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थोडी देर बाद एक सत्ताधीश आया "मेरे हाथ में जब सत्ता थी, सब मुझे सलाम करते थे, मेरे इर्द गीर्द घूमते थे, आज सत्ता चले जाने पर मेरी कोई कीमत नहीं?'' क्या वाकई दुनिया सत्ता की परछाई को ही नमन करती है? तभी एक धनिक आया, कल तक उसे, "लखा' कहते थे, आज उसे लक्ष्मीचंद कहकर सभा में आगे बैठाते हैं, उसकी वाह वाह करते हैं। उसने नमन करके कहा, "हे मंदिर के देव, तुझे विनती करता हु, मेरी संपत्ति की परछाई को अमर रखना।"
जगत में यही नजारा देखने को मिलता है, इन्सान अपने आसन सिंहासन से बड़ा माना जाता है। अपने सच्चे आंतरिक अस्तित्व को दिखाकर नहीं जीता, तब उसकी परछाई उससे बडी बन जाती है।
परछाई तो बाह्य वस्तु है, सत्य तो अपना अस्तित्त्व है, परंतु जीवन में उल्टी गंगा बह रही है। इन्सान से अधिक उसके श्रृंगार की कीमत बढ़ गई है।
जीवन के दो विभाग है - बाह्य और अंतर। बाह्य खजाना चाहे जितना अधिक हों, उससे सच्चा आनंद नहीं मिल सकता, लोग आकर्षित होंगे पर जब तक आंतरिक ऋद्धि से हम संपन्न नहीं होंगे, सात्त्विक सुख की प्राप्ति दुर्लभ है। आंतर वैभव ऐसा है, जिसे कोई नहीं छीन सकता।
अंतर का खालीपन बेचैनी बढ़ाता है, व्याकुल करता है, यह एक खण्डहर जैसा है, जिस में भय रूपी भूत परिक्रमा करते हैं। हमें अपने हृदय को समृद्ध रखना है, अपनी आंतरिक समृद्धि का एहसास दिलाए ऐसे व्यक्तित्त्व की जरूरत है, ऐसे मनन, चिंतन और ध्यान की जरूरत है, ताकी हम अपनी आंतरिक समृद्धि को पहचान सकें, अनुभव कर सकें।
कई लोग भूतकाल में ही जीते हैं। यह तो बासी भोजन करने जैसी बात है। वर्तमान ही उपयोगी है, हाँ अपने पूर्वजों के सद्गुण जरूर ग्रहण कर सकते हैं। उधार लेकर जीवन जीना चर्चास्पद बनता है, अपनी जरूरतें मर्यादित करके, जीने वाले के समान कोई सुखी नहीं जगत में। .
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