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________________ ११५ लेता हूं।'' आवेश में दौड़ा साधु के पास, कुछ सुनने को तैयार ही नहीं। साधु शिष्यों के साथ बैठे थे। वहाँ आकर चिल्लाया, “चोर पाखंडी, रूक जा, तेरी खबर लेता हूं।" जो भी मन में आया वही बोलने लगा, आवेश में दृष्टिभ्रम या मतिभ्रम हो जाता है इन्सान। बुरे से बुरे शब्द सुनाएँ साधु को। “मेरी एक सोने की मोहर तूने चुराई है, वापस कर दे, वरना पूरे गाँव में तुझे बदनाम कर दूंगा।' साधु शांत रहे, परंतु उसने पूरे गाँव में साधु को बदनाम कर दिया। घर आकर स्त्री को पूरी बात बताई कि, किस तरह एक महोर चोरी करने पर साधु को उसने बेईज्जत किया है। स्त्रीने कहा, "यह आपने क्या किया?'' फिर पूरी बात की। वह हैरान रह गया, खाये बिना ही साधु के पास जाकर, उनके पैरों में गिरकर माफी मांगी। साधु से पूछा, “मैंने आपकी इतनी बेईज्जती, निंदा की आपको बुरा तो नहीं लगा?" साधुने चुटकी भर धूल जमीन पर से ली और नीचे डालते हुए कहा, "तुम्हारी निंदा और स्तुति मेरे लिए धूल समान है।" साधु तो चंदन जैसे शीतल थे, समता रखी तो जीत उनकी हुई। यह उदाहरण हमें यह सिखाता है, कि घर और बाहर हमें शांत रहना चाहिए, साधु की तरह बुद्धि की माध्यस्थता तथा दृष्टि में सौम्यता रखनी चाहिए। ऐसी आत्मा ही धर्म आराधना के योग्य है। सच्चा धार्मिक वही है, जिसे सद्गुण स्वर्ण समान तथा दुर्गुण बिजली के तार समान लगते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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