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________________ था “मैं अपने छोटे भाईओं को वंदन क्यों करू ? केवल ज्ञान प्रगट होने के बाद ही जाऊंगा, जिससे वंदन ही न करना पड़े।'' ऐसे अत्यंत ज्ञानी, जो साधना में इतने तल्लीन, एकाकार रहते थे कि पक्षियों ने सिर पर घोंसले बना दिए। सर्दी, गर्मी, बारिश में शरीर को लेशमात्र भी कंपित न होने दिया, उन्हें भी यह अहंकार सता रहा था कि, "मैं नमन करूं?' इस गर्व का दर्शन व्यक्ति को बहुत देर से होता है, जब अंतर ज्योति प्रगट होती है तभी इसके दर्शन होते है। जगत् गुरु ऋषभदेव भगवान की करूणा बाहुबली पर प्रगटी, उन्होंने ब्राह्मी तथा सुंदरी दोनों बहनों को प्रतिबोध करने भेजा, उन्होंने कहा, “वीरा मोरा गज थकी उतरो।" इन सादे शब्दों में आंतरिक भाव का संकेत अद्भुत था, वो जागृत हो गये, छोटे भाईओं के पास जाकर, वंदन करने के लिए कदम बढाया, उसी क्षण केवलज्ञान प्राप्त हो गया। . इस केवलज्ञान की शक्ति हम सब में मौजूद है, परंतु वृत्तियों के आवरण से आवृत्त है, सच्चे ज्ञानियों के दर्शन श्रवण से अपना अंतकरण खुल जाता है। ज्ञानी तो निमित्त मात्र है, यह ज्ञान कहीं बाहर नहीं अपने भीतर ही भरा हुआ है, उसे खोलने के लिए चाबी की खोज करनी है हमें। कई बार बल से नहीं बुद्धि से काम सुगम हो जाता है, इस सत्य की गुरु रूपी चाबी यदि अपने हाथ लग जाए तो अंतर द्वार पल भर में खुल सकते हैं। स्थूलिभद्र तथा बाहुबली के उदाहरण पूरे विश्व के लिए है, यह गर्व सबके भीतर छिपकर बैठा है। सांप यदि घर में घूम रहा हो तो कौन शान्ति से सो सकता है ? इसी तरह हमें अपने भीतर बैठे हुए गर्व रूपी सर्प से हमेशा सम्भलकर रहना है। इसीलिए विनय नामक सद्गुण को आवश्यक गिना गया है, इस बात को समझेंगे तभी हम कह सकेंगे कि हम कुछ समझे हैं। आटे को अच्छी तरह गूंथा जाए तो ही रोटी अच्छी बनती है, इसी तरह विनय गुण धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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