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तो यह प्रवाह चालू रहेगा, वस्तु के प्रतीक रूप दान देने से नयी चेतना प्रगट होती है।
ऐसे आदर्श दान के दो किस्से ध्यान में लेने योग्य है। सूरत में एक आगम मंदिर बनवाने की चर्चा चल रही थी, पूज्य सागरजी महाराजने फरमाया कि, “घर घर मांगने जाने की जरूरत नहीं है, जिसका भाव होगा वह लाभ ले लेगा।" एक पेढ़ी रखी गई, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चौबीस घंटो में एक लाख दस हजार रूपये इक्ठे हो गये। किसने कितना दिया, कुछ पता नहीं। इसका नाम है सच्चा दान।
दूसरा प्रसंग है, थोड़े समय पहले हुए रेलसंकट तथा अतिवृष्टि का। गाँव के लोग एक सज्जन के घर गये और विनती की इक्यावन रूपये देने की, मगर उन्होंने कहा कि वे सिर्फ इक्कीस रूपये ही देंगे। अब शाम को सब इक्ट्ठे हुए, चर्चा चली कि, “वो भाई कितने कंजूस है? इक्यावन रूपये भी न दे सके।" सबने निंदा, टीका की।
तब एक वृद्ध बोल उठे, “भाईयों समझे बिना टीका नहीं करो। उस शेठ को पैसे देकर नाम नहीं करना था, वरना आज अखबार में जिसकी बात लिखी है कि अनाम रहकर, जिन्होंने इक्कीस हजार का दान दिया है, वह यही श्रेष्ठी हैं।" इस तरह सच्चा दान तो अपने आंतरिक आनंद के लिए दिया जाता है, नाम करने के लिए नहीं।
आपके शरीर को मिले नाम, किराये के हैं नाम माता-पिता या किसीने भी रखे हों। इन नामों के पीछे हम पूरी जिन्दगी खत्म कर देते हैं, परंतु अपने अंदर छुपा हुआ तो अनामी, अरूपी है, इसका दर्शन प्रतीति धर्म का हेतु है।
अपना जीवन केवल पानी बिलोने की प्रवृत्ति ही न बनकर रह जाए,यह ध्यान रहे। कहा है कि तेरे कार्य “आत्मप्रीत्यर्थे' कर। अंतरआत्मा को आनंद मिले, ऐसा जीवन जीएं, क्यों कि मन और इन्द्रियों की तृप्ति क्षणिक है, आत्म तृप्ति ही शाश्वत है। प्रवृत्तियां नाम के लिए है, या अंदर बैठे हुए उस अनामी
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