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________________ अनुभव कर रही है। इस ग्रंथ की क्षतियों का अधिकारी मैं हुं, तथा इसकी प्रेरणा का, सुंदरता का यश पूज्यश्री को जाता है। चातुर्मास के विदाय प्रवचन में उन्होंने जो कहा था, उसमें मैं थोडा सा फेर बदल कर के इतना ही कहता हूं कि, मुनिश्री के धर्म ज्ञान सागर में से बूंद भर पानी पीने का पुण्य मैंने कमाया है, यह अलभ्य और अनिवर्चनीय सुख पाकर मैं कृतकृत्यता का अनुभव करता हूं। कहते हैं की अरूणोदय के पहले का अंधकार गूढ़ होता है। मानव जाति के इतिहास में आज यह अंधकार, जीवन के सभी क्षेत्रों में फैल रहा है। आज मानव मन, माया के रंग में रंग रहा है, मन अस्वस्थ है, हृदय में प्यार का पावन झरना सूख गया है, मानवता कम नजर आती है। ज्ञान की जड़ता और अन्दर का अहम्, आत्मा की आवाज को दबा रहा है। मानव अपने आप को दयनीय महसूस कर रहा है, शांति संवादिता, स्नेह की तृषा में तड़फ रहा है। जबकि विज्ञान संशोधन के अणु, मानव जाति का संहार करने के लिए आसन्न उपस्थित है। अब तो धर्म का कल्याणकारी झरना ही मानवता के लिए आशा की किरण है। अंधेरे में भटकते लोगों के लिए धर्मप्रकाश ही नव चेतना अर्पण कर सकता है। संहार के संताप में सूजन की सुंदरता देख सकता है। आज का जगत ऐसे धर्मपंथप्रदर्शकों, प्रेरणादाता सुमित्रों की अपेक्षा रखता है। आज के संत, उपदेशक और शिक्षागुरुओं को आज अनाथ बने हुए लोगों के जीवन रूपी रथ का सारथी बनने की जरूरत है। धर्म रत्न की प्राप्ति के लिए आराधना आवश्यक है। जिस हृदय में श्रद्धा का दीप प्रज्वलित है, वहां भक्ति, स्नेह का सिंचन है। प्रत्येक धर्मजिज्ञासु को इस में से धर्मरत्न, ज्ञानपिपासु को ज्ञान रत्न तथा अन्य जीवों को तरह तरह का प्रकाश प्राप्त होगा। और मुझे श्रद्धा है की इस ग्रंथ की प्राण प्रतिष्ठा, सर्वधर्मी जनों को, धर्म मंदिर की और ले जाएगी यही भक्तिभरी, प्रेमभरी मेरी आराधना है। कार्तिक प्रतिपदा २०१८ - जमुभाई दाणी ता. ९ नवे. १९६१ 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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