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जन्मान्तर के संस्कार अच्छे हैं तो यह बातें शीघ्र असर नहीं कर पाती किन्तु यदि जरा भी कुसंस्कारों की छाप है तो इन्द्रियां उस और मुड़ जाती है और मन रस लेने लगता है।" बहुत समय बाद ये बातें अगर निकल भी जाएं, तो भी छाप छोड जाती हैं। मानस शास्त्र के ऐसे संशोधन जीवन दर्शन की साधना के प्रतिघोष हैं।
आज व्यक्ति के विचार, हल्की पुस्तके पढने से विकृत बने हैं। जैसा तैसा खाने से - पानीपूरी, भेलपूरी, पकोडे रोज खाने से बिमारी आती है, वैसे ही दुर्वांचन से दिमाग बीमार होता है। थोडा पढ़ो मगर अच्छा पढ़ो। व्यक्ति के लिए विचारात्मक सर्जन की कल्पना प्रतिक्रमण में रखी गई है। घटिया इश्तिहारों से लोगों के दिमाग खराब हुए है। सद्वांचन वही है, जिसके पढने से देहाशक्ति कम हों, आत्मा की जलकमलवत् अलिप्तता बढ़ती जाए और हमारे जीवन में महान आदर्श जन्में। हमारी धर्म क्रियाओं के अंध अनुकरण के बदले उसके अर्थ को जानें, व सभी क्रियायें भाववाही बनें। ध्यान रहे - जिन्दगी कैमरे की नेगेटिव फिल्म जैसी है, प्रकाश की एक किरण भी उस पर गिरे तो वह वस्तु के प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर लेती है।
सृजनात्मक विचारों से दिमाग में आदर्श संवेदन उभरेंगे, जो आत्मा के साथ एकाकार होकर संवादमय संगीत का सर्जन करेंगे। हम बैठे बैठे ही तीर्थों के दर्शन, कल्पना द्वारा कर सकेंगे, ऐसी जागृति, एकाग्रता आने से मन शांत और मधुर वातावरण में विचरने लगेगा। हमारे विचार भी पुष्प की भांति सदा सद्गुणों की सुगंध से महकते ही रहेंगे। __मन एक सुंदर वाद्य साज है, इसको जानकर तारों को छेडे तो मधुर झंकार ही निकलती है, अत: मन, वचन, काया तीनों की योग रूपी संवादिता जरूरी है।
जहां संवादिता, वहां सुख, जहां विसंवादिता वहां दु:ख है। तबलची का ताल और संगीत के सुरों की लय संवादिता उत्पन्न करती है, और ऐसे संवादमय वातावरण में मन आनंदमुग्ध बन जाता है।
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