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________________ ११४ हाथ न भी जले तो, हथोड़ा गर्म लोहे के साथ-साथ स्वयं भी टेढ़ा-मेढ़ा हो जाएगा। अशांतिपूर्ण अनेक क्रियाओं से, शांति पूर्ण एक क्रिया का महत्त्व, कहीं अधिक है। धर्म की अनेक क्रियायें जैसे कि सेवापूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी छोटा सा निमित्त पाकर क्रोधित हो जाने से, कितना नुकसान होता है? अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी हजारों मण रूई को जला डालती है, वैसे ही क्रोधरूपी अग्नि समतारूपी रूई को जला डालती है। हमें हमेशा यह ध्यान रहना चाहिए कि जीवन के प्रत्येक प्रसंग में, बुरे या अच्छे दोनों समय मानसिक संतुलन कैसे बनाए रखना है? एक पहाड़ी पर एक साधु रहते थे, एक यात्री ने उनसे कहा कि, उसे यात्रा करने जाना है और उसकी सोने की मोहरें वो संभालें। साधु के बहुत मना करने पर भी, वो नहीं माना, तब साधु ने कहा कि पास में ही एक गड्डा खोदकर, अन्दर डाल दे, यात्री ऐसा करके निर्भय होकर चला गया। एक वर्ष बाद यात्री ने अपनी मोहरों की थैली मांगी। साधु ने कहा, "जहाँ तुमने रखी थी, वहीं पर होगी।" जमीन खोदकर थैली निकाली और साधु की खूब प्रशंसा करने लगा। इतनी स्तुती करने पर भी साधु को जरा भी हर्ष या खुशी नहीं हुई। हम तो जरा सी अनुकूलता में फूले नहीं समाते और प्रतिकूलता में आकुल, व्याकुल हो जाते हैं। याद रखना चाहिए, कि जोवन में सभी दिन, एक सरीखे नहीं रहते, संयोग - वियोग तो आते ही रहते हैं। हमें मन को शांत रखकर समतामय रहना है। मन जब आवेश में आए, मन को वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। थैली लेकर यात्री घर आया और नहाने चला गया। स्त्री खुश थी, लड्डू बनाने का सोचकर थैली में से एक मोहर निकाली और आवश्यक सामग्री खरीदकर भोजन तैयार किया। यात्री नहाकर आया, और अपनी मोहरें गिनने पर एक कम पाई। बस फिर क्या था? सोचा “साधु ने निकाली है, चुपचाप निकाल ली और साधु होने का ढोंग करता है। अभी जाकर साधु की खबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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