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________________ था, मैं सोचता कहाँ मुनिराज का ज्ञान और दर्शन, कहाँ अद्भुत वाणी द्वारा अजब प्रवाहित इनके प्रतिभा सम्पन्न विचार, कैसी उदाहरणों की रसिकता और कहाँ मेरी कांपती हुई यह कलम ! डर लगता था कि, मुनिश्री के विचारों को न्याय तो मिलेगा न ? फिर भी यथाशक्ति लिपिबद्ध दो-तीन प्रवचन संकोच सहित उन्हें दिखाए। ज्ञानी की दृष्टि तो बाह्यस्वरूप की तरफ नहीं बल्कि आंतरिक भावों की ओर ही होती है। मुनिश्री ने भी उदार दिल से प्रवचन देखे, और स्मित चहरे से मुझे सम्मति दी । इनकी तरफ से मिले प्रोत्साहन के लिए मैं तथा श्रोतावाचक गण इनके खूब आभारी हैं। प्रत्येक चातुर्मास में जिन मंदिरो में होने वाले, धर्मग्रंथो का पठन, भाविक श्रमण तथा श्रद्धावान श्रावकों में भक्ति की पुनः स्मृति जगा देता है । और यदि ग्रहण करने की योग्यता है, तो जीवन नव संजीवनी से भर जाता है। परंतु चित्रभानुजी के प्रवचन, स्वाध्याय की बातो में, कुछ विशेषता लिए कल्याणकारी सुंदरता थी । अति प्राचीन इस ग्रंथ में से विचार, आदर्श और भावना को आपने नवयुग की भाषा, नवनिरूपण, नवीन अर्थ गौरव भरी रंगावली तथा काल्पनिक काव्यमय शैली से अलंकृत किया है । इनके प्रवचनों ने इस ग्रंथ को नवयुग के नवजीवन की एक युगगाथा बना दी है। धर्मभावना को सर्वांगी जीवन में मूर्तिमंत करने की तमन्ना और झंखना श्रोताभक्तों में जगा दी है। “धर्म रत्न" प्रकरण के इस ग्रंथ को - इसके संदेश को पूज्यश्री ने नवीन, सर्वधर्मप्रिय, सदा प्रेरक और इसमें चैतन्य उर्जा भरकर जिवित बना दिया है। इनके प्रवचनों में सर्वधर्म समन्वयभाव है, मानव मात्र के प्रति करुणा का झरना उनके हृदय में बह रहा है। अंधेरे में भटकते हुए लोगों के लिए दीपक समान है आपका संदेश तथा सर्वकाल में सबको सहायक बनने की आपकी तत्परता, सराहनीय है। आपके तप संदेश में नवनीत सी कोमलता है और त्याग संदेश में हृदय की आर्द्रता है। श्रोतावर्ग, पाठकगणों को इनके हृदय की उर्मियां स्पर्श कर जाती है, वो सबके हृदय में बस जाते है । पूज्य श्री स्वयं प्रवक्ता होने के साथ साथ मनोवैज्ञानिक भी है, ऐसा प्रतीत होता है। कब, कितना, किस स्वरूप में और किस श्रोता से कहना Jain Education International 8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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