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साधुता के रंग से, अपने आप को रंग लिया। एक ने धर्म क्रियाओं की आराधना अपनाई, तो दूसरे ने ज्ञान ध्यान की राह पसंद की। इस जुगल जोडी की सुसंवादिता के क्या कहने? प्रेम और प्रकाश का कैसा दैवीय सुलभ और विरल सुमेल ? संसारी स्वजन इस तरह धर्मपथ की सहकल्याण यात्रा का प्रारंभ करे, यह कैसा रंगीला, मस्तीभरा स्वप्न चित्र है?
प्रथम भावनगर, फिर गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में लोगों को धर्म के रंग में रंगकर मुनि श्री मुंबई पधारे। १९६० मई महिने में मेरी मुलाकात उनसे हुई। शिक्षण क्षेत्र से निवृत्त होकर, मैं शांत प्रवृति में विहर रहा था। मैंने सुना कि मुनिराज नेमिनाथजी मंदिरजी में चतुर्मास हेतु पधार रहे हैं, उनके प्रवचन सवेरे होंगे, यह सुनकर मुझे अति आनन्द हुआ।
___मैं प्रवचन में जाने लगा, संवत २0१६ के चातुर्मास, प्रवचन स्वाध्याय के लिए, साढे सात सौ साल पुराना ग्रंथ, सर्व धर्म प्रेरक, ऐसा यह ग्रंथ “धर्मरत्न प्रकरण'' पसंद किया गया ! प्रतिदिन प्रार्थना एवं मैत्रिभावना के बाद मुनिराज प्रवचन देते। विशाल जन समुदाय एकत्रित होता था। जैन तथा अजैन सबके मुख पर एक अनोखी चमक, प्रवचन सुनने के बाद दिखाई देती थी।
उनके ज्ञानानुभव का सुधापान मैं प्रथम बार कर रहा था। मुझे प्रवचन सुनने में अपूर्व आनंद आने लगा। प्रवचन के दौरान कई विचार, उदाहरण, काव्यमय कल्पना आदि मैं रोज लिखता था, यह मेरी पुरानी आदत है। कभी मेरे मित्र, मुनिराज के भक्त इसे पढ़ते तो आनंदित हो उठते। कुछ लोगों ने मुझे सुझाव दिया, कि पूर्ण प्रवचनों का संकलन किया जाए तो भविष्य में पुस्तक छपवा सकते हैं। मुझे इसमें मेरे निवृत्त समय का सदुपयोग नजर आया, और मैंने अपनी पात्रता का विचार किए बिना ही यह कार्य शुरू कर दिया।
मुझमें न तो लघुलिपि लिखने की योग्यता और ना ही दीर्घलिपि लिख सकुं ऐसी गति। परंतु जो कार्य हाथ में लिया, उसे अधूरा छोडना उचित न समझकर दूसरे श्रोताओं की लिखी हुई टिप्पणियों की सहायता लेकर में रोजबरोज के प्रवचन तैयार करने लगा। परंतु मन में क्षोभ रहता
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