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________________ १४५ जैसे बनकर साध्वीजी के पास गये, उन्होंने इस विद्वान को अपने गुरू के पास भेजा । गुरू भी षड्दर्शन के ज्ञाता थे, उन्होंने हरिभद्र भट्ट को प्रतिबोध किया, जीवन का रहस्य बताया, वो झुक पड़े और दीक्षा अंगीकार की । फिर तो महान शासन प्रभावक आचार्य हरिभद्रसूरि के नाम से ख्याति प्राप्त कि, परंतु उन साध्वीजी के उपकार को नहीं भूले, क्यों कि वो उनके जीवन के मार्गदर्शक बने थे। इसीलिए उन्होंने जितने भी ग्रंथो की रचना की उसमें अंत में 'याकिनिसुत' यानि याकिनि के पुत्र के रूप में स्वयं की पहचान दी है। ऐसे समर्थ आचार्य भी साध्वी को गुरु मानते हैं। एक बार उनसे किसीने पूछा, “तुम कपिल के भक्त थे, महावीर के भक्त कैसे बने?” उन्होंने जवाब दिया, “मुझे महावीर का पक्षपात नहीं, कपिल पर द्वेष नहीं, जिनका वचन मुक्तिपूर्ण था, उसका वचन मैंने स्वीकार किया है।" आज तो व्यक्ति को जो अच्छा लगता है उस पर राग जो न अच्छे लगे उस पर द्वेष करता है। सच तो यह है कि राग रूपी खाई और द्वेष रूपी पर्वत के बीच रास्ता निकालकर, माध्यस्थ भाव अपनाना है । जिनके वचन, शास्त्र जीवन और अनुभव हमारी बुद्धि में ठहरते हों, अच्छे लगते हों उनका स्वीकार करना चाहिए। हर बात भली भांति सोच समझकर जीवन में उतारनी चाहिए। पूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण वगैरह सबके सच्चे मूल्य, अर्थ, भाव समझकर यदि बोलें जाएं तो फिर नींद के झोंके नहीं आएंगे। भगवान की वाणी आगम अत्यंत सरल, सुंदर हैं, परंतु हम उन्हें समझने का प्रयत्न ही नहीं करते। जीवन का परम सत्य, सरल है, इसीलिए कहा है कि “जो मुझे समझ में आता है, उसे मैं स्वीकार करता हूं।" जिसे विशेषज्ञ बनना है उसे पक्षपात की भावना से रहित होकर वस्तु के गुणधर्म को जानना चाहिए, ऐसा व्यक्ति ही धार्मिक बनने के योग्य है । विशेषज्ञता जब आती है, तब व्यक्ति को मताग्रह, दुराग्रह, पक्षपात वगैराह नहीं रहते । गुण का अंगीकार यानि जीवन में उल्लास व प्रकाश का विस्तार । विशेषज्ञता, धर्म के शिखर पर पहुंचने की सीढ़ि है, विशालता का गुण भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001809
Book TitleDharma Jivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherDivine Knowledge Society
Publication Year2007
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size11 MB
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