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मन, वचन, काया तीनों का संवाद होना चाहिए । विचार, वाणी तथा क्रिया एक समान होंगे, तभी जीवन का सच्चा योग होगा । पियानो सुंदर है, इतना ही काफी नहीं है, उसे बजाने वाला भी होना चाहिए वरना वह केवल दिवानखाने की मात्र शोभा रूप बनकर ही रह जाएगा।
एक मंदिर में पियानो बहुत वर्षो से पडा था, कोई बजाने वाला नहीं था, एक दिन एक बजाने वाला आया और अपनी ऊँगलियों के स्पर्श से सुर छेड़ा। सारा वातावरण संगीत के सुरों से झंकृत हो उठा, सभी भक्तजन भाव विभोर हो गये। ऐसा क्यों हुआ ? बजाने वाला संगीत का जानकार था, ही बजाने में मन एकाग्र था !
साथ
पियानो यानि कि हमारा मन मंदिर, हम भगवान को कहते हैं, “प्रभुजी मन मंदिर में पधारो।” परंतु प्रभु को मन मंदिर में लाना है, तो मंदिर को शुद्ध भावों रूपी धूप से, शुभ विचारों की सुगंध से महकाना होगा । मन अत्यंत कीमती साज है । वाणी और कर्म के योग से ही यहां साज बजाया जा रहा है। दोनों मे जब एकरूपता होती है, परस्पर संवादिता स्थापित होती है तभी मधुर संगीत जन्म लेता है । मन से उठने वाली इस आनंदमय स्वर लहरियों से आत्मा भीग उठती है और फिर वह परमानंद में गोतें लगाने लगती है ।
इन्सान जहां है, वहीं उसे अपने स्वभाव को बदलना चाहिए, कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए । जब तक आंतरिक स्वभाव में परिवर्तन न हों जीवन में परिवर्तन मुश्किल है।
"छप्पन तीरथ करी आवे, पण श्वानपणुं नव जाय।”
जीवन से क्रूरता नामक तत्त्व बाहर निकले और सौम्यता गुण खिले, इसी को प्रकृति सौम्यत्व कहते हैं। दूसरों की तरक्की, सुख देखकर, इर्ष्या नामक दुर्गुण जिसे श्वानपना कहते हैं, उसे दूर करना अपने जीवन का ध्येय होना चाहिए ।
जब मन क्रोधी, अशांत होता है, वश में रखना मुश्किल होता है, उस समय हमें बाहर न देखकर, अपने भीतर झांकना चाहिए, मन क्रोध के
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