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साधु संसारिक वस्तु किसी को देते नहीं और नहीं लेते हैं, तो उनके जैसे निश्चिंत दूसरे कौन हो सकते हैं ?
मानव के मन में आज शांति नहीं, स्थिरता नहीं चिंतारूपी चिता उसे खा रही है, क्यों कि इन्सान अपनी सच्ची समृद्धि को भूल कर परछाई का विस्तार कर रहा है । इस में केवल धर्म ही इन्सान के चैतन्य को शांत, सौम्य ओर निश्चिंत बनाता है, जो धर्म का पालन करते हैं, धर्म उनका पालन करता है।
जितनी मौलिक साधनों की वृद्धि उतनी दुःख की भी वृद्धि, जितने साधन घटाऐंगे, शांति बढेगी, यदि यह दृष्टि नहीं अपनाएंगे तो कभी अपने ही साधन खंजर बन जाएंगे।
जीवन में दु:ख कहाँ से आते हैं ? गया हुआ सुख आंसुओं से वापस नहीं आता, इसलिए तत्त्वज्ञानियों ने जीवन की गहराईयों को टटोलकर हमें एक नई दृष्टि प्रदान की है । दुःख आया तो क्यों आया ? किसने खडा किया ? यह सोचने पर पत्ता चलेगा कि अपने कल्पित सुख में से दुःख का सर्जन हुआ है, प्राप्त साधनों का वियोग होने पर दुःख आ घेरते हैं। कल्पित सुख में विचरने से अल्प आनंद प्राप्त होता है, अल्प समय के लिए, उन साधनों के अभाव में, दुख महसूस होता है, बेचैनी बढती है, क्यों कि इस सुख का आधार क्षणविनाशी वस्तुओं पर निर्भर था।
आने वाले दुःखों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है । जब हम अपने निज दोष दर्शन करने की शुरूआत करेंगे, तभी सही रौशनी प्राप्त होगी। प्रभु महावीर के कानों में कीले ठोंके गये, तब भी भगवान ने किसी को दोषी नहीं माना, उन्होंने सोचा पूर्व भवों में मैंने शैय्यापालक के कानों में शीशा डलवाया तो आज यह मेरे कानों मे कीलें ठोक रहा है। “दूसरों को दुःख देने में सुख माना था, अब समतापूर्वक दुख सहन कर लो।" यह एक महान शिक्षा है, साधनों से सुख के मोह में भ्रमित होकर जीने से जीवन शांत, समाधिमय कैसे हो सकता है ?
एक उदाहरण याद आ रहा है । एक राजा ने अपने नाई को जरी से
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