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१६७ गजरा है, कभी काम पडे तो मुझे याद करना, मैं उस गाँव की रहनेवाली हूं, याद करोगे तो उपकार होगा।" इस बात को दस वर्ष बीत गये, रोज वृद्धा विचार करती है, “मैं उस बनजारे का ऋण कैसे चुकाउंगी?" ऐसी उपकार वृत्ति में ही महिला का मन जुडा हुआ था। ऐसी सुंदर भावनाओं में ही कभी कभी सुंदर चिंतन ऊभर कर आता है। हमारे में ये क्षमताऐं पड़ी हुई हैं, मगर चिंतन की दिशा बदल गई है। ईर्ष्या रूपी क्षय रोग घर कर गया है। कोई अन्जान यदि करोडपति बन जाता है तो हमें इर्ष्या नहीं होती, परंतु अपना सगा भाई करोडपति बन जाए, तो हम इर्ष्या की आग में झुलस जाएंगे।
व्यक्ति को कीर्ति और प्रशंसा प्यारी है, परंतु यह तो पानी पर लिखे अक्षर के समान है, हमारा जीवन ही पानी के बुलबुले जैसा है, काल प्रवाह में इसका क्या स्थान है ? आत्म समाधि के लिए तो उज्जवल कार्यो के सिवाय यहां क्या रहने वाला है?
बहुतो को ऐसी भूख जगती है कीर्ति पाने के लिए कि किसी का नाम मिटाकर, वहां मेरा नाम लिख दूं। परंतु वह भूल रहा है कि आज वो किसी का नाम मिटाएगा, कल कोई उसका नाम मिटा देगा। संसार का यही नियम है, मगर अफसोस कि अभिमान, गर्व, अहंकार में सब मस्त है, ऐसा विचार कौन करता है?
दस वर्ष बीत गये, एक बार बनजारे को राजाने पकड़ लिया, वह निर्दोष था, उस गाँव में उसे कोई पहचानता नहीं था। राजा ने पूछा, “तुम्हें यहां .. कोई पहचानता है ? तुम्हारे निर्दोष होने का सबूत दो।" बनजारे को वो वृद्धा . याद आई। उसने राजा से कहा, “महाराज मैं निर्दोष हूं, परदेशी हूं, यह माल मेंरा ही है, विश्वास किजिए, हाँ इस गाँव में एक गजरा नामक वृद्धा रहती है, वह मुझे पहचानती है।" वृद्धा तो राह देख रही थी, दौडकर गई, निर्दोष बनजारे को छुडवाया, अपने यहां बुलाकर सत्कार से भोजन कराया,
और बोली, “आज का दिन धन्य है, मेरे उपकारी का सत्कार करने का मुझे मौका मिला है।" सिर्फ अन्न खाया था, उसकी खातिर वृद्धा ने इतना खतरा
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