रहे हैं, फिर भी इन्सान वर्षगांठ मनाता है, आनंद का दिन मानकर । सच तो यह है कि, अनमोल जिन्दगी के वर्ष व्यर्थ ही खर्च हो जाए, उसका अफसोस होना चाहिए। आयुष्य की डोरी को कोई नहीं जोड़ सकता, दीपक में तेल खत्म होने पर दिया बुझ जाता है, वैसे ही आयुष्य पूर्ण होने पर, जीवन दीप निर्वाण को प्राप्त होता है, इन्सान चला जाता है 1 दिन प्रतिदिन आयुष्य तो घटता ही जाता है, परंतु सत्कार्यों को करते करते जीवन समापन हों तो सार्थक है। आयुष्य को कौन रोक सकता है भला ? मरूस्थल में पानी भस्म हो जाता है, वही पानी ऊपजाऊ जमीन में हरियाली और अनाज पैदा करता है । हम जब भी मरें तब लोग ऐसा बोलें कि इसने अपना जीवन सफल बनाया, सत्कार्यों द्वारा । लब्धलक्ष यानि ध्येय की तरफ दृष्टि, यह दृढ निश्चय होना चाहिए । . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ध्येय यात्रा पच्चीस सौ वर्ष पहले श्रमण भगवान महावीर ने यह सब हमें क्यों कहा? इसका विचार कीजिए। उनके अतःकरण में तो एक की भावना थी, किस तरह से इस संसार का कल्याण हों, ऐसी निर्मल भावना द्वारा वाणी का स्रोत बहाया, सच्चे स्नेही तो ऐसे सत्पुरुष ही हैं, जो हमें संसार रूपी कीचड से मुक्त करवाना चाहते हैं। बालक छोटा हों और सच्चे सर्प को खिलौना समझकर खेलने जाए, तो माँ उसका हाथ पकड़कर उसे खींच लेती है। उस समय यदि बच्चा माँ का हाथ काट ले, तब भी माँ उसे छोडेगी नहीं, क्यों कि माँ समझती है कि इसी में बच्चे का हित है। इसी तरह हमारे गुरू भी माँ समान है, विषयरूपी सर्प के साथ हम खेलने को ललचाते हैं, तब गुरु ही हमें रोकते है। तब हमें शायद यह रूचिकर नहीं लगें, परंतु फिर भी वे हमारे हितेच्छु हैं। श्रोताओं के कई प्रकार हैं, कुछ होते हैं कान्ता समित, उन्हें छोटी छोटी बातों द्वारा स्त्री तथा बालक की भांति समझाया जाता है। दूसरे होते हैं मित्र समित, उनके साथ तर्क, चर्चा आदि होती है। तीसरा है प्रभु समित, ऐसा व्यक्ति प्रथम दोनो दृष्टि से श्रेष्ठ होता है, अत: उनके दिल में प्रभु आज्ञा के लिए कोई शंका पैदा ही नहीं होती, वह तो जीवन का अनुभव ही करता है। यह ज्ञान केवल चर्चा का विषय नहीं, यह तो आचरण का विषय १७९ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० है। इसीलिए ज्ञानियों ने फरमाया है कि शक्कर की मिठास का अनुभव करने के लिए सौ ग्रंथो को पढ़ने से अच्छा है कि मुँह में शक्कर का एक टुकडा डाल दो तो अधिक ज्ञान व आनंद मिलेगा। काया कृश होगी तो चलेगा, परंतु आत्मा को कृश करेंगे तो नहीं चलेगा। हमने देखा है कि कई तेजस्वी पुरुषों की काया कृश होती हैं, परंतु अंदर से आत्मा दिव्य तेज से जगमग होती है। आज तक हमने काया की सजावट में ही जीवन बिताया है, परंतु अब हमें अपनी आत्मा को पुष्ट करना है। एक व्यक्ति के हाथ में दो कुंभ दिए। बाएं हाथ में संपत्ति का कुंभ तथा दांए हाथ में शांति का कुंभ दिया और कहा, “कि दुनिया में तुम संपत्ति बाँटना और शांति रखना, तो तुम पूर्ण सुखी होंगे।" दोनों कुंभ लेकर वह जा रहा था, उस के पैर में काँटा लगा, काँटा निकालने के लिए दोनों कुंभ नीचे रखे, वापस उठाते समय दोनों अदलाबदली हो गये, लक्ष्य चूक गया। अब वह बिना समझे संसार में शांति बाँटने लगा तथा संपत्ति का संचय करने लगा। बस तब से ही संसार में मानव भूलभुलैय्या में पड़ा है, शांति बेचकर संपत्ति संजोने में लगा है। इस भूल-भूलैय्या से बाहर निकलने के लिए हमारे जीवन में यह लक्ष्य बिंदु होना चाहिए, कि संपत्ति बाँटो और शांति खरीद कर जीवन को समृद्ध बनाओ। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बिंदु लब्ध लक्षवाला व्यक्ति, जीवन का प्रत्येक कार्य दक्षतापूर्वक करता है, व्यवस्थित एवं विचारपूर्वक करता है। जहाज जब अपना लंगर उठाता है, तो उसके पहले उसके पहुंचने का बंदर, मंजिल तय हो जाती है। जीवन के हर क्षेत्र में लक्ष्य निश्चित करना जरूरी है। हमारा जन्म क्यों हुआ? हम क्यों जी रहे हैं? इसका चिंतन मनन करना चाहिए। लक्ष्य बिना जीवन की दशा समुद्र में भटकने वाले नाविक जैसी होती है, जिसे कोई बंदर, कोई किनारा हाथ लगने वाला नहीं। क्या हम सबकी दशा भी ऐसी ही नहीं है? सब काम के भार तले दबे हैं, किसे वक्त है, जीवन दौड़ धूप में बीत रहा है। किसी से पूछा जाए कि, “यह सब क्या कर रहे हौ? जीवन का हेतु क्या है ? किसलिए जी रहे हो? कहाँ पहुंचना है? कहाँ से आए हो?" तो किसी के पास भी सही जवाब नहीं है, आज हमारी यही दशा है। इसलिए ज्ञानी फरमाते हैं कि शांत पलों में इसका विचार करो। हमें घर बनाना, घर खरीदना, वस्तुएं लाना, इन सबका विचार आता है, परंतु जीवन किसलिए है? इसका विचार कभी नहीं आता, जगत को एक दिन छोड़कर जाना हैं, ऐसी बात अपशुकन लगती है, किसी को पसंद ही नहीं। परंतु हम भूल रहे हैं, कि हमें पसंद है या नहीं, यह तो अवश्यंभावी है, जन्म के साथ मरण जुडा है, काल से हमारा बचना नामुमकिन है। फिर १८१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ हम मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार क्यों न रहे? शिकारी को देखकर खरगोश जोर से दौडता है, परंतु जब थक जाता है, तब आँखे बंद करके रास्ते में बेठ जाता है। वह मानता है कि मेरी आँखे बंद हैं, में कुछ नहीं देख सकता तो शिकारी भी कुछ नहीं देख सकता, परंतु यह उसकी मूर्खता है। हमारे पीछे भी ऐसा काल-शिकारी आ रहा है, और फिर भी हम मृत्यु का विचार मात्र करना भी नहीं चाहते, क्या यह हमारे जीवन की बिडम्बना नहीं? बहुत चले गये, बहुतों को श्मशान घाट तक पहुंचा आए, फिर भी हमें अपने नश्वर जीवन का ज्ञान नहीं होता, आश्चर्य है! उपाध्याय विनयविजयजी महाराज फरमाते हैं, कि जिनके साथ हम बचपन में खेले, जिनको बुजुर्ग मानकर शीश नमाते थे, वो सब चले गये। जिनके साथ प्रीत की, जिन के साथ प्यार भरी बातें करते थे, समझते थे कि यह प्रेमगोष्टि तो अनंत युगों तक चलेगी, वे सब स्वजन भी भस्मीभूत हो गये राख बनकर खाक में मिल गये। यह सब देखकर भी हमें अपनी आत्मा का ख्याल नहीं आता, कितने अफसोस की बात है? - इतनी जाग्रति सदैव रहनी चाहिए कि एक दिन जाना है। गेंद में से हवा निकलते ही गेंद संकुचित हो जाती है, वैसे ही देह से आत्मा निकलने पर शरीर निश्चेष्ट होकर पड़ा रहता है। चौबीस घंटो में दुर्गंध, देने लगता है, पूरी जिन्दगी जिसकी अत्यंत प्रेमपूर्वक संभाल ली,वह पल भर में जलकर राख हो जाता है। सभी अनिश्चितताओं में केवल मृत्यु ही निश्चित है, अत: लक्ष्यबिंदु आवश्यक है। पर्वत में से निकलती नदी का लक्ष्य निश्चित है, राह में आने वाले जंगल, झाडीयों में से रास्ता बनाती हुई नदी समुद्र की और बहती चली जाती है। वैसे ही इन्सान भी शुरूआत से ही लक्ष्यबिंदु निश्चित कर ले, तो राह में आने वाली कठिनाईयों से न डरते हुए, बिना रूके, जीवन में प्रगति साध सकता है। बिल्ली एक बार अपने बच्चे को मुंह में लेती है, दूसरी बार चूहे को Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ मुंह में लेती है, क्रिया तो एक ही है, पर दोनों के पीछे हेतु भिन्न है, एक में रक्षण भाव है, दूसरे में भक्षण भाव है। संसार में व्यक्ति जब लक्ष्य निश्चित करके जीते हैं, ताकि अलिप्त रहकर जी सकें, हमें भी ऐसी ही तैयारी सदा रखनी है कि अवसर आने पर हम हमारा सर्वस्व आसानी से त्याग सके। शक्कर एवं शहद दोनों में मधुरता है, मगर शक्कर पर बैठी हुई मक्खी मीठे का स्वाद लेकर, जब जी चाहें उड़ सकती है। परंतु शहद पर बैठी हुई मक्खी मीठे का अनुभव, स्वाद तो लेती है, मगर उसके पंख अंदर ही चिपक जाते हैं, उड नहीं पाती, वहीं चिपक जाती है। आज इन्सान का जीवन शहद पर बैठने वाली मक्खी की भांति हो रहा है, वस्तुमात्र में आसक्ति के कारण वह मक्खी की तरह संसारिकता के शहद में लिप्त होता जा रहा है। इसके लिए हमें अपनी अरूपी आत्मा के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। अंग्रेजी में एक कहावत है, “No man can hit the mark, if his eye moves from it." यदि आँखे निशाने पर एकाग्र न की जाएं. तो निशाना चूक जाता है। हमने जो लक्ष्य तय किया है, हमें उस पर, उस निशाने पर निगाहें एकाग्र रखनी हैं। ऐसा करने से दूसरी प्रवृत्तियां करते हुए भी क्रोध, मान, माया, लोभ को कम करते हुए हम अपनी मंजिल को पा सकेंगे। साधु भी अपना लक्ष्य चूकें तो नीचे उतर सकता है, कई बार साधुओं के सामने संसारी लोगों से अधिक प्रलोभन आते हैं। मुंबई में लोगों को एक कमरा भी नहीं मिलता जब कि साधुओं को तीन मंजिल का उपाश्रय मिल जाता है। हम लोग सादा भोजन करते हैं, साधु को मिष्टान मिलते हैं, हम कभी फटे हुए कपड़े पहनते हैं, मगर साधु को ऐसा करने की जरूरत नहीं। ऐसी परिस्थिति में यदि साधु भी लक्ष्य चूके तो कपड़े, वस्तुएँ, मकान आदि के संग्रह में जुट सकता है। ___ इसीलिए साधु व संसारी दोनों के लिए लक्ष्य बिंदु अत्यावश्यक है। एक बार यह ध्येय निश्चित हो जाए, फिर तो हमें जिन्दगी छोटी लगेगी, कुछ करने के लिए, और हम एक क्षण के लिए भी प्रमादी नहीं बनेंगे। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ __ बहुत लोग कहते हैं कि, “क्या करें, न चाहते हुए भी क्रोध आ जाता है।" मैं उनसे पूछता हूं कि दुकान पर कोई ग्राहक आता है, वह तुमसे कहता है कि, "तुम झूठ बोल रहे हो।" तुम जानते हो कि यह ग्राहक अच्छा नफा करवाएगा, तब तुम उस पर गुस्सा करते हो? या फिर मीठा मीठा बोलकर लाभ ले लेते हो? अब गुस्सा कहाँ गया? परंतु ऐसा लक्ष्य क्या आत्मा के लिए रहता है ? यदि आत्मा का विचार करें तो संयम स्वाभाविक बन जाता है। जीवन में नया वेग आता है। लक्ष्यविहिन जीवन के गुण भी दुर्गुण बन जाते हैं लक्ष्य हों तो ही व्यक्ति शिखर पर चढ़ सकता है। फिर तो जीवन ऐसा नीतिमय बन जाता है, कि हम अनीति कर ही नहीं सकते। लक्ष्यपूर्ण जीवन के गुण ही हमारी आध्यात्मिक उन्नति के सोपान बन सकते हैं। यह मनुष्य जीवन अति मूल्यवान है, इसके बाद हम स्वर्ग, नर्क या पशु पक्षी, मानव कोई भी भव प्राप्त कर सकते हैं। सब दरवाजे खुले हैं, हमारा लक्ष्य हमें ढूंढना हैं। हमें हमारी आत्मा से पूछना चाहिए, “हे आत्म-बनजारे, तुम्हें कौन से नगर की तलाश है ?' नरभव नगर सुहाना है, मुंबई नगरी जैसा, इसमें दोनों ही संभावनाए हैं, ऊपर उठने की तथा नीचे गिरने की। तूं जैसा चाहे उसके योग्य कार्य कर। .. हमारे सामने तीन प्रश्न हैं, "तूं कहाँ से आया है? क्या साथ लाया था? तु कहाँ जाएगा?" यह प्रश्न हमें अपनी अंतर आत्मा से पूछने हैं, धीरे धीरे विचार करना है, तो ध्येय स्पष्ट होगा। मोक्ष ही हमारा लक्ष्य है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इसकी प्राप्ति के साधन है। इन साधनों की प्राप्ति के लिए हमें योग्यता प्राप्त करनी है, और यह योग्यता हमें इन इक्कीस गुणों के धारण करने से प्राप्त होगी। ___ इन गुणों की प्राप्ति से, हमारे भीतर प्रकाश प्रगट करके, हम स्व में मुक्ति का अनुभव करें, यही मंगल भावना। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________